नया नहीं है राज्यपाल पद के दुरुपयोग का चलन
नयी दिल्ली: 19 मई: राज्यपाल के पद का उपयोग और दुरुपयोग सन 1980 के दशक में विपक्ष की राजनीति में व्यापक विवाद का विषय बना। वह संवाददाताओं के लिए बेहतरीन वक्त था। खासतौर पर उस समय जब आंध्र प्रदेश के राज्यपाल राम लाल ने एनटी रामाराव की निर्वाचित और बहुमत वाली सरकार को बर्खास्त करके एन भास्कर राव को सत्ता की कुर्सी पर बिठा दिया। उनके इस कदम को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की स्पष्ट मंजूरी हासिल थी। इतना ही नहीं यह सब तब हुआ जब एनटीआर बायपास सर्जरी के लिए अमेरिका गए हुए थे। उनकी वापसी के बाद उनकी यात्रा करते हुए और सोते हुए तस्वीरें खूब चर्चा में आईं। बेगमपेट हवाई अड्डे पर एक बेंच पर थक कर लेटे हुए उनकी तस्वीर ने जनता का ध्यान बहुत बड़े पैमाने पर अपनी ओर खींचा।
एक अन्य घटना वाम धड़े के शासन वाले पश्चिम बंगाल की है। वहां भी कांग्रेस के ए पी शर्मा राज्यपाल पद पर आसीन थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलाधिपति के रूप में उन्होंने संतोष भट्टाचार्य को कुलपति नियुक्त किया। इसका विरोध स्वयं मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने भी किया। शर्मा सन 1983-84 में 10 महीने तक शासन में रहे और इस दौरान उनको घनघोर जनविरोध का सामना करना पड़ा। एपी शर्मा गद्दी छोड़ो, बंगाल छोड़ो का नारा खूब गूंजा। इसके तत्काल बाद सन 1989-90 में राजीव गांधी ने खुफिया ब्यूरो के पूर्व प्रमुख टी वी राजेश्वर को पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बना दिया। इसके बाद जब विश्वनाथ प्रताप सिंह माकपा के सहयोग से सत्ता में आए तो उन्हें हटा दिया गया।
सन 2014 में जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार सत्ता में आई तो वित्त आयोग की घोषणा के बाद सहकारी संघवाद का जिक्र खूब सुनने को मिला। परंतु राज्यपाल पहले की तरह ही अपनी भूमिका निभाते रहे। समस्या की शुरुआत उस समय हुई जब असम के एक आईएएस अधिकारी ज्योति प्रसाद राजखोवा को अरुणाचल प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया। सन 2016 में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने राजखोवा से कहा कि वह राज्यपाल का पद छोड़ दें। उन्होंने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। इसके बाद राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने उन्हें बर्खास्त कर दिया। राज्यपाल ने अरुणाचल प्रदेश विधानसभा के सत्र को 14 जनवरी, 2016 के बजाय 16 दिसंबर, 2015 करा दिया था और तत्कालीन नबाम तुकी सरकार को बहुमत साबित करने को कहा था। इसके बाद तुकी को हटा दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में राज्यपाल की भूमिका की तीखी आलोचना की थी। इस मामले में तुकी को हटाकर कालिखो पुल के नेतृत्व वाली सरकार स्थापित की गई जिसे भाजपा का समर्थन था। कांग्रेस ने अदालत की शरण ली। जुलाई 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने 15 दिसंबर, 2015 के पहले की स्थिति बरकरार रखने का आदेश दिया और अरुणाचल प्रदेश में एक बार फिर कांग्रेस की सरकार बन गई। देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा कि राज्यपाल विधानसभा की कार्यवाही में दखल नहीं दे सकते। उसने राज्य में लगे राष्ट्रपति शासन समेत राजखोवा के हर उस निर्णय को पलट दिया जिसके चलते हालात ऐसे बने थे और कांग्रेस के एक टूटे धड़े ने सरकार बनाई थी। कालिखो पुल ने आत्महत्या कर ली और उन्होंने जो सुसाइड नोट छोड़ा उसमें ऐसे कई उच्चाधिकारियों के बेटों का नाम लिखा था जिन्होंने उन्हें सत्ता में बने रहने में मदद करने की पेशकश की थी। भाजपा का दावा है कि राजखोवा की गतिविधियों से उसका कोई लेनादेना नहीं। परंतु राजखोवा ने ऐसा नहीं कहा।
यह सिलसिला यहीं समाप्त नहीं होता। पुदुच्चेरी की उप राज्यपाल किरन बेदी 28 मई को अपने कार्यकाल के दो वर्ष पूरे कर लेंगी। उन्होंने पुदुच्चेरी के लोगों के नाम एक खुला पत्र लिखकर कहा है कि वह उस दिन पद छोड़ देंगी। उन्होंने यह भी लिखा है कि वह अपने वरिष्ठों को इस बारे में जानकारी दे चुकी हैं। पुदुच्चेरी केंद्रशासित प्रदेश है और वहां कांग्रेस की सरकार है। उप राज्यपाल और मुख्यमंत्री वी नारायणस्वामी के बीच कटु रिश्ते किसी से छिपे नहीं हैं। बेदी ने अधिकारियों के समय की पाबंदी को नापने के लिए एक व्हाट्सऐप समूह बनाया। इस पर नारायणस्वामी ने कहा कि सरकारी अधिकारी सोशल मीडिया के समूहों का हिस्सा नहीं हो सकते। उन्होंने अधिकारियों से कहा कि वे बिना उन्हें सूचित किए उप राज्यपाल से आदेश न लें। उन्होंने अधिकारियों से यह भी कहा कि वे बिना कैबिनेट की इजाजत लिए उप राज्यपाल से न मिलें। बेदी ने इन सब बातों की अनदेखी की और भाजपा के तीन मनोनीत सदस्यों को शपथ दिला दी। यह काम विधानसभा अध्यक्ष का है, हालांकि उप राज्यपाल को ऐसा करने का अधिकार है। इस पर नारायणस्वामी नाराज हो गए। अगर बेदी अपनी बात पर कायम रहती हैं तो चंद रोज में उनका इस्तीफा सामने होगा।
दिल्ली सरकार और वहां के उप राज्यपाल के बीच का तनाव भी किसी से छिपा नहीं है। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी के रिश्ते सन 2017 से ही खासे तनावपूर्ण हैं। त्रिपाठी कह चुके हैं कि राजभवन सरकार का कोई विभाग नहीं है और प्रदेश का हर नागरिक अपनी दिक्कतों के हल के लिए उनसे संपर्क कर सकता है। उन्होंने कहा कि यह कहना गलत है कि राजभवन भाजपा या आरएसएस का कार्यालय बन गया है। दरअसल ममता ने आरोप लगाया था कि राज्यपाल कानून व्यवस्था के मसले अपने हाथ में ले रहे हैं। यह तनाव तब पैदा हुआ जब बदुरिया में सांप्रदायिक हिंसा भड़की और ममता ने कहा कि राज्यपाल ने उन्हें बुलाया और हिंसा को शीघ्र नियंत्रित करने को लेकर धमकाया। राज्यपाल और राष्ट्रपति दोनों के पास ऐसे अधिकारों की भरमार है जिनकी सभी विपक्षी दल आलोचना करते हैं लेकिन सवाल यह है कि वही दल सत्ता में आने के बाद उन अधिकारों को खत्म क्यों नहीं करते?
(साभार- बिजनेस स्टैण्डर्ड)
संपादक- स्वतंत्र भारत न्यूज़
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