शेर-ए-हिन्द शेर अली खान - ‘‘लहू बोलता भी है: जंगे-आज़ादी-ए-हिन्द के मुस्लिम किरदार’’
ज़रा याद उन्हें भी कर लो, जो लौट के घर न आये!!!!
मौजूदा अफ़गानिस्तान से सटे सरहदी इलाक़े के एक छोटे-से गांव जमरूद के रहनेवाले शेर अली खान को 30 साल की उम्र में ही काला-पानी की सजा हुई। इस बहादुर इंसान का जुर्म सिर्फ यह था कि मुल्क की आज़ादी के लिए उसने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ बग़ावत की। भारत के इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज आप वह पहले आदमी थे, जिन्होंने किसी गवर्नर-जनरल का क़त्ल किया था।
[‘‘लहू बोलता भी है: जंगे-आज़ादी-ए-हिन्द के मुस्लिम किरदार’’]
पहली जंगे-आज़ादी सन् 1857 के नाक़ामयाब होने के बाद अंग्रेज़ पागलों की तरह हर उस इलाके को अपना निशाना बना रहे थे जहां मुसलमानों से जंग में अंग्रेज़ों का बड़ा नुक़सान हुआ था। सूबा सरहद भी उनकी हिट लिस्ट में था, सी.आई.डी. की ख़बर पर अंग्रेज़ फ़ौज ने शेर अली खान को बग़ावत के जुर्म मंे सन् 1862 मे गिरफ्तार किया पांच साल तक मुक़दमा चला उसके बाद 2 अप्रैल सन् 1867 को पेशावर के कमिश्नर ने शेर अली खान को काला-पानी की सज़ा सुनायी थी। कराची और मुंबई होते हुए आपको सन् 1869 में अण्डमान की जेल में पहुंचा दिया गया था। वहां पर आप नाई बनकर ज़िंदगी ग़ुजारने लगे और उस पल का इन्तज़ार करने लगे कि कब यहां पर लाॅर्ड मायो का आना हो, ताकि आप उसका क़त्ल कर सकें और हिन्दुस्तान को अंग्रेज़ों से छुटकारा मिल सके। आपको अच्छी तरह मालूम था अगर वह वहां नाई का काम करेंगे, तभी अव्वल तो आपको अंग्रेज़ों के क़रीब जाने का मौक़ा मिल सकेगा और दूसरे आप पर अंग्रेज़ों को शक भी नहीं हो पायेगा। याद रहे कि उस वक़्त गवर्नर-जनरल की हैसियत आज के किसी राष्ट्रपति जैसी थी, जो पूरे मुल्क का एक तरह से शहंशाह होता था और सिर्फ ब्रिटेन की महरानी के मातहत काम करता था।
सन् 1869 से इन्तजार करते-करते आखिर 8 फरवरी, सन् 1872 को वह वक़्त भी आया जब लाॅर्ड मायो अण्डमान-निकोबार पहुंचा। मायो के पहुंचने की भनक मिलते ही आप होप टाउन नाम के जज़ीरे के पास जाकर छुप गये। होप टाउन वह जगह थी, जहां से लाॅर्ड मेयो का ग़ुज़र होना था। जैसे ही लाॅर्ड मायो का वहां से गुज़र हुआ, पल-भर भी गवाये बिना आपने मुल्क पर जुल्म करनेवाले उस गवर्नर-जनरल को अपने चाकू ;बाल बनाने वाला अस्तुराद्ध का निशाना इस तरह बनाया कि एक ही वार में उसकी गर्दन कट गयी और वह समुद्र में गिर गया जहां से घायल हालत में उसे निकालकर कलकत्ता ले जाते वक्त रास्ते में ही उसकी मौत हो गयी।
भरी इन्तज़ामिया के बीच लाॅर्ड मायो पर इस तरह जानलेवा हमला कर गुज़रने पर ज़ाहिरन आपको गिरफ़्तार कर लिया गया। आपसे जब पूछा गया कि आपने ने लाॅर्ड मायो को क्यों मारा ? तब मुल्क के इस बहादुर मुजाहिद ने जवाब दिया, यह सब मैंने अल्लाह के हुक्म पर अपने मादरे-वतन को आज़ाद कराने के लिए किया है। तब यह पूछे जाने पर कि क्या इस काण्ड में कोई और साजिशकार भी शामिल था, आपने फरमाया, हां, अल्लाह भी हमारे साथ इस साजिश में शामिल था। नतीजतन आपको फांसी की सजा सुनायी गयी और तारीख गवाह है कि 11 मार्च, सन् 1872 को जब आपने सूली को हंसते-हंसते चूमा तो उस वक़्त वहां मौजूद जंगे-आज़ादी के सज़ा काट रहे मुजाहेदीन और जेल के मुलाज़िमों को मुख़ातिब करते हुए कहा कि, भाइयों! मैंने आपके दुश्मन को मार डाला है और आप गवाह हैं कि मैं एक मुसलमान हूं। मैंने वाइसराय के जुल्मों का बदला लेने की क़सम खायी थी जिसे पूरा किया वरना मरकर अल्लाह को क्या जवाब देता। कलमा पढ़ते हुए आपने आख़िरी सांस ली।
तवारीख ईमानदारी से लिखी जाती तो सन् 1857 से 1947 तक 90 सालों की जंगे-आज़ादी में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोशियेशन के इंकलाबियों की बहादुरी व शहादत मंे चंद नाम जिन्होंने किसी दरोग़ा को मारा या अदालत मंे बम फेककर एहतेजात किया या सरकारी खज़ाना लूटा बेशक इनकी कुर्बानियों को सुनहरे अक्षरों में लिखा जाना चाहिए था लेकिन अगर वाइसराय को अण्डमान जैसी जगह जहां ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ परिंदा भी परवाज़ नहीं कर सकता था। एक मादरे-वतन के जांबाज़ ने सिर्फ एक मामूली अस्तूरे से पूरी फ़ौज के सामने अकेले दम पर क़त्ल किया और हंसते-हंसते फांसी पर झूल गया इन शहीदों की टोली में अगर एक नाम शेरअली का शामिल कर लिया जाता तो उनकी कलम की इबारत को कुछ हद तक जानिबदाराना मान लिया जाता।
(लेखक: सैय्यद शाहनवाज़ अहमद क़ादरी के सौजन्य से)
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