आईये, जंग -आज़ादी -ए - हिन्द के एक और मुस्लिम किरदार - बिस्मिल अज़ीमाबादी को जानते हैं.
लहू बोलता भी है
बिस्मिल अज़ीमाबादी: जंग -आज़ादी -ए - हिन्द के एक और मुस्लिम किरदार.
पटना (बिहार) के रहनेवाले बिस्मिल दौराने- जंगे-आज़ादी अज़ीमाबाद घराने के काफ़ी क़रीबी थे। बिस्मिल वहां नयी-नयी नज़्मंे और ग़ज़लें मुजाहेदीने-आज़ादी की हिम्मत-अफ़जाई के लिए लिखा व सुनाया करते थे। उनकी गज़लों में अंग्र्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ शोला निकलता रहता था। आहिस्ता-आहिस्ता बिस्मिल भी जंगे-आज़ादी में हिस्सा लेने लगे।
हिन्दुस्तान की जंगे-आज़ादी में उर्दू शायरी और सहाफ़त ने बहुत अहम किरदार अदा किया है। उनमें बड़े शायरों मंे अल्लामा इक़बाल, मौलाना हसरत मोहानी का नाम तो था ही, लेकिन कुछ छोटे शायरों ने भी मुल्क की आज़ादी के लिए क़लम से जो धार पैदा की, उसमें बिस्मिल अज़ीमाबादी का नाम सुनहरे हर्फ़ों में लिखा जाना चाहिए था लेकिन इतिहासकारों ने यहां भी तंगनज़री से काम लिया। उन्हीं की मशहूर गज़ल है-
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाजू -ए-कातिल में है.
इसे बिस्मिल ने सन् 1921 पटना में कांग्रेस के सूबाई कांफ्रेंस में सुनायी थी। उस वक़्त इस गज़ल को आज़ादी के दीवानों ने फरमाइश करके चार बार पढ़वाया। इसका क्लाइमेक्स तब हुआ जब चैथी बार बिस्मिल अज़ीमाबादी ने इसे सुनाना शुरू किया तो पूरा पण्डाल उनकी धुन पर साथ मंे गाने लगा। इसकी मक़बूलियत का आलम यह था कि आज़ादी के नौजवानों की टीम ने इसे अपना गीत बना लिया। इसके बाद जब भी इंकलाबी कमेटी की मीटिंग हो तो इस गीत से ही शुरुआत होती थी। इंक़लाबी कमेटी का नाम बाद में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन कर दिया गया। इस गज़ल को रामप्रसाद बिस्मिल हर वक़्त गुनगुनाया करते थे। चूंकि वह ख़ुद भी गीत व कविता लिखते थे और उन्होंने 35 ग़ज़लें भी लिखी थीं, इसलिए बाद में कुछ लोगों ने इसे रामप्रसाद के नाम से जोड़ दिया, जो कि सच नहीं था। इसमें बिस्मिल नाम और बिस्मिल टाइटिल की वजह ने भी लोगों को शक में डाल दिया। रामप्रसाद बिस्मिल मंे बिस्मिल टाइटिल (तख़ल्लुस) है और बिस्मिल अज़ीमाबादी में बिस्मिल नाम है। बिस्मिल अज़ीमाबादी के बेटे की अपील पर यह मामला बाद में हाईकोर्ट तक गया और कोर्ट ने फैसला बिस्मिल अज़ीमाबादी के हक़ मंें दिया। तब उर्दू एकेडमी के ज़रिये दिल्ली-सरकार ने इस पूरी गज़ल को छपवाया और साथ ही बिस्मिल अज़ीमाबादी का जीवन-परिचय भी छापा। तब जाकर यह विवाद समाप्त हुआ।
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