डोकलाम विवाद सुलग रहा है - रघु ठाकुर
नयी दिल्ली, 03 मई: डोकलाम विवाद पर भारत वर्ष के महान समाजवादी चिंतक और विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रिय संरक्षक - रघु ठाकुर ने अपने लेख में लिखा है कि, "यद्यपि भारत चीन सीमा के ऊपर फिलहाल मीडिया का फोकस नही है परन्तु हालात ठीक और निंयत्रण में नही कहे जा सकते हैै। डोकलाम विवाद दिखने में ऊपरी तौर पर षांत है परन्तु कई प्रकार की सूचनायें इस संबध में चर्चा में है। कुछ सैन्य विषेषज्ञों का कहना है कि डोकलाम वस्तुतः चीन के ही निंयत्रण में पहॅुच चुका है और वहाॅ उन्होंने अपनी चैकी स्थापित कर दी है तथा जिस गलियारे को चीन आगामी भविष्य में अपने बाजार और हथियार के लिये तैयार कर रहा है वह कार्य जारी है।
(फोटो- साभार एन डी टी वी)
भारत डोकलाम को जो भारत की सीमा में है, चीनी गलियारे के अवरोध के रुप में इस्तेमाल करना चाहता था वह नही कर सका।
दूसरी तरफ मालद्वीप में चीन ने अपनी पहॅुच या राजनैतिक घुसपैठ काफी गहरी बना ली है और वैष्विक सूचनाओं के अनुसार मालद्वीप में तख्ता पलट के लिये अन्ततः विद्रोह चीन की रणनीति का ही हिस्सा है। क्योंकि, मालद्वीप में वह अपने पिट्ठू शाशक को बैठाकर अपना सैन्य अड्डा स्थापित करना चाहता हैं। ताकि भारत को सभी ओर से घेरा जा सके।
चीन और श्रीलंका के बीच समझौता भी हुआ है, यह सुविज्ञ सूत्रो का कहना है। पाकिस्तान पहले से ही चीन के राजनैतिक लाइन पर है और उसने चीन को अपने सैन्य अड्डे के लिये न केवल भूभाग दिया है बल्कि वह हर प्रकार से सहयोग कर रहा है याने भारत के पूर्व दक्षिण पश्चिम के देशों और द्वीपों का चीन प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से अपने प्रभाव में लेकर भारत की घेराबंदी कर रहा है।
उत्तर में हिमालय तक उसकी पहॅुच है और उत्तर पूर्व में नेपाल भी उसके नजदीक है।
चीन के ही पहल और प्रभाव से नेपाल की दोनो कम्युनिस्ट पार्टियो का विलय हुआ है और वर्तमान प्रधानमंत्री व प्रंचड एक साथ हुये है (ऐसी भी चर्चा है)।
चीन में अन्तरदेषीय घटनायें भी जिस दिषा में जा रही है वे भी विचारणीय है।
चीनी राष्ट्रपति श्री षी जिनपिंग के कार्यकाल के दौरान संविधान में संशोधन कर एक व्यक्ति को दो-बार राष्ट्रपति बनने के प्रावधान को हटा दिया गया याने श्री षी जिनंपिग तब तक राष्ट्रपति बने रह सकते है जब तक वे जिंदा है, या रहना चाहे या फिर सेना का विद्रोह या कोई दलीय सैन्य विद्रोह के द्वारा उन्हें हटाया न जाये।
दुनिया अब दो ध्रुवीय दुनिया नही है बल्कि बहु धु्रवीय है। अब अमेरिका की आर्थिक और सैन्य षक्ति दुनिया में हस्तक्षेप के लायक ज्यादा नही बची है और आर्थिक मामले में तो वह चीन से पीछे भी है तथा चीन का कर्जदार भी है।
इन हालात में श्री षी जिनपिंग जो अभी चीन के एकछत्र षासक जैसे है अब वे स्थाई एकछत्र षासक और एक अर्थ में एक तानाषाह जैसे बन सकते है। उनकी महत्वाकांक्षाये इस रुप में नजर आ रही है वे हैः-
1. माक्र्सवादी विचारो और माओवाद के वैचारिक उत्तराधिकार से मुक्त होकर अब वे स्वतः अपने दर्षन के प्रवर्तक बनना चाहते है जिसमें समता और सार्वजानिक स्वामित्व का कोई स्थान नही होगा। निजी पूंजी, निजी उद्योग, निजी सम्पति, पूर्णतः मुक्त होगी और वे एक सैन्य षासक याने अमेरिका जैसे देषो में जो कारपोरेट लोकतंत्र है या लोकतांत्रिक पूँजीवाद है से हटकर वे साम्यवादी पूँजीवाद या व्यक्ति तानाषाही पूंजीवाद स्थापित कर रहे है जिसमें अर्थव्यवस्था में पूंजीवाद होगा और राजनैतिक व्यवस्था में सर्वहारा के तानाषाही के नाम पर व्यक्ति की सैन्य तानाषाही होगी।
2. श्री षी जिनपिंग की महत्वाकाक्षाऐं अब 50 से लेकर 70-80 तक के दषक के अमेरिका के समान है या कुछ अर्थो में उससे भी ज्यादा वैष्विक भूमिका अदा करने की है। जिस प्रकार 20 वीं सदी के मध्य से लगभग 21 वीं सदी के आरम्भ तक अमेरिका दुनिया मंे हर जगह हस्तक्षेप करने के लिये तत्पर और सामथ्र्य रखता था अब लगभग वही भूमिका श्री षी जिनपिंग की है और वे चीन को उसी ओर ले जाना चाहते है।
3. माक्र्सवाद जो माओ के विचार का मूल आधार था को भी उन्होंने विधिवत बदलना षुरु कर दिया है। अब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रस्ताव में माओ का स्थान श्री षी जिनपिंग के विचार या वाद ने ले लिया है। याने अब चीन में साम्यवाद या माओवाद नही बल्कि षी जिनपिंग वाद स्थापित हो चुका है। 20 वीं सदी में पूंजी के प्रभुत्व की प्रक्रिया तेजी से षुरु हो गई थी और पूँजी, व्यापार और पैसे ने राज सत्ता, ज्ञान, कला, साहित्य, संस्कृति, सभ्यता सभी को अपने आगोश में बांध कर अपने अनुकूल चलाना शुरू कर दिया था।
इन सारे तरीकों का इस्तेमाल जिनपिंग भी कर रहे है। तिब्बत की सामरिक संरचना और धार्मिक परम्परा यहाॅ तक कि दलाई लामा के चयन की पद्वति भी लगभग बदली जा चुकी है। वर्मा में एक तरफ सैन्य षासन और अधूरा लोकतंत्र है तथा बौöों और रोहिंग्या मुसलमानो के बीच के तनाव से चीन को म्यांमार की ओर और भी नजदीक आने का अवसर मिला है।
स्थानीय निवासियो और रोहिंग्या मुसलमानो के बीच तनाव की समस्या अब चीन, वर्मा और श्रीलंका में कितनी वास्तविक है अवास्तविक है यह एक बहस का मुद्दा हो सकता है परन्तु इस समस्या को लेकर इन तीनो देषों के बीच में रोहिंग्या मुसलमानो के बारे में दृष्टि समानता है और यह चीन के लिये अनुकूलता है।
चीन की सैन्य शक्ति, रक्षा बजट और हर प्रकार से सैन्यीकरण भारत से ज्यादा है। भारत की सामरिक सुरक्षा कितनी चिंताजनक है इसका खुलासा हाल ही में भारत के उप सेना प्रमुख श्री षरद चन्द्र के रक्षा विभाग की संसदीय समिति के समक्ष दिया गया बयान है जिसमें उन्होंने कहा है कि ’’भारत को दो तरफ से मुकाबलो की चुनौती है।
परन्तु सेना के 68 प्रतिषत हथियार संग्रहालय में रखने लायक है। ’’याने वे समय पूरा कर चुके है और उनके ऊपर निर्भय रहकर किसी हमले का मुकाबला कठिन होगा।
मुझे याद है कि, 1962 में जब चीन का भारत पर हमला हुआ था तब भी भारत की सैन्य सामग्री न केवल अपर्याप्त थी बल्कि अधिकंाष तो उपयोग के लायक भी नही थी। सेना के कितने ही कारतूस चले ही नही और यह स्थिति आज से नही है बल्कि कई वर्ष पूर्व से है भारत के पूर्व थल सेना अध्यक्ष ने भी भारत के सामरिक साधनो और हथियारो की बदतर स्थिति का खुलासा किया था। हॅालाकि अच्छा होता कि संसदीय समिति उप सेना प्रमुख के इस बयान को उजागर नही करती क्योंकि इससे देष की कमजोरी बाहर जाती है और वे आक्रामक षक्तियो को उत्साहित करती है तथा अवसर प्रदान करती है।
मीडिया को भी इस खबर को मेरी राय में ’’प्रकाशित करने से बचना’’ चाहिये था या बहुत प्रमुखता नही देता था। बहरहाल भारत की हथियारो की स्थिति की चिंताजनक स्थिति सामने आ चुकी है।
इसी बीच एक और खबर आई है कि भारत सरकार के पास यह प्रस्ताव रक्षा विभाग के द्वारा भेजा गया है कि हर छात्र को पांच वर्ष तक का सैन्य प्रषिक्षण देने का नियम बनाया जाये। और इसके पीछे यह कारण बताया गया है कि अब लोग सेना में भर्ती होने के और विषेषतः सेना अधिकारी बनने के लिये ज्यादा नही आ रहे है और उत्साहित नही है।
मैं नही जानता हॅू कि, इस खबर में कितनी सच्चाई है परन्तु कहावत है कि जहाॅ धुआॅ उठता है वहाॅ कुछ न कुछ आग होती है। इस सार्वदेषिक सैन्यीकरण की बाध्यता और लोग के सेना में अधिकारी वर्ग में भर्ती होने की अरुचि के कारणो की भी पड़ताल जरुरी है।
1. अब नई पीढ़ी के नौजवान देष या समाज के लिये कम-पैकेज के लिये ही ज्यादा काम करना चाहते हेै। बहुराष्ट्रीय कम्पनियो में लाखो करोड़ो का पैकेज पाकर वे भोग विलास और सुख की सुरक्षित जिन्दगी जीना चाहते है, ना कि सेना में भर्ती होकर कम वेतन और ज्यादा जोखिम की जिन्दगी।
क्या यह हमारे देश में घटती हुई राष्ट्रीयता और राष्ट्र प्रेम के अभाव को प्रदर्शित नही करता है?
चंद्रशेखर आजाद, ने सीने पर गोलियाॅ खाई, भगत सिंह फांसी के फॅदे पर चढ़े, असफाउल्ला ने जान दी तो यह और ऐसे हजारो क्रांतिकारियो ने अपने जीवन को बगैर किसी वेतन, बगैर किसी अपेक्षा, बगैर किसी लालच के देष के लिये अपने आपको कुर्बान किया, परन्तु अब जहाॅ एक तरफ वतन का प्रेम अपने तन और धन के प्रेम में बदल गया है वही दूसरी तरफ 90 के दषक से सरकारो ने भी लालच केा जगाया है।
जब संसद पर आकंतवादी हमला हुआ तो उसके बाद मरने वाले सुरक्षा कर्मियो को सरकार की ओर से 25-25 लाख, रुपया, पेट्रोल और गैस एजेंसी देने का ऐलान हुआ। बाद में कारगिल के समय तो सरकारी मुआवजा भी जनता की भावनाओं को जगाने के लिये बढ़ाकर दिया गया। इस प्रकार के सहयोग केन्द्र और राज्य दोनो सरकारो ने मुक्त हाथो से दिये। इन मुआवजों ने अब सैनिको और उनके परिवारो में राष्ट्र प्रेेम पीछे और धन प्रेम आगे की भावना को जगाया है।
अब तो हालात यह है कि मृतक सैनिको और पुलिस जवानो के परिजन अन्यो केा दिये गये मुआवजे से प्रतिस्पर्धा करते है और कभी-कभी तो अंतिम संस्कार का कार्य इसलिये रोक देते है कि उन्हें दूसरो की तरह मुआवजा मिलना चाहिये। प्रचार और वोट की भूख ने सरकारो को ऐसे मुकाम पर पंहुचा दिया है कि शहीद होने का अर्थ ही समाप्त हो गया है।
अब तो छुट्टी करते हुये सामान्य या असामान्य मौत को भी षहादत कहकर कीमत माॅगने का प्रयास होने लगे है यह एक राष्ट्रीय चिंता का विषय है।
इसी बीच कुछ दिनो पूर्व संघ प्रमुख ने एक बयान देकर कि तीन घंटे मंे संघ सेना तैयार कर सकता है हलचल बढ़ाई इससे बौद्विक तबके में कई प्रष्न भी पैदा हो गये:-
1. क्या उनके पास या उनके संगठन में इतनी संख्या में सैन्य प्रषिक्षण प्राप्त लोग है?
2. यह प्रशिक्षण कहाॅ और कब किया गया तथा इसके प्रशिक्षण देने वाले कौन थे।
3. प्रशिक्षण के लिये हथियार कहाॅ से आये थे और अब वे कहाॅ है।
4. अगर वास्तविकता में उन्होंने ऐसा प्रषिक्षण दिया है तो क्या उसकी सूचना भारत सरकार को दी गई थी?
हाॅलाकि देश के एक बड़े हिस्से में उनके बयान को जुमला और बड़ बोलापन माना गया है तथा गंभीरता से नही लिया है।
परन्तु अब रक्षा विभाग के द्वारा सरकार को भेजे छात्रो के पांच वर्ष के अनिवार्य सैन्य षिक्षा की जानकारी आने के बाद लोग इसे संघ प्रमुख के बयान से जोड़ कर देख रहे है।
जेा भी हो देश की सुरक्षा हमारी पहली चिंता है और साम्राज्यवादी, विस्तारवादी तथा अब अति महत्वाकांक्षा व्यक्ति केन्द्रित चीन ने सुरक्षा की चिन्ताओं को कई गुना बढ़ा दिया है। अब समय है कि सरकार:-
1.अपने सुरक्षा तंत्र और श्रस्तागार को नवीनीकृत कर मजबूत व आधुनिकतम बनाये।
2.सेना में भर्ती के लिये लालच या मजबूरी के बजाय राष्ट्रीय जज्बा केवल षब्दो से नही बल्कि अपने आचरण से पैदा करे।
3.विदेश नीति को समसामायिक और भविष्यदृष्टा बनाने के लिये सरकार के भीतर और बाहर राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श शुरू करे।
4.अपनी सुरक्षात्मक या सामरिक कमजोरियों को यथा ष्षीघ्र सुधारे, परन्तु सार्वजनिक रुप से उजागर न करे।"
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