विशेष: सत्तातंत्र जनता की जरूरतों और अधिकारों के साथ टकराव में न रहे: केवल कृष्ण पनगोत्रा
ऐसी नीति नहीं अपनाई जानी चाहिए जहां सत्तातंत्र जनता की जरूरतों और अधिकारों के साथ टकराव में रहे।
हर समस्या का समाधान फांसी, लाठी और गोली ही नहीं है।
सरकारों को जनता के अधिकारों और जरूरतों का भी ध्यान रखना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो फिर 1947 से पूर्व के अंग्रेजी राज और वर्तमान के स्वराज में क्या फर्क रह जाता है?-
1989-90 में पाकिस्तान ने कश्मीर में पंडितों का जनसंहार करवाया और कश्मीरी हिन्दुओं को अपने ही देश में विस्थापित होना पड़ा।
आज देश में चीन, पाकिस्तान और आतंकवाद को लेकर काफी सुना-सुनाया जा रहा है। मगर भारत में अंदरूनी तौर पर भी स्थिति चिंताजनक बनती दिखाई दे रही है। जाति और धर्म आधारित घृणा बढ़ती जा रही है।
✍ केवल कृष्ण पनगोत्रा
वर्तमान परिप्रेक्ष के आलोक में देश में आतंक और नफरत के माहौल से इन्कार करना बहुत मुश्किल है। दरअसल आतंकवाद और सांप्रदायिक नफरत की मौजूदा समस्या हमारे नीति नियंताओं की स्वार्थपरक अनदेखी और नीतियों के दल्लेपन के कारण उलझती रही है।
मेरी नजर में यह चिंता मांग करती है कि भारत आतंकवाद ही नहीं अपितु पाकिस्तान, चीन और देश में आंतरिक तौर पर समाज और देश विरोधी तत्वों के रवैये को लेकर एक सशक्त नीतिगत राष्ट्र की तरह पेस आए। सशक्त नीतिगत राष्ट्र में कानून सम्मत सख्त रवैये के साथ जनता की जरूरतों और अधिकारों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। ऐसी नीति नहीं अपनाई जानी चाहिए जहां सत्तातंत्र जनता की जरूरतों और अधिकारों के साथ टकराव में न रहे। हर समस्या का समाधान फांसी, लाठी और गोली ही नहीं है। सरकारों को जनता के अधिकारों और जरूरतों का भी ध्यान रखना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो फिर 1947 से पूर्व के अंग्रेजी राज और वर्तमान के स्वराज में क्या फर्क रह जाता है?-
1989-90 में पाकिस्तान ने कश्मीर में पंडितों का जनसंहार करवाया और कश्मीरी हिन्दुओं को अपने ही देष में विस्थापित होना पड़ा। आज देष में चीन, पाकिस्तान और आतंकवाद को लेकर काफी सुना-सुनाया जा रहा है। मगर भारत में अंदरूनी तौर पर भी स्थिति चिंताजनक बनती दिखाई दे रही है। जाति और धर्म आधारित घृणा बढ़ती जा रही है। कश्मीर से पंडितों के पलायन का एक पहलू धर्माधारित नफरत का ही नतीजा है। घर्म आधारित इस नफरत को बेशक पाकिस्तान खाद-पानी दे रहा है, लेकिन कहीं न कहीं हमारी सियासत का स्वार्थपूर्ण दल्लापन समस्याओं का जनक बन रहा है। आतंरिक तौर पर धर्म और जाति आधारित घृणा को रोकना और ऐसे तत्वों के साथ सख्ती से निपटना समय की बड़ी जरूरत है। कश्मीर में ऐसी ही नीति की जरूरत थी मगर कर्त्तव्य पर स्वार्थपरक राजनीति भारी रही। वहां की स्थानीय राजनीति ने मुस्लिम बहुल राज्य में सत्ता के लिए अल्पसंख्यक हिन्दू आवाम की अनदेखी की। आज भी जम्मू-कश्मीर के मुस्लिम राज्य में बहुसंख्यक होने पर भी अल्पसंख्यकों को मिलने वाले लाभ ले रहे हैं। इस संबध में सुप्रीम कोर्ट में मामला भी विचाराधान है।
सियासी स्तर पर भारत एक ऐसे देश में परिवर्तित हो रहा है जहां उदारता कम होती सी जा रही है। यह मान लेना भी गलत होगा कि वर्तमान मोदी सरकार के समय ही उदारता कम हो रही है। कांग्रेस के समय में भी सरकार उदारवादी कहां थी। देखा जाए तो देश में जहां कहीं भी हिंसा दिखाई दे रही है, वहीं कहीं न कहीं अधिकारों और जरूरतों की बात भी चली है। जहां कश्मीर, पूर्वोत्तर और आदिवासी क्षेत्रों में हिंसा और आतंकवाद की बात होती है, वहीं कई सिविल सोसायटी ग्रुप और गैर सरकारी संगठन इन क्षेत्रों के अधिकारों और जरूरतों की बात भी उठातें आए हैं। यह बातें मात्र मोदी-काल की देन नहीं है। यह नीति की आड़ में अनीति और व्यवस्था की आड़ में अव्यवस्था की देन हैं। पाकिस्तान और चीन जैसे देश अधिकारों और जरूरतों के हनन की घटनाओं को भुनाते आए हैं। मिसाल के तौर पर आदिवासियों की धरती खनिज सम्पदा के लिहाज से बहुत समृद्ध है। इस सम्पदा का दोहन नेहरू के समय या उससे पहले ही शुरु हो चुका था। कांग्रेस सरकार के दौरान ही आदिवासी समाज का काफी दमन हुआ है। क्या समस्या समाप्त हो गई ?-
कश्मीर में बेरोजगारी और भ्रष्टाचार सालों पुरानी समस्या है। सरकारें आर्थिक पैकेज देकर समाधान करना चाहती हैं मगर सरकारी सहायता भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है। जम्मू-कष्मीर में गुलाम नबी आजाद सरकार के समय का रोशनी एक्ट, जिसका फायदा गरीब किसानों को होना था, उसका लाभ अधिकतर वे नेता ले गए जिन्होंने सरकारी भूमि पर कब्जा किया था। रोशनी एक्ट के तहत हजारों एकड़ सरकारी भूमि पर नेताओं और भू-माफिया का अधिकार हो गया।
मुद्दा यह है कि सत्ता तंत्र नागरिक अधिकारों की उसी प्रकार अनदेखी कर रहा है जिस प्रकार अंग्रेजों के समय में हुआ करता था। सवाल यह है कि भारत से भूख, बेकारी, गरीबी और व्यवस्था समर्थित भ्रष्टाचार समाप्त हुआ क्या ?-
जब आजादी से पहले की व्यवस्था की बात चलती है तो लोग बेहिचक कहते हैं कि साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार ने भारत को बहुत लूटा था। अंग्रेज हमारे संसाधनों को अपने देश ले जाते थे और जनता की जरूरतों की अनदेखी करते थे। आजादी के 70 साल तक भी क्या जनता की जरूरतों की अनदेखी रुकी है ?-
उपज का उचित दाम और और खेती-किसानी की बढ़ती लागत से तंगहाल किसान आत्महत्या करने मजबूर हो रहे हैं। जहां ज्यादा खर्चा होना चाहिए वहां सत्ता तंत्र बहुत ही कम खर्च कर रहा है। प्रतिदिन लोग कुपोषण के कारण मर रहे हैं, आम आदमी तंगहाल हो रहा है।
क्या यह समस्याओं के समाधान का तरीका है ?-
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