भारत को ट्रांस फैट के चंगुल से मुक्त कराने का लक्ष्य
नयी दिल्ली, 15 जून: स्वास्थ्य के लिए बेहद नुकसानदेह माने जाने वाले ट्रांस फैट को खानपान से निकाल बाहर करने के लिए वर्ष 2023 तक की समय सीमा तय कर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने असल में इस वसा को चरणबद्ध तरीके से हटाने और खाद्य उत्पादों में उसका इस्तेमाल बंद करने के लिए देशों को जाग्रत करने की कोशिश की है। असल में ट्रांस-अनसैचुरेटेड फैटी एसिड की ही वजह से इंसान की धमनियां अवरुद्ध हो जाती हैं जो दिल के दौरे का सबब बनती हैं। इसके अलावा इंसान में टाइप-2 मधुमेह, उच्च रक्तचाप और मोटापे के लिए भी ट्रांस फैट ही सबसे अधिक जिम्मेदार होता है। ट्रांस फैट रक्त में खराब कोलेस्ट्रॉल (कम घनत्व वाले लिपोप्रोटीन- एलडीएल) का स्तर बढ़ा देते हैं जबकि अच्छे कोलेस्ट्रॉल (उच्च घनत्व वाले लिपोप्रोटीन- एचडीएल) की मात्रा कम कर देते हैं।
डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों से पता चलता है कि ट्रांस फैट की अधिकता वाले खाद्य पदार्थों का इस्तेमाल करने से इंसान में दिल की बीमारियों का खतरा 21 फीसदी और उसकी वजह से मौत का खतरा 28 फीसदी तक बढ़ जाता है। खतरनाक वसा के सेवन से हरेक साल पांच लाख से अधिक लोग मरते हैं और उससे कई गुना अधिक लोग कोरोनरी बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। ट्रांस फैट का कुल उपभोग कुल ऊर्जा उपभोग के एक फीसदी से भी कम होना चाहिए। डब्ल्यूएचओ की मानें तो 2,000 कैलरी वाले दैनिक खानपान में ट्रांस फैट की मात्रा 2.2 ग्राम से भी कम होनी चाहिए।
ट्रांस फैट के मुख्य प्राकृतिक स्रोत डेयरी उत्पाद और मवेशियों, बकरियों और भेड़ों के मांस हैं। वनस्पति तेलों में सामान्य तौर पर अनसैचुरेटेड फैटी एसिड की मात्रा बहुत कम ही होती है। ट्रांस फैट वनस्पति तेलों को ठोस रूप देने और उनका फ्लेवर देने के लिए हाइड्रोजनीकृत करने से बनता है। आंशिक रूप से हाइड्रोजनीकृत वसा का इस्तेमाल प्रसंस्कृत एवं डिब्बाबंद स्नैक उत्पादों में खूब होता है ताकि उन्हें लंबे समय तक इस्तेमाल के लायक और स्वादिष्ट बनाया जा सके। केक, पेस्ट्रीज, बिस्कुट और पिज्जा, आलू चिप्स, फ्रेंच फ्राइज, डोनट और फ्राइड चिकन, पकौड़ा, समोसा और टिक्की जैसे खाद्य उत्पादों में ट्रांस फैट भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। इसके अलावा कुछ मार्जरीन (कृत्रिम मक्खन) में भी ट्रांस फैट मौजूद होते हैं।
भले ही डब्ल्यूएचओ की तरफ से निर्धारित समयसीमा सभी देशों के लिए बाध्यकारी नहीं है लेकिन अधिकांश देशों ने इसे काफी गंभीरता से लिया है। संयोग से भारत भी उन देशों में शामिल है। कुछ अधिक आय वाले देशों ने ट्रांस फैट के उत्पादन और इस्तेमाल पर कानूनी रोक भी लगा दी है। भारत में खाद्य उत्पादों के नियमन के लिए जिम्मेदार भारतीय खाद्य संरक्षा ïएवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने खानपान के उत्पादों में ट्रांस फैट की मात्रा को 10 फीसदी के पूर्व-निर्धारित स्तर से घटाकर पांच फीसदी कर दिया है। लेकिन इस सीमा का पालन मुख्यत: संगठित क्षेत्र के प्रसंस्कृत एवं डिब्बाबंद उत्पादों में ही किया जाता है।
