शादी-ब्याह: बढ़ता दिखावा-घटता अपनापन!
भौतिकता की पराकाष्ठा के समय में जिसमें प्रत्येक कार्य व रिश्तों को धन की बुनियाद पर खड़ा किया जाने लगा है और वो सम्पूर्ण मानव जाति के लिये घातक कदम साबित हो रहा है.
सम्प्रति विवाहों में धन का प्रदर्शन किन-किन तरीकों से होने लगा है, सब कल्पनातीत है.
आज इंसान को अपने धन की बाहुलता को सिद्ध करने का अवसर विवाह में ही नजर आता है और वो ऐसा मान बैठा कि, विवाह से अच्छा कोई अवसर नहीं है जहाँ धनखर्च कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया जाए, जबकि विवाह एक संस्कार है जिसमें मानवीय व सामाजिक मूल्यों की मर्यादा का पालन करते हुए सम्पन्न करना आपेक्षित होता है, इसलिए विवाह को सोलह संस्कारों में स्थान मिला है.
आज अगर कुछ युवा समाज को राह दिखा रहे हैं तो इसकी सराहना करनी चाहिए, लेकिन चाहे कोई कितना विरोध करे, वह तब तक सार्थक नहीं हो सकता, जब तक समाज के बहुसंख्यक लोगों की सहमति न हो.
आज के इस दिखावे के युग में यह कब होगा, समय बताएगा.
-:डॉo सत्यवान 'सौरभ':-
भिवानी (हरियाणा): आज की "विशेष प्रस्तुति" में वैवाहिक संस्कार ऐसे पवित्र कार्यक्रम पर अपनी चिंता और विचारों को प्रस्तुत करते हुए भिवानी (हरियाणा) से कवि, स्वतंत्र पत्रकार, स्तंभकार तथा आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट- डॉo सत्यवान 'सौरभ' लिखते हैं कि, हम बात करेंगे शादी समारोहो में होने वाली भारी-भरकम व्यवस्थाओं और उसमें खर्च होने वाले अथाह धन राशि के दुरूपयोग की। सामाजिक भवन अब उपयोग में नहीं लाए जाते हैं, शादी समारोह हेतु यह सब बेकार हो चुके हैं। कुछ समय पहले तक शहर के अंदर मैरिज हॉल में शादियां होने की परंपरा चली परंतु वह दौर भी अब समाप्ति की ओर है! अब शहर से दूर महंगे रिसोर्ट में शादियां होने लगी हैं। शादियों के आयोजन के लिए बड़े नामी-गिरामी सैवन स्टार होटल बुक करने की भी परिपाटी बनती जा रही है। इन होटलों में लाखों रुपए खर्च कर शादी का सैट खड़ा किया जाने लगा है। शादी के 2 दिन पूर्व से ही ये रिसोर्ट बुक करा लिया जाते हैं और शादी वाला परिवार वहां शिफ्ट हो जाता है। आगंतुक और मेहमान सीधे वहीँ आते हैं और वहीं से विदा हो जाते हैं। इतनी दूर होने वाले समारोह में जिनके पास अपने चार पहिया वाहन होते हैं, वही पहुंच पाते हैं और सच मानिए, समारोह के मेजबान की दिली इच्छा भी यही होती है कि, सिर्फ कार वाले मेहमान ही रिसेप्शन हॉल में आएं और वह निमंत्रण भी उसी श्रेणी के अनुसार देता है। दो तीन तरह की श्रेणियां आजकल रखी जाने लगी हैं।
ऐसी शादियों को देखकर मध्यम व निम्न वर्ग भी शादियों में पैसे को पानी की तरह बहाने में जरा भी नहीं हिचकिचा रहे। यहां तक कि लोग शादी में अपना स्तर, रुतबा और झूठी शानो-शौकत का प्रदर्शन करने के लिए कर्ज लेकर भी महंगी शादियां आयोजित कर रहे हैं।
एक मजेदार चीज और है। जो शादी ड्रीम वैडिंग कही जाती थी, उसे टूटने में दो पल नहीं लगते। कल तक जहां तलाक इक्का-दुक्का सुनाई देते थे, वे आज सैंकड़ों गुना बढ़ गए हैं। किसको सिर्फ लेडीज संगीत में बुलाना है !किसको सिर्फ रिसेप्शन में बुलाना है। किसको कॉकटेल पार्टी में बुलाना है और किस वीआईपी परिवार को इन सभी कार्यक्रमों में बुलाना है। इस पर भी बड़ी बारीकी से निर्णय लिया जाता है। खानदान या परिवार के कुछ आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को तो लोक-लाज बचाने के लिए मजबूरी में आमंत्रित तो कर लिया जाता है परन्तु उनका सम्मान करने के स्थान पर उन्हें केवल अपना रुतबा दिखाया जाने लगा है। इन आमंत्रणों में अपनापन की भावना खत्म होती जा रही है। ऐसी शादियों को देखकर मध्यम व निम्न वर्ग भी शादियों में पैसे को पानी की तरह बहाने में जरा भी नहीं हिचकिचा रहा है। यहां तक कि लोग शादी में अपना स्तर, रुतबा और झूठी शानो-शौकत का प्रदर्शन करने के लिए कर्ज लेकर भी महंगी शादियां आयोजित कर रहे हैं।
अब तो सिर्फ मतलब के व्यक्तियों को या परिवारों को आमंत्रित करने का चलन बढ़ता जा रहा है। भौतिकता की पराकाष्ठा के समय में जिसमें प्रत्येक कार्य व रिश्तों को धन की बुनियाद पर खड़ा किया जाने लगा है और वो सम्पूर्ण मानव जाति के लिये घातक कदम साबित हो रहा हैं। सम्प्रति विवाहों में धन का प्रदर्शन किन-किन तरीकों से होने लगा है, सब कल्पनातीत है। आज इंसान को अपने धन की बाहुलता को सिद्ध करने का अवसर विवाह ही नजर आता है और वो ऐसा मान बैठा है कि, विवाह से अच्छा कोई अवसर नहीं है जहाँ धनखर्च किया जाए और अपने रुतबे को बढ़ाया जाय!
जबकि विवाह एक 'संस्कार' है, जिसमें मानवीय व सामाजिक मूल्यों की मर्यादा का पालन करते हुए सम्पन्न करना आपेक्षित होता है। इसलिए 'विवाह' सोलह संस्कारों में अपना एक विशेष स्थान मिला है। इस संस्कार में रिश्तेदारों का मिलना-जुलना 'शुभ' माना जाता है तथा इस अवसर पर कई परिवारों की गलतफहमियां दूर कर रिश्तों में आयी कटुता को दूर करने और बिछड़े परिवार और रिश्तों के मिलने का शुभावसर मिलता है, परन्तु आजकल की शादियों में प्रत्येक परिवार अलग-अलग कमरे में ठहराए जाते हैं जिसके कारण दूरदराज से आए बरसों बाद रिश्तेदारों से मिलने की उत्सुकता भी कहीं न कहीं खत्म होती सी नजर आने लगी है, क्योंकि सब पैसे से अमीर हो गए हैं, पैसे वाले हो गए हैं। मेल-मिलाप और आपसी स्नेह खत्म हो चुका है। रस्म अदायगी पर मोबाइलों से बुलाये जाने पर कमरों से बाहर निकलते हैं। सब अपने को एक दूसरे से रईस समझते है। और यही अमीरीयत का दंभ उनके व्यवहार से भी झलकता है। कहने को तो रिश्तेदार की शादी में आए हुए होते हैं परंतु अहंकार उनको यहां भी नहीं छोड़ता। वे अपना अधिकांश समय करीबियों से मिलने के बजाय अपने अपने कमरो में ही गुजार देते हैं। आज सब कुछ विपरीत हो रहा है। ना तो परवाह है रीति रिवाजों की, ना सामाजिक मूल्यों की। बस यदि है तो, मीनू में कितने प्रकार के व्यंजन है, पेय पदार्थ कितने हैं, बाहरी साज-सज्जा कैसी है। यदि इसमें कोई कमी रह जाती है तो सगे सम्बन्धी, मित्रगण अपनी प्रतिकूल टिप्पणी करने में देरी भी नहीं करते हैं जबकि विवाह सामाजिक समरसता को उर्वरा बनाने का, मधुर और मजबूत बनाने का माध्यम है।
अब तो इन सबकी आलोचना से बचने के लिए 'इंसान', जिसके पास धन की कमी है, वो किसी वित्तीय संस्था या साहुकार से कर्ज लेकर उनकी आलोचना से बचने का प्रयास करता है। इस झूठी और दिखावे की संस्कृति ने निम्न वर्ग को उच्च वर्ग की नकल करने के लिए, अपना शोषण करवाने को मजबूर कर दिया है। अब विवाहों में नैसर्गिक खुशियों का स्थान कृत्रिम साधनों के द्वारा अर्जित खुशियों ने ले लिया है, जिसमें मानसिक संतुष्टि और सौहार्द्य के स्थान पर 'मानसिक अवसाद' पनपने लगा है। हमारी संस्कृति को दूषित करने का बीड़ा ऐसे ही अति संपन्न वर्ग ने अपने कंधों पर उठाए रखा है। शादी-समारोह में रस्म से ज्यादा दिखावा हो रहा है। पूजा-पाठ, मंत्रोच्चारण और सात फेरे से ज्यादा लोग नृत्य-गीत में लोग मशगूल हो रहते हैं। इससे किसी को क्या दिक्कत हो रही है, इसे कोई नहीं सोचता। अब 'थीम' शादी का प्रचलन बढ़ा है। इससे समाज में गलत और आडंबर शुरू हो रहा है। विवाह समारोह के मुख्य स्वागत द्वार पर नव दंपत्ति के विवाह पूर्व आलिंगन वाली तस्वीरें और अंदर एंट्री गेट पर आदम कद 'स्क्रीन' पर नव दंपति के विवाह पूर्व आउटडोर शूटिंग के दौरान फिल्माए गए फिल्मी तर्ज पर गीत संगीत और चल रहे 'नृत्य' हमारी विकृत हो चुकी संस्कृति को दर्शाता है और हमारी परम्पराओं और संस्कृति पर सीधा तमाचा मारते हुए दिखता है। ये 'आशीर्वाद समारोह' तो कहीं से भी नहीं लगते हैं। पूरा परिवार प्रसन्न होता है, अपने बच्चों के इन करतूतों पर। पास में लगा 'मंच', जहां नव दंपत्ति लाइव गल - बहियाँ करते हुए मदमस्त दोस्तों और मित्रों के साथ अपने परिवार से मिले संस्कारों का प्रदर्शन करते हुए दिखते हैं।
बन्धुओं, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । हम एक-दूसरे के जीवन के 'सेतु' बनें, यही 'मानवीय धर्म' है।
यदि हमारे पास 'धन' की प्रचुरता है, तो अपना प्रारब्ध समझें और साथ में इसके अविवेकपूर्ण अपव्यय पर लगाम लगाएं, और इसे साधर्मी बन्धुओं के उत्थान के कार्यों में जो आज आर्थिक विपन्नता के शिकार हैं, उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ें तथा उनका सहारा बनने का प्रयास करें। आपका पैसा है, आपने कमाया है, आपके घर खुशी का अवसर है। खुशियां मनाएं, पर किसी दूसरे की देखा देखी नहीं, कोई दिखावा नहीं। कर्ज लेकर अपने और परिवार के मान-सम्मान को खत्म मत करिएगा। जितनी आप में क्षमता है, उसी के अनुसार खर्चा करियेगा। 4 - 5 घंटे के रिसेप्शन में लोगों की जीवन भर की पूंजी लग जाती है और आप कितना ही बेहतर करें, लोग जब-तक रिसेप्शन हॉल में है, तब-तक आप की तारीफ करेंगे और लिफाफा दे कर आपके द्वारा की गई आव-भगत की कीमत अदा करके निकल जाएंगे। अपने परिवार की हैसियत से ज्यादा खर्चा करने के लिए अपने परिजनों को मजबूर न करें। दिखावे की इस सामाजिक बीमारी को अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित रहने दीजिए। 'विवाह' की नहीं, आप वास्तव में दिखावे की तैयारी कर रहे हो। अगर लोन या कर्जा ले लेकर दिखावा कर रहे हो। हमारे ऋषियों ने कहा है कि, जो जरूरी काम है वह करो। ठीक है, समय के साथ रीति-रिवाज बदल गए हैं। मगर दिखावे से बचना चाहिए।
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