चीन-अमेरिका-रुस - नये शीत-युद्व की सुरुआत। रघु ठाकुर
नयी दिल्ली, 07 मई: पिछले कुछ दिनों में दुनिया के स्तर पर दो महत्वपूर्ण राजनैतिक घटनायें घटी हैं, जिन पर भारत वर्ष के महान समाजवादी चिंतक और विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रिय संरक्षक - रघु ठाकुर ने अपने लेख में लिखा है कि, गत् सप्ताह दुनिया के स्तर पर दो महत्वपूर्ण राजनैतिक घटनायें घटी, इस प्रकार की घटनायें समूची दुनिया के लिये चिंता और चिंतन का कारण होना चाहिये। हांलाकि यह दुःखद है कि भारतीय राजनीति कभी भी अपने परम्परागत जाति और धर्म की बहस से ऊपर नही उठ सकी।
देश के मुख्य राजनैतिक दल जिनकी संसदीय हिस्सेदारी संसद में है और जिन्हें मुख्यधारा का राजनैतिक दल कहा जाता है, उनके द्वारा कोई चर्चा कम से कम मीडिया और उनके संचालित सोषल मीडिया में भी इस विषय पर सुनने को नही मिली। भारतीय राजनीति का इससे बढ़ा हल्कापन और अगंभीर चरित्र कुछ और नही हो सकता।
भाजपा-कांग्रेस मोदी और राहुल केवल एक दूसरे के ऊपर बयान, भाषणो या ट्यूटर से तंज कसने में मसगूल है और चूंकि इसमें एक सत्ताधारी दल है और दूसरा दो नम्बर का सत्ताकांक्षी दल है, अतः मीडिया भी इनकी निरर्थक चुटकुले बाजी को देश की जनता के सामने परोस देता है।
वामपंथी भी अपने अस्तिव की रक्षा और कुछ अंतर फतह की गिरोह बंदी में इतने उलझे हुये है कि, इन बड़ी अंतरराष्ट्रीय घटनाओं पर उन्होंने दृष्टिपात नही किया।
सपा, बसपा जैसे दल केवल अपनी ताकत बढ़ाने के लिये या हार से बचने के लिये जातीय गठजोड़ में मसगूल है और उनके लिये यही स्थिति अन्य क्षत्रपो जैसे लालू-नीतीष -ममता, उद्वव ठाकरे आदि की भी है। उन्हें उनके प्रदेश की सत्ता ही विश्व-सत्ता है, जिससे आगे सोचने की दृष्टि और इच्छा दोनो ही उनके पास नही है।
अमेरिका ने स्टील और एल्युमिनियम पर आयात शुल्क कम से कम 10 से 25 प्रतिषत तक बढ़ा दिया है तथा और बढ़ाने की धमकी दी है। जिन से चीन पर कई लाख करोड़ का बोझ बढे़गा। इसका सर्वाधिक प्रभाव चीन की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला है, क्योंकि चीन स्टील, एल्युमिनियम आदि का बड़ा निर्यातक देष है।
वैसे तो इसका प्रभाव भिन्न-भिन्न रुप से समूची दुनिया के देशों और अर्थ व्यवस्थाओ पर पड़ेगा, परन्तु अंतर्राष्ट्रीय-राजनीति के लिये इसके कुछ गहरे संकेत है। और अब चीन ने भी अमेरिकी सामान के आयात पर 25 प्रतिशत टैक्स लगाकर उत्तर दे दिया है।
भारत कितना शक्तिशाली है यह इसी से सिद्व हो जाता है कि, हाल ही में भारत के वाणिज्य मंत्री- श्री सुरेश प्रभु व चीन की बातचीत में, जब श्री सुरेश प्रभु ने चीनी वात्र्ताकार से अनाज आदि का आयात खोलने या भारत को निर्यात की मंजूरी देने का जिक्र किया तो चीन ने उसका उत्तर तक नही दिया। तथा बगैर किसी निष्कर्स या निर्णय के ही यह बातचीत समाप्त हो गई।
वैष्वीकरण और विष्वव्यापार संगठन की शुरुआत की पहल अमेरिका ने की थी और दुनिया को एक आर्थिक ढ़ाॅचें में ढालने का तिलस्म शुरू किया था।
चूंकि उस समय अमेरिका ही दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत था तथा दुनिया को लूट कर अपनी सम्पदा बढ़ाने का उसका मकसद था इसलिये उसने नये साम्राज्य वाद के रुप में आर्थिक गतिविधियो को नियंत्रित करने का तथा उसके माध्यम से राजसत्ताओं को नियंत्रित करने का खेल शुरू किया था।
अमेरिका के पूर्व विदेश सचिव- हेनरी किसिंजर ने कहा था कि ’’डब्लू टी. ओ. इज नथिगं वट द सुप्रीमेसी आफ अमेरिका’’ याने डब्लू टी.ओ. केवल दुनिया में अमेरिकी प्रभुत्व और श्रेष्ठता का संगठन है और यह स्थिति काफी समय तक चलती रही।
हांलाकि कभी-कभी दुनिया के कमजोर, गरीब और रंगीन दुनिया के देषो ने अपने हितो की खातिर अमेरिकी हितो के खिलाफ एक जुट होने के छुट-मुट प्रयास भी किये परन्तु अमेरिका ने सदैव अपने हितो को ही सर्वोपरी माना और ऐसे सवालो को नजर अंदाज और अमान्य कर दिया। ग्रीन हाऊस जैसे गैस उत्सर्जन के सवाल पर जब प्रदूषण विरोधी समझौते के क्रियावयन के लिये विश्व व्यापार संगठन के अधिकांष देशों ने राय व्यक्त की तब अमेरिका जो उस समझौते का एक प्रकार से स्वतः प्रस्तावक था बदल गया और उसने अमेरिकी तेल उपभोग में या ग्रीन गैसो के उत्सर्जन की कटौती से साफ इंकार कर दिया।
अमेेरिका में ट्रम्प के जीतने के बाद से ही अमेरिकी नीतियो में भारी बदलाव के निम्न संकेत आने लगे है:-
1. अपनी अर्थ व्यवस्था को दुरुस्त करने और विदेशी कर्ज कम करने के लिए अमेरिका ने ’’अमेरिकी संरक्षणवाद’’ की लगभग एक सदी के बाद पुनः शुरूआत की है। ट्रम्प ने अमेरिकियों से अमेरिकी सामान के प्रयोग की अपील शुरू की तथा अमेरिकी कम्पनियों में विदेशी लोगो के लिये बीजा की शर्तें कठिन बनाना शुरू किया है।
2. ट्रम्प ने सबसे पहले तो आंतकवाद के खतरे को रोकने के कारणों में अनेको देशों के लोगो को या उनके विमानो के आने पर रोक लगाई। न्यायपालिका के द्वारा इस पर कुछ प्रतिरोध भी हुआ और धीरे-धीरे ट्रम्प ने कुछ शाब्दिक आदान प्रदान करते हुये अपने लक्ष्य में काफी सफलता हासिल कर ली।
3. एच-1 बी बीजा देने की शर्तों को और कठोर बनाया है। यद्यपि भारत जैसे देशों को जिनकी उसे अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक स्तर पर फिलहाल आवश्यकता है उनकी चिंताओं के निराकरण और रिश्तों के नाम पर उन्हें कुछ समय को ढील दे दी है। जिसके परिणाम स्वरुप अमेरिका में कार्यरत भारतीय कर्मचारियो में से जो (लगभग पांच लाख) वापिस आने की स्थिति में थे, को कुछ रियायत मिली तथा वापिस भागने केी मजबूरी वाले नौजवानो में से एक हिस्सा की वापिसी फिलहाल थम गयी है। परन्तु यह कोई स्थाई हल नही है बल्कि एक सीमित सामयिक अमेरीकी रणनीति है।
4. अमेरिका की तात्कालिक जरुरत चीन को दबाकर चीन और पाकिस्तान तथा चीन और अन्य देशों की बन रही धुरी को कमजोर करने की है।
5. चूॅकि अमेरिका ने अपने आर्थिक बोझ और कमजोर अर्थ व्यवस्था के चलते पूर्व में तय किये गये वैष्विक दायित्वो से या तो हटने या भागीदारी को आंषिक या नाममात्र की करने की नीति बनाई है इसीलिये दुनिया में अमेरिकी समर्थन कम हुआ है। तथा अमेरिका का वैष्विक स्थान चीन ने लेना शुरू कर दिया है। और इसीलिये अमेरिका को चीन के द्वारा चीन से लेकर अफ्रीका तक बनाये जा रहे आर्थिक कॅारिडोर का विरोध करने का मार्ग प्रषस्त करना है। यह कॅारिडोर भारत के लिये सामरिक और आर्थिक चिंता का कारण है तो अमेरिका के लिये भी आर्थिक और वैष्विक शक्ति संतुलन के लिये चिंता का कारण है।
6. ’’डोकलाम’’ में चीन ने अपना इरादा कुछ दिन शांत रहने के बाद पुनः स्पष्ट कर दिया है और साफ कर दिया है कि डोकलाम चीन का है और इसे कोई नही रोक सकता। इतना ही नही चीन के नवनिर्वाचित स्थाई राष्ट्रपति - श्री षी जिनपिंग जिन्होंने चीन में माओवाद को जिनपिंगवाद में बदल दिया है उन्होंने तो अप्रत्यक्ष रुप से भारत को चेतावनी देते हुये यहाॅ तक कह दिया कि चीन अपने शत्रु से हिंसा और हथियार से भी लड़ने को तैयार है।
चीन की इस बढ़ती हुई आर्थिक राजनैतिक और सामरिक षक्ति को थामने का प्रयास अब अमेरिका ने स्टील, एल्युमिनियम आयात पर शुल्क लगाकर शुरू किया है। इस कदम के माध्यम से और आगे के जो कदम अमेरिका उठायेगा जिसके संकेत मिल रहे है उनसे स्पष्ट है कि अमेरिका और चीन के बीच अब कम से कम आर्थिक, राजनैतिक षीत युद्व तेजी से फैलेगा।
जिस प्रकार जिनपिंग ने राष्ट्रपति पद की अवधि को समाप्त कर स्थाई बना लिया है लगभग वैसा ही कदम रुस में पुतिन ने भी उठाया है और पुतिन भी स्थाई राष्ट्रपति बन चुके है। याने उन्हें उनकी मर्जी या मौत या किसी बड़े गृह विद्रोह के अलावा कोई हटा नही सकता। रुस के छुट पुट लोकतंत्र का यह खात्मा जैसा है और जिनपिंग और पुतिन अपने अपने देषो के स्थाई तानाषाह जैसे बन चुके है। जिन्हे अब जनमत की कोई चिंता नही है। सही मायनो में चीन व रुस में साम्यवाद और माक्र्सवाद, लेनिनवाद या माओवाद की इतिश्री हो चुकी है और पुतिनवाद और जिनपिंगवाद की शुरूआत हो चुकी है।
इन तानाशाहों का उदय एक कट्टर राष्ट्रवादिता की बुनियाद पर खड़ा है और जो कालान्तर में नस्लवाद में भी बदल सकता है।
दुनिया में लोकतंत्र के नाम पर हल्ला पीटने वाले कितना ही हल्ला गुल्ला क्यों न करे इनके व्यक्ति केद्रित राष्ट्रवाद पर कोई प्रभाव होने वाला नही है।
यूरोप में रुसी जासूस जिन्हें कथित रुप से केमिकल अटेक याने जहर के माध्यम से मारने का प्रयास किया गया और जो रुस के सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी होते हुये भी ब्रिटेन के लिये जासूसी करने के आरोप में 13 वर्ष की जेल काटकर एक प्रकार से भागकर ब्रिटेन में रहने लगे थे, को रुस ने इस प्रकार से मारने का प्रयास किया, यह ब्रिटेन का आरोप है। इस घटना के बाद अमेरिका और रुस रहित यूरोप का एक नया गठजोड़ बन रहा है। इसी के तहत अमेरिका, ब्रिटेन आदि 15 देषो ने रुस के 105 घटना केवल राजनयिकों को अपने-अपने देशों से निकालने का आदेश जारी कर दिया।
यह ’’राजनयिक निष्कासन’’ तक सीमित रहेगी या भविष्य में कोई गम्भीर रुप लेगी यह अभी कहना कठिन है। पुतिन के नेतृत्व में रुस ने जो आर्थिक षक्ति अर्जित की है वह उल्लेखनीय है। रुस के लोगो की वार्षिक आय 13 गुना बढ़ी है और अब रुस में भुखमरी व सामान के लाले नही है बल्कि प्रचुरता है। पुतिन ने एक प्रकार से रुस का पुनःरुद्वार किया है और रुस दुनिया का नेतृत्व करने की महत्वकांक्षा पालने लगा है। अमेरिका में संरक्षणबाद और रुस के विरुद्व अमेरिका और ब्रिटेन की एक जुटता ने विश्व व्यापार संगठन के भविष्य पर प्रष्न चिन्ह लगा दिया है।
मैं तो पहले से ही कहते रहा हॅू कि भारत को डब्लू.टी.ओ का हिस्सेदार नही बनना चाहिये था। मैं लगभग सन् 2000 से यह बात उठाता रहा हॅू कि भारत को डब्लू,टी.ओ को छोड़ देना चाहिये। सन् 2000 में हम लेागो ने बाकायदा दिल्ली में एक सम्मेलन कर यह माॅग शुरू की थी एंव ’’भारत डब्लू.टी.ओ छोड़ो’’ नामक संगठन बनाकर अभियान भी शुरू किया था, परन्तु तत्कालीन सत्ताधीष और तब से लेकर अब तक के सत्ताधीष जो दुनिया के प्रचार तंत्र के प्रभाव में डब्लू.टी.ओ केा अन्तिम सत्य मानने लगे थे तथा केन्द्र से लेकर राज्यों की सरकारे जो डब्लू.टी.ओ के चार्टर को ही अपनी गीता मानने लगी है ने इस पर ध्यान नही दिया।
अभी भी समय है कि उन्हें चेत जाना चाहिये। इस वैश्विक पूंजीवाद के आर्थिक जाल को काटकर उससे मुक्त हो जाना चाहिये।
इस जाल से बड़े-बड़े ताकतवर गिद्व जैसे पक्षियो ने प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष निकलना शुरू कर दिया है और अगर हम नही चेते तो हम भारत जैसे परिंदो को यह जाल स्थाई षोषण और दासता का जाल बना रहेगा।
परन्तु, भारतीय राजनीति और राजनेता, क्या कभी केवल तात्कालिक सत्ता हथियाने के जुमलो की राजनीति से ऊपर उठकर इन राष्ट्रीय सवालो पर विचार करेगे?
भारत की संसद भी केवल वेतन भत्ते लेने, सुविधा भोग करने और बहिष्कार के नाटक में फॅसकर मुष्किल से सांसे ले पा रही है। इतनी पंगु और निर्जीव संसद शायद ही कभी और हुई हो। अब तो देश के आमजन को स्वतः इन सवालों पर चिंता करना होगी। और कुछ सोचना व करना होगा।
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