14वां विश्व गौरैया दिवस विