सुप्रीम कोर्ट का प्रतिगामी फैसला: रघु ठाकुर
नयी दिल्ली, 13 मई: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इन्दौर के उन 54 लोगों की याचिका पर फैसला दिया है जिन्होंने इंदौर विकास प्राधिकरण, ए.के.बी.एन. आदि अन्य विभागों की योजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण के विरूद्व याचिका दायर की थी।
याचिकाकर्ता का कहना था कि चंूकि उन्हें मुआवजा नही मिला है अतः उनके जमीन का अधिग्रहण रद्द किया जाये।
इस याचिका की सुनवाई जस्टिस श्री अरूण मिश्रा, श्री आर्दष कुमार गोयल, व एक अन्य न्यायाधीष के तीन सदस्यीय न्यायाधीष की कोर्ट ने सुनवाई की थी।
बेंच ने याचिकाकर्ताओं की याचिका के संबन्ध में भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 की परिभाषा को आधार बनाकर याचिकाकर्ताओं की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि अगर अधिग्रहण के बाद सम्बन्धित संस्था ने मुआवजा देना प्रस्तावित कर दिया है तो उसे भुगतान करना माना जायेगा।
बेंच ने यह भी कहा कि अधिग्रहण करने वाली संस्थाऐं मुआवजा देने के लिए नोटिस,अधिसूचना आदि जारी करती है जिन पर जमीन के मालिक नहीं जाते और बाद के अधिग्रहण को चुनौती देते हैं।
सर्वाेच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीषों का यह निर्णय बाध्यकारी होगा परन्तु यह न्याय आधारित नजर नही आता। क्योंकि आमतौर पर भूमि अधिग्रहण किन लोगों की जमीनों का होता है,उनकी आर्थिक पृष्ठभूमि क्या है, इस पर भी विचार जरूरी है।
विकास के नाम पर अब जो भी योजनाऐं सामने आ रही है उनमें बांध-खनिज का खनन- नये रिहायसी आवास,कल-कारखाने आदि शामिल है।
कल-कारखानों को भी औचित्य और रूपयों के आधार पर अमूमन दो हिस्सों में बाॅट सकते है एक तो वे कारखाने या निर्माण के कार्य जो सेना और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए या फिर रेल और सिंचाई जैसे जन उपयोगी कार्यों के लिए आवष्यक है. इनके लिये जमीन का अधिग्रहण अनिवार्यता जैसी होती है हाॅंलाकि इनके लिये भी जमीन किसानों की खेतिहर जमीन ही ली जाती है और वही उनकी आजीविका होती है उनके लिये जमीन अधिग्रहण का मतलब अपने और अपने परिवार का भविष्य दाॅव पर लगाना होता है।
ऐसे मामलों में जमीन के अधिग्रहण को वैकल्पिक रोजगार या आजीविका की उपलब्धता के रूप में माना जाना चाहिए, ताकि जमीन से हटाये हुए लोग अपने भविष्य की जिन्दगी ठीक से जी सके।
यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि, राष्ट्रीय कार्यांे के लिए उद्योगपतियों की बंद उद्योगों की जमीन या उनकी कृषि भूमि का अधिग्रहण नही होता। बडे-बडे जमीदरों,जमीन के मालिक, राजा महाराजाओं की जमीन का अधिग्रहण भी विकास कार्यों के लिए षायद ही कभी हुआ हो।
हो सकता है कि, उसका एक कारण यह भी हो कि धन,ताकत और सत्ता से सम्पन्न लोग और उन्ही के वर्गीय भाई बंधु योजनाकार पहले से ही योजनाओं को इस ढंग से मोडते है कि उनकी जमीन प्रभावित न हो। यहाॅं तक कि, सडकों और पुलों के निर्माण में अगर सत्ताधारी या ताकतवर लोगों की जमीन फॅसती है तो सडको को या पुलो को उनकी सुविधा के अनुसार मोड दिया जाता है।
विकास का सारा हमला आदिवासियो,गरीबो और कमजोर लोगों पर ही होता है मुआवजे और अधिग्रहण के बारे में भी सुप्रीम कोर्ट का फैसला प्रतिगामी फैसला लगता है।
18वीं सदी में ब्रिटिष राज में अधिग्रहण लगभग राजतांत्रिक जैसा ही था। जिस प्रकार राजतंत्र के जमाने में सब भूमि का मालिक राजा होता था और उसका आदेष अंतिम होता था लगभग उसी प्रकार से ब्रिटिष काल में भी अधिग्रहण की परम्परा थी। फर्क केवल इतना था कि राजषाही में अलिखित आदेष ही अंतिम होता था और ब्रिटिष काल में ब्रिटिष पालियामेंट के द्वारा पारित कानून के रूप में यह आदेष होता था।
परन्तु उन्हें मानना बगैर किसी तर्क व सुनवाई के दोनों ही राज्यों में बाध्यकारी था। राजतंत्र में अपील केवल राजा सुन सकता था और ब्रिटिष राज में ब्रिटिष की प्रीवी कोंसिल। परन्तु आजादी के बाद, भारतीय संविधान लागू होने के बाद न्यायिक दायरों के नये द्वार खुले और क्रमषः विकास के नियमों को संविधान की कल्पना,अपेक्षा और मानवीय स्वरूप के अनुकूल नये कानूनों के निर्माण और उनकी व्याख्या षुरू हुई।
कोयले के क्षेत्र में जमीन अधिग्रहण के लिए एक कानून था ”कोल वीयेरिंग एरिया लेंड एक्यूजीसन एक्ट“। यह कानून इतना ऐकाधिकारी था कि कोयला विभाग के अधिकारी को केवल एक सूचना जारी करनी होती थी कि अमूक नम्बर की जमीन में कोयला है और उसे अधिकृत किया जाता था।
ना मुआवजे का फैसला,न न्यायिक प्रक्रिया, कोयला अधिकारी की सूचना मात्र ही सर्वषक्तिमान थी। जिस प्रकार प्राचीन काल में अष्वमेघ यज्ञ की परम्परा थी कि जहाॅ तक राजा का घोडा चला गया वह क्षेत्र राजा का हो गया। उसी प्रकार की परम्परा इस कानून की थी।
इस कानून के खिलाफ हम लोगों ने कोल के कोयला अंचल में एक लम्बी लडाई लडी और सडक,जेल, न्यायपालिका तक लडने के बाद इस कानून में बदलाव हुआ।
हजारों लाखों आदिवासियों और गरीबों को जिनकी जमीन के नीचे कोयला था और जो कोयला देष के विकास के लिये पर्याय है परन्तु उनके लिये विनाष का पर्याय बन जाता, के हित में बदलाव हुआ और कानून को न्याय संगत और मानवीय रूप देने के प्रयास हुये।
सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से वास्तिविक अधिग्रहण के पूर्व मुआवजा का तय होना मुआवजे की बाजार दर व जमीन छिनने वाले व्यक्ति के लिए रोजगार और आवास की व्यवस्था, पेड-पोंधों का भी मुआवजा,वैकल्पिक जमीन की व्यवस्था-आदि कायदे कानून,आदेष, नीति और नियम बनाये गये।
याने अधिग्रहण के पहले जमीन के मालिक की सहमति से मुआवजा चुकाना एक प्रकार से बाध्यकारी हो गया और 18वीं सदी से जो भूमि अधिग्रहण के कानून बलात् जमीन छीनो कानून थे वे सहमति आधारित कानून के रूप में सामने आये।
हाॅलाकि अधिग्रहण तो सदैव ही आदिवासी,गरीब और किसान के लिए एक पीडादायक प्रक्रिया रही है। भावनात्मक लगाव,पुरखों की याद, रोजी-रोटी का जरिया और ग्रामीण संस्कृति व जीवन से हटकर नये रोजगार और नई सम्यता का जीवन जीने का काम। एक प्रकार से पुर्नःजन्म जैसा ही है, फिर भी जमीन के मालिक के लिए कुछ सुनवाई और न्याय के द्वार खुले थे, परन्तु सुप्रीम कोर्ट के ताजे फैसले ने अधिग्रहण की प्रक्रिया को 21वीं सदी से पीछे ले जाकर 18वीं सदी में लटका दिया है।
अब राजसत्ता,प्रषासन,तंत्र और नौकरषाहों के हाथ में जमीन को अन्याय पूर्वक लेने का एक ऐसा अधिकार सुप्रीम कोर्ट ने दिया दे है कि जिससे अमानवीय हालात पैदा हो रहे हैं।
सरकारी बाबू बगैर सहमति के पत्र और न्याय संगत मुआवजो के जमीनों और मकानो का अधिग्रहण करेंगे। मालिको के खाते में स्वैच्छिक आधार पर मुआवजा डाल देंगे या उसका प्रस्ताव दे देगे और सुप्रीम कोर्ट के ताजे फैसले के अुनसार मुआवजे का प्रस्ताव भी अधिग्रहण का पर्याप्त आधार बन जायेगा।
यह एक प्रकार से बलात विवाह जैसा है जहाॅ अन्यायी षासक अपने प्रस्तावित विवाह की इच्छा को ही वधु पक्ष की सहमति और बाध्यता मान लेता है।
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि, जहाॅ 21वीं सदी में दुनिया विकास एवं मानवीय मापदण्डों की ओर बढ रही है वही भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रक्रिया को 200 साल पीछे ढकेल दिया है यह इसलिए भी असंविधानिक है क्योंकि किसी भी भूमि के मालिक की जमीन को उसकी सहमति के बगैर लेना छीनने के समान है और सुनवाई का अवसर भी न देना, यह घोर असंविधानिक है परन्तु पीडा-दायक यह है कि, जिनके भरोसे संविधान की रक्षा और व्याख्या का काम संविधान ने सोंपा था, वही रक्षक के बजाय भक्षक बन गये है, जब माली ही बाग उजाडने लगे तो बाग का क्या होगा़घ् और दूसरी तरफ देष का मतदाता बडे सवालो पर अज्ञान और सुस्त होकर चुप रहता है।
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