विशेष: तनावमुक्त जीवन का आधार है- योग: डॉ. शंकर सुवन सिंह
विशेष में प्रस्तुत है,
स्तम्भकार एवं चिंतक- डॉ. शंकर सुवन सिंह, असिस्टेंट प्रोफेसर- कृषि विश्वविद्यालय, प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) की प्रस्तुति:
"तनावमुक्त जीवन का आधार है योग"
योग एक आध्यात्मिक प्रकिया है। योग शरीर, मन और आत्मा को एक सूत्र में बांधती है। योग जीवन जीने की कला है। योग दर्शन है। योग स्व के साथ अनुभूति है। योग से स्वाभिमान और स्वतंत्रता का बोध होता है। योग मनुष्य व प्रकृति के बीच सेतु का कार्य करती है। योग मानव जीवन में परिपूर्ण सामंजस्य का द्योतक है। योग ब्रह्माण्ड की चेतना का बोध कराती है। योग बौद्धिक व मानसिक विकास में सहायक है। योग शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के तीन अलग-अलग धातुओं से हुई है-1-युज् (समाधौ) - दिवादि गण। युज् शब्द का प्रयोग पतंजलि के योग दर्शन तथा कपिल मुनि के सांख्य दर्शन में हुआ है जिसका अर्थ है समाधि, 2- युजिर्(योगे) - रुधादि गण (न्याय ,वैशेषिक तथा वेदांत दर्शन में प्रयुक्त )जिसका अर्थ है जोड़ना, 3- युज्(संयमने)-चुरादि गण। जिसका अर्थ है संयम।इन तीन धातुओं से योग शब्द के तीन अर्थ सामने आते हैं - पहले युज् धातु का अर्थ समाधि से है अर्थात योग का अर्थ समाधि हुआ। दूसरे प्रयोग में युज(युजिर्) धातु का अर्थ जोड़ने से है,यहां योग का अर्थ जोड़ना हुआ। तीसरे और अंतिम प्रयोग में युज धातु का अर्थ संयम से है जिसके अनुसार योग का अर्थ संयम हुआ। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ना,जीवन में संयम का होना, और समाधि, यही योगिक क्रियाएं योग कहलाती हैं। योग सार्वभौमिक चेतना के साथ व्यक्तिगत चेतना का संघ है। योग का जन्म प्राचीन भारत में हजारों साल पहले हुआ था। यह माना जाता है कि शिव पहले योगी या आदियोगी और पहले गुरु हैं। हजारों साल पहले हिमालय में कंटिसारोकर झील के तट पर आदि योगी ने अपने ज्ञान को महान सात ऋषियों के साथ साझा किया था क्योंकि इतने ज्ञान को एक व्यक्ति में रखना मुश्किल था। ऋषियों ने इस शक्तिशाली योग विज्ञान को दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फैलाया जिसमें एशिया, उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व और दक्षिण अमेरिका शामिल हैं। भारत को अपनी पूरी अभिव्यक्ति में योग प्रणाली को प्राप्त करने का आशीष मिला हुआ है।
सिंधु-सरस्वती सभ्यता के जीवाश्म अवशेष प्राचीन भारत में योग की मौजूदगी का प्रमाण हैं।
इस उपस्थिति का लोक परंपराओं में उल्लेख है। यह सिंधु घाटी सभ्यता, बौद्ध और जैन परंपराओं में शामिल है। सूर्य को वैदिक काल के दौरान सर्वोच्च महत्व दिया गया था और इसी तरह सूर्य नमस्कार का बाद में आविष्कार किया गया था। महर्षि पतंजलि को आधुनिक योग के पिता के रूप में जाना जाता है। हालाँकि उन्होंने योग का आविष्कार नहीं किया क्योंकि यह पहले से ही विभिन्न रूपों में था। उन्होंने इसे प्रणाली में आत्मसात कर दिया। उन्होंने देखा कि किसी को भी अर्थपूर्ण तरीके से समझने के लिए यह काफी जटिल हो रहा है। इसलिए उन्होंने आत्मसात किया और सभी पहलुओं को एक निश्चित प्रारूप में शामिल किया जिसे योग सूत्र कहते हैं।
योग सूत्र, योग दर्शन का मूल ग्रंथ है। यह छः दर्शनों में से एक शास्त्र है और योग शास्त्र का एक ग्रंथ है। योग सूत्रों की रचना 3000 साल के पहले पतंजलि ने की। योगसूत्र में चित्त को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का विधान है। पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना (चित्तवृत्तिनिरोधः) ही योग है। अर्थात मन को इधर-उधर भटकने न देना, केवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना ही योग है। महर्षि पतंजलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' (योगः चित्तवृत्तिनिरोधः) के रूप में परिभाषित किया है। उन्होंने 'योग सूत्र' नाम से योग सूत्रों का एक संकलन किया जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए अष्टांग योग (आठ अंगों वाले योग) का एक मार्ग विस्तार से बताया है। अष्टांग योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है।
