उर्दू जुबान,अब्दुलक़वी दस्नवी और भोपाल
भोपाल (मध्य प्रदेश): बे-नज़ीर अंसार एजुकेशनल एंड सोशल वेलफेयर सोसाइटी के ऑफिस सेक्रेट्री - मुनव्वर अहमद ने विज्ञप्ति जारी कर बताया है कि, भारत और भारत के तमाम सरहदी मुमालिक / बर्रे आजम के साथ-साथ पूरी दुनिया में आलमी यौम-ए-उर्दू जोशो खरोश के साथ मनाया जा रहा है। तमाम उर्दू दां और मोहिब्बाने उर्दू, उर्दू की बक़ा व फरोग के लिए कमर कस ली है और उर्दू के साथ होने वाली ना-इनसाफियों के खिलाफ तमाम प्लेटफार्म (फोरम) से आवाज बुलंद करने लगे हैं। शायद इसी का नतीजा है कि गूगल ने अपने "डूडल" के जरिए उर्दू अदब की अजीमुल-मर्तबत शख्सियत मरहूम प्रोफ़ेसर अब्दुल कवी दस्नवी को खेराजे अकीदत पेश किया है। ग़ालिबन यह पहला मौका है, जब उर्दू के किसी मशहूर अदीब को यहां जगह मिली है। यह हमस ब के लिए खुशी की बात है। ष्गूगलष् का यह क़दम उर्दू अदब के लिए जहां बाइसे फख्र करार दिया जा सकता है, वहीं यह देखना अफसोस नाक भी है कि उर्दू अदब का दर्द रखने वाले इस सिपाही की वफात के कई साल गुजर जाने के बाद भी उन पर कोई ऐसा काम नहीं किया गया जिस पर उर्दू वाले फख्र कर सकें।
यकीनन "गूगल" ने अब्दुल कवी दस्नवी का "डूडल" तैयार कर उर्दू अदब को फरोग देने का दावा करने वाली तंजीमों को यह सोचने पर मजबूर किया होगा कि अल्लामा इकबाल, असद उल्लाह खान ग़ालिब और मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसी हस्तियों के यौमे पैदाइश और वफात पर तो हर साल तकारीब मुनक्किद करते हैं, लेकिन इकबाल, ग़ालिब और अबुल कलाम कि हयात के मुख्तलिफ गोशो से रोशनास कराने वाली शख्सियत अब्दुलकवी दस्नवी फरामोशी के शिकार हो रहे हैं।
जी हां! अब्दुलक़वी दस्नवी ने "कादिर नामा ग़ालिब" "भोपाल और ग़ालिब" और इकबाल भोपाल में" जैसी तस्नीफात से ग़ालिब और इकबाल को नहीं पहचान दी और कई किताबें लिख कर उर्दू अदब के फरोग़ में अहम किरदार अदा किया।
मारूफ नक्क़ाद पदम भूषण प्रोफ़ेसर गोपीचंद नारंग ने उनके बारे में "किताब नुमा" के अब्दुलकवी दस्नवी नंबर में लिखा है कि "प्रोफ़ेसर अब्दुल क़वी दस्नवी फरिश्ता सिफत इंसान थे। मुजस्सम नेकी, शराफत और इंसानियत, वह फनानी अल-अदब शख्सियत थे। सिवाय लिखने, पढ़ने और उर्दू की खिदमत के उन्हें किसी से सरोकार ना था"। इस क़दर खूबियां रखने वाली शख्सियत को याद करना सिर्फ "गूगल" का काम नहीं है। उर्दू तंजीमों और उर्दू इदारों को भी इस जानिब ग़ौर करने की जरूरत है। सेमिनार, वर्कशॉप और मुजाकरात के लिए सिर्फ वही हस्तियां रजिस्टर्ड नहीं, जिन पर पहले ही कई सेमिनार, वर्कशॉप और मुजाकरे हो चुके हैं।
हमें आज भी उर्दू के लिए मुसलसल जद्दोजहद करने वाले जुनूनी और मोहिब्बे उर्दू की जरूरत है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि उर्दू अदब गिरोह बंदी और इलाका बंदी के मर्ज में मुब्तला है। उर्दू की पस्ती व जवाल पज़ीर होने की वजूहात भी यही हैं कि उर्दूदां उर्दू की बका व फरोग़ की बात तो करते हैं, लेकिन उर्दू की बका व फरोग़ के लिए दूसरों की तआउन नहीं करते। हमें मुत्तहिद होकर उर्दू की बक़ा के लिए मुहिम चलाने/मुहिम से जुड़ने की जरूरत है। उर्दू के लिए काम करने वालों का तआउन करने की जरूरत है।
हमें उर्दू अदब की अजीमुल मर्तबत शख्सियत मरहूम प्रोफ़ेसर अब्दुल क़वी दस्नवी की खिदमात से सबक लेते हुए उर्दू की बका व फरोग़ के लिए मुसलसल जद्दोजहद करने का अज़्म करने की जरूरत है। हम सबको मिलकर उर्दू की बक़ा व फराग़ के लिए तहरीक चलाने की जरूरत है। इसके साथ ही मूल्की, सूबाई और इलाकाई तौर पर उर्दू के मसाइल पर आवाज बुलंद करने की जरूरत है। उर्दू के साथ किए गए ना-इंसाफियों, जुल्मो-ज़्यादती के खिलाफ पुर-अमन तरीके से अपनी लड़ाई लड़नी चाहिए।
जराए के मुताबिक बहुत से सूबों में और खास कर के उत्तरी भारत के स्कूलों, कॉलेजों मंे कायम शुदा उर्दू डिपार्टमेंट में उर्दू सीटों में कमी की जा रही है या इसको बंद करने की साजिशें की जा रही हैं। उर्दू पढ़ने वाले तलबा को नेसाब की किताबें मुहैया नहीं कराई जा रही हैं, जिससे तलबा दीगर जुबान को अपनाने पर मजबूर हो रहे हैं। स्कूलों में उर्दू टीचरों की तर्रूरी, नेसाब की किताबें उर्दू में मुहैया कराने और उर्दू इदारों की सरकारी तआउन में की गई कटौती के खिलाफ आवाज बुलंद करना चाहिए। कॉलेजों, यूनिवर्सिटियों में उर्दू डिपार्टमेंट कायम करने और जिन रियासतो में उर्दू बोर्ड तशकील नहीं दी गई है। इन तमाम मसाईल पर मरकज़ी व रियासती सरकारों से मुतालबा करना चाहिए।