विशेष (आलमी यौम-ए-हिजाब): हिजाब में ही है औरतों का तहफ़्फुज
लखनऊ: आज 'विशेष' में प्रस्तुत है - एम.डब्ल्यू. अंसारी (आई.पी.एस) द्वारा "आलमी यौम-ए-हिजाब" पर प्रस्तुत है - नजरिया!
आलमी यौम-ए-हिजाब: हिजाब में ही है औरतों का तहफ़्फुज
'हिजाब' इस्लाम का एक अहम हिस्सा है जो न सिर्फ़ औरत के लिए पर्दे का हुक्म देता है बल्कि मुआशरती नज़्म-ओ-ज़ब्त और अख़लाक़ी क़दरों को बरकरार रखने में मददगार साबित होता है।
मौजूदा दौर में, जब दुनिया तेज़-रफ़्तार तरक़्क़ी और जिद्दत के साथ आगे बढ़ रही है, हिजाब की ज़रूरत और एहमियत कई गुना बढ़ जाती है।
आज के दौर में मीडिया इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग साइट्स की मौजूदगी ने मुआशरती क़दरों को एक नए चैलेंज का सामना दिया है। फहाशी और बेहयाई आम हो चुकी है और नौजवान नस्ल इन असरात से ज़्यादा मुतास्सिर हो रहा है।
हिजाब न सिर्फ़ औरत को इन फ़ितनों से महफ़ूज़ रखता है बल्कि उसे इज़्ज़त-तहफ़्फुज और खुद-एतमादी का एहसास भी दिलाता है।
मौजूदा दौर में ख़वातीन को मुख़्तलिफ़ किस्म की हरासानी और इस्तेहसाल का सामना करना पड़ता है। चाहे वो दफ्तर हों तालीमी इदारे हों या पब्लिक मकामात ख़वातीन को अकसर ग़ैर-महफ़ूज़ हालात का सामना होता है।
हिजाब औरत को ऐसे हालात में तहफ़्फुज फ़राहम करता है क्योंकि ये न सिर्फ़ पर्दे का ज़रिया है बल्कि दूसरों को ये पैग़ाम देता है कि औरत की इज़्ज़त और हरमत का ख़याल रखना ज़रूरी है।
ग्लोबलाइज़ेशन के इस दौर में ख़वातीन का तहफ़्फुज और ज़्यादा एहमियत का हामिल है। हिजाब एक ऐसी अलामत है जो ख़वातीन को दुनिया में अपनी रिवायत से जुड़े रहने का मौका फ़राहम करती है। ये उनकी इनफिरादियत को उजागर करता है और उन्हें दूसरों से मुमताज़ करता है। मिसाल के तौर पर मुस्लिम औरतें बुर्क़ा पहनकर अपनी इस्लामी शनाख़्त को ज़ाहिर करती हैं, तो वहीं दीगर मज़ाहिब की औरतें भी घूंघट वग़ैरा करती हैं, इसी तरह ईसाई औरतें भी पर्दा और हिजाब का एहतिमाम करती हैं।
हिजाब ख़वातीन को रूहानी तौर पर भी मजबूत बनाता है। मालिक के क़रीब होने का एहसास दिलाता है और उसके दिल में अपने मज़हब की मोहब्बत पैदा करता है। हिजाब सिर्फ़ जिस्मानी पर्दा नहीं बल्कि दिल और नियत की पाकीज़गी की अलामत भी है।
मौजूदा दौर में हिजाब की ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा महसूस की जाती है। ये न सिर्फ़ एक मज़हबी फ़रीज़ा है बल्कि ख़वातीन के लिए एक ढाल भी है, जो उन्हें मुआशरती बुराईयों हरासानी और अख़लाक़ी ज़वाल से महफ़ूज़ रखता है।
हिजाब औरत की आज़ादी इज़्ज़त और तहफ़्फुज की ज़मानत है और यही उसके लिए हक़ीक़ी आज़ादी का रास्ता है।
ये बात भी याद रखना चाहिए कि औरत इज़्ज़त की चीज़ है न कि लज़्ज़त की। इब्तिदा-ए-ज़माना में इंसान उर्यां था, अब एक बार फिर इंसान वही तारीख़ दोहराना चाहता है। अब लोगों का ये तसव्वुर है कि जो जितना ही बरहना और उर्यां होगा वो उतना ही मॉडर्न समझा जाता है, हालाँकि हर सलीम-अक़्ल इंसान अपने अज़ीज़-ओ-अक़ारिब में ख़वातीन को बापर्दा रखना चाहता है और वो ये चाहता है कि ज़माने भर की गंदी नज़र से हमारे घर की ख़वातीन हिजाब के ज़रिये महफ़ूज़ रहें। यही वजह है कि पुराने ज़माने में भी बादशाहों और राजा महाराजाओं के यहाँ बेगमात पर्दे का एहतिमाम करती थीं, यहाँ तक कि हिंदू औरतें भी घूंघट के ज़रिये पर्दे का एहतिमाम करती थीं, जैसा कि आज भी बाज़ इलाकों मसलन राजस्थान] यूपी] बिहार और दीगर सूबों में भी रिवाज है।
तारीख़ उठाकर देखने पर पता चलता है कि दुनिया के तमाम मज़ाहिब में औरत के पर्दे और हया को एक ख़ास एहमियत दी गई है। हर मज़हब अपनी तहज़ीब रिवायात और उसूलों के मुताबिक़ औरत के लिए ऐसे लिबास या अंदाज़ का ताय्युन करता है जो उसकी इज़्ज़त और अस्मत की हिफाज़त करे। घूंघट करना या पर्दे में रहना भी एक ऐसा ही अमल है जो मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब में मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में मौजूद है।
हिंदू मज़हब में 'घूंघट' करने का तसव्वुर सदीयों पुराना है। ख़ास तौर पर भारत के देही इलाकों में हिंदू औरतें अपने शौहर के बुज़ुर्गों और ख़ानदान के दीगर मर्दों के सामने घूंघट करती हैं। ये अमल एहतराम और हया का इज़हार समझा जाता है। रामायण और महाभारत जैसे मुक़द्दस मतन में भी औरत के पर्दे का ज़िक्र मौजूद है।
इस्लाम औरत के पर्दे को एक मुक़द्दस फ़रीज़ा क़रार देता है। कुरान पाक में पर्दे के अहकामात वाज़ेह तौर पर मौजूद हैं जहाँ औरतों को अपनी ज़ीनत छुपाने और ग़ैर-महरम मर्दों के सामने पर्दा करने का हुक्म दिया गया है। और अब तमाम मज़ाहिब के लोग इस्लाम के इस हुक्म को पसंद करने लगे हैं और अब बहन बेटियाँ पर्दे में ही अपना तहफ़्फुज समझती हैं।
'ईसाई' मज़हब में भी पर्दे का तसव्वुर पाया जाता है। क़दीम दौर में ईसाई औरतें चर्च में हिजाब या सर ढाँपकर जाती थीं जो एहतराम और आजिज़ी की अलामत था। आज भी ईसाईयों में ख़वातीन को सर ढाँपने की तलकीन की जाती है।
हर मज़हब में औरत के पर्दे और इज़्ज़त को बुलंद मक़ाम दिया गया है। घूंघट या पर्दे का तसव्वुर सिर्फ़ एक सक़ाफ़ती रिवायत नहीं बल्कि हर मज़हब की बुनियादी तालीमात का हिस्सा है। ये औरत की इज़्ज़त-ओ-वक़ार की हिफाज़त और मुआशरती एहतराम को बढ़ाने का ज़रिया है। मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब में घूंघट के तरीक़े और अंदाज़ मुख़्तलिफ़ हो सकते हैं लेकिन इनका मक़सद हमेशा एक ही रहा है- औरत की इज़्ज़त और हया की हिफाज़त।
ग़र्ज़ आलमी यौम-ए-हिजाब के मौक़े पर यही पैग़ाम है कि चाहे ज़माना कोई भी हो [साइंस और टेक्नोलॉजी का दौर हो या इब्तिदा-ए-ज़माना] ख़वातीन पर्दे की चीज़ थीं, हैं और रहेंगी। यही है इस्लाम का हुस्न जिसने सदीयों पहले हिजाब और पर्दे का हुक्म देकर औरतों को तहफ़्फुज फ़राहम कर दिया, जिसे आज पूरी दुनिया अपना रही है। बहन - बेटियाँ आज इस बात को समझ गई हैं कि पर्दे में ही उनका तहफ़्फुज है। इसलिए लड़कियाँ और औरतें चाहे जिस मज़हब की भी हों] आज खुद को पर्दे में रखकर महफ़ूज़ महसूस करती हैं।
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