योग के ये आठ अंग हैं:
1) यम, 2) नियम, 3) आसन, 4) प्राणायाम, 5) प्रत्याहार, 6) धारणा 7) ध्यान 8) समाधि यम - पांच सामाजिक नैतिकता (क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना (ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना (ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना (घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं-चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना ,सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना (ड़.) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना नियम - पाँच व्यक्तिगत नैतिकता (क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि (ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना (ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना (घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना (ड़.) ईश्वर प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए आसन-योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण - आसन शरीर को साधने का तरीका है। पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है (स्थिरसुखमासनम् ॥46॥)। पतंजलि के योगसूत्र में आसनों के नाम नहीं गिनाए हैं। लेकिन परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे सम्बंधित ‘हठयोगप्रदीपिका’ ‘घेरण्ड संहिता’ तथा ‘योगाशिखोपनिषद’ में विस्तार से वर्णन मिलता है। प्राणायाम - योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है। प्रत्याहार - इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है। प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है।
अतः चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं। धारणा - मन को एकाग्रचित्त करके ध्येय विषय पर लगाना पड़ता है। किसी एक विषय का ध्यान में बनाए रखना।
ध्यान - किसी एक स्थान पर या वस्तु पर निरन्तर मन स्थिर होना ही ध्यान है। जब ध्येय वस्तु का चिन्तन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।
समाधि - यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है। समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं: सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है |
योग करने से तनाव नहीं होता है। योग जीवन को तनाव मुक्त बनाता है। तनाव सारी बीमारियों की जड़ है। तनाव शब्द का निर्माण दो शब्दों से मिल कर हुआ है। तनाव = तन + आव। तन का तात्पर्य शरीर से है और आव का तात्पर्य घाव से है। अर्थात वह शरीर जिसमे घाव हैं। कहने का तात्पर्य तनाव एक मानसिक बीमारी है जो दिखाई नहीं देती है। शरीर का ऐसा घाव जो दिखाई न दे, तनाव कहलाता है। तनाव से ग्रसित इंसान को सारा समाज पागल दिखाई देता है। तनाव वो बीमारी है जिसमे इंसान हीन भावना से ग्रसित होता है। तनाव मूल रूप से विघर्सन है। घिसने की क्रिया ही विघर्सन कहलाती है। घिसना अर्थात विचारों का नकारात्मक होना या मन का घिस जाना। अतएव तनाव मनोविकार है। तनाव नकारात्मकता का पर्यायवाची है। एक कहावत है- “भूखे भजन न होए गोपाला।पहले अपनी कंठी माला”|भूखे पेट तो ईश्वर का भजन भी नहीं होता है। कहने का तात्पर्य जब हम स्वयं का आदर व सम्मान करते हैं तभी हम देश और समाज की सेवा कर सकते हैं। तनाव से ग्रसित इंसान जो खुद बीमार है वो दूसरों को भी बीमार करता है। तनाव से ग्रसित इंसान दूसरों को भी तनाव में डालता है। ऐसे नकारात्मक लोगों से दूर रहना चाहिए। नकारात्मकता के विशेष लक्षण - 1. अपने स्वार्थ के लिए दूसरों पर आरोप लगाना। 2. अपने को सही और दूसरों को गलत समझना। हमेशा नकारात्मक चीजों पर बात करना। 3. सकारात्मक विचार और सकारात्मक लोगों से दूरी बनाना। 4. दूसरे की सफलता से ईर्ष्या करना।
ऊपर दिए गए लक्षणों से बचना ही तनाव से मुक्ति का कारण है। तनाव में ही मानव अपराध करता है। तनाव अंधकार का कारक है। समाज की अवनति का कारण है- तनाव। योग करने से सकारात्मक विचारों का उदभव होता है। योग सकारात्मकता की जननी है। सकारात्मकता से तनाव पर विजय पाई जा सकती है। अतएव असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय ॥ - बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28।अर्थ- मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो।मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो।मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो॥
यही अवधारणा समाज को चिंतामुक्त और तनाव मुक्त बनाती है। स्व को विकसित करने की आध्यात्मिक प्रक्रिया ही योग है। अर्थात योग अपनेपन को विकसित करता है। अपनापन, अकेलापन को दूर करता है। अपनापन का शाब्दिक अर्थ है -आत्मीयता /स्वाभिमान
/आत्माभिमान|आत्मीयता अर्थात अपनी आत्मा के साथ मित्रता। स्वाभिमान अर्थात स्व के साथ जुड़ना। आत्माभिमान अर्थात आत्मा के साथ जुड़ना। कहने का तात्पर्य - मनुष्य कभी अकेला नहीं होता है। मनुष्य जब नकारात्मक विचारों से ग्रसित होता है तो वह आत्मीयता/स्वाभिमान /आत्माभिमान का अनुभव नहीं करता है|नकारात्मकता अकेलेपन को जन्म देती है। सकारात्मकता अपनेपन को जन्म देती है|अपनापन ही अकेलापन को दूर करता है। भीड़/लोगों में शामिल होने से हम अपने को अपनेआप से अलग करते हैं। भीड़ में शामिल होना अर्थात अपने को अपने आप से अलग करना हुआ|अलग होना आत्मीयता/स्वाभिमान /आत्माभिमान के लक्षण नहीं हैं। अपनेआप को अपने से अलग करके कभी भी अकेलापन दूर नहीं किया जा सकता है। अतएव अपनी आत्मीयता /स्वाभिमान / आत्माभिमान को बनाए रखें। जिससे जीवन में अकेलेपन का अनुभव न हो। कोई भी व्यक्ति इस धरती पर अकेला नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति भौतिक रूप से भौतिक संसाधनो व चारो ओर के आवरण से घिरा हुआ है। देखा जाए तो भौतिक रूप से भी व्यक्ति अकेला नहीं है। अतएव हम कह सकते हैं कि कोई भी व्यक्ति न तो आध्यात्मिक रूप से अकेला है और नहीं भौतिक रूप से। योग से रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है। योग रोग को ख़त्म करता है। आयुष मंत्रालय का मानना है की मानव अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाकर कोविड-19 महामारी से लड़ सकता है। इस महामारी से बचने का कारगर उपाए है योग|तनावमुक्त जीवन जीने की कला है योग। अतएव हम कह सकते है योग आत्मीयता का आधार है।
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस हर साल 21 जून को मनाया जाता है। योग दिवस पर भारत की भूमिका अहम है।
योग दिवस डिजिटल प्लेटफॉर्म पर मनाई जाएगी। सामाजिक नजदीकियां (सोशल गैदरिंग) मौजूदा हालात में जानलेवा साबित हो सकती है। सरकार ने इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को सोशल मीडिया मंचों के माध्यम से मनाने पर बल दिया है। इस साल लोग फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम के माध्यम से योग दिवस मनाएंगे। इस बार योग दिवस पर जनसमूह की मौजूदगी वाला कोई कार्यक्रम नहीं होगा। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की वर्ष 2020 की थीम (प्रसंग) है - घर पर योग और परिवार के साथ योग। इस प्रसंग के मुताबिक, लोग योग दिवस पर सोशल मीडिया के माध्यम से सुबह सात बजे अपने परिवार के साथ योग दिवस में शामिल हो सकेंगे विदेशों में भारतीय दूतावास और उच्चायोग भी, डिजिटल मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुंच सकेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से शुरू की गई ‘मेरा जीवन, मेरा योग’ वीडियो ब्लॉगिंग प्रतियोगिता का आयोजन, योग दिवस को सफल और सुदृढ़ बनाएगा। भारत सरकार का आयुष मंत्रालय और भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) योग दिवस को सफल बनाने का कार्य करती है।
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