असंगठित प्रसंस्कृत खाद्य क्षेत्र तो मोटे तौर पर इन पाबंदियों से बेखबर ही है। भले ही एफएसएसएआई ने खाद्य प्रसंस्करण कंपनियों के लिए उत्पादों पर ट्रांस फैट की मात्रा का स्पष्ट उल्लेख करना अनिवार्य कर दिया है लेकिन पैकेट पर इसका जिक्र इतने छोटे अक्षरों में होता है कि उस पर नजर भी नहीं जा पाती है। कुछ मामलों में तो पैकेट पर भ्रामक सूचनाएं भी दी जाती हैं। विशुद्ध भारतीय भोजन एवं नाश्ते के पकवानों में भी ट्रांस फैट की भरमार होती है। ऐसा नहीं है कि केवल सड़कों के किनारे मिलने वाले खाने में ही ट्रांस फैट होते हैं, घरों में बने भोजन में भी इनकी अच्छी खासी मात्रा होती है। ट्रांस फैट की अधिकता वाले भारतीय व्यंजनों में भटूरे, पूरियां, पकौड़े और टिक्की प्रमुख हैं। दरअसल इन्हें अक्सर ट्रांस फैट की अधिकता वाले वनस्पति तेलों में ही तला जाता है। असल में कई घरों में भी सब्जी बनाने या तलने के लिए वनस्पति तेलों का ही इस्तेमाल किया जाता है। भारत में वनस्पति तेलों का बार-बार इस्तेमाल करना बेहद आम है लेकिन बार-बार गरम करने से उसमें ट्रांस फैट की मात्रा काफी बढ़ जाती है। दुर्भाग्य की बात यह है कि अधिकतर उपभोक्ताओं और गृहिणियों के अलावा खानपान के सामान बेचने वालों को भी ट्रांस फैट के नकारात्मक प्रभावों के बारे में पता ही नहीं होता है।
खाद्य सुरक्षा मानकों का अनुपालन स्तर भी खराब ही रहा है। इसके बावजूद एफएसएसएआई ने खाद्य उत्पादों से ट्रांस फैट को निकाल बाहर करने के लिए जो उत्सुकता दिखाई है वह तारीफ के लायक है। यह चाहता है कि वनस्पति तेलों और हाइड्रोजनीकृत वनस्पति तेलों में ट्रांस फैट की अधिकतम मात्रा को दो फीसदी की सीमा तक लाया जाए। माना जा रहा है कि एफएसएसएआई यह कदम भारत को वर्ष 2022 तक ट्रांस फैट से पूरी तरह मुक्त करने के लक्ष्य की दिशा में उठाने जा रहा है। खास बात यह है कि भारत को डब्ल्यूएचओ की समयसीमा से एक साल पहले ही ट्रांस फैट से मुक्त कराने की बात कही जा रही है।
वैसे इस लक्ष्य को हासिल कर पाना इतना आसान नहीं होगा। अगर एफएसएसएआई इस मुहिम में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का भी सहयोग लेने में सफल रहता है तो ट्रांस फैट पर रोक से लोगों के स्वास्थ्य को बचाने का लक्ष्य कुछ हद तक हासिल कर लिया जाएगा। लेकिन असंगठित क्षेत्र में इसे लागू किए बगैर लक्ष्य अधूरा ही रहेगा। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि असंगठित क्षेत्र में सक्रिय खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों को भी इस पहल का अंग बनाया जाए। वैसे यह काम केवल कानूनी तरीके से नहीं किया जा सकता है। इसके लिए व्यापक जागरूकता अभियान चलाने की भी जरूरत पड़ेगी।
(साभार- बिजनेस स्टैण्डर्ड)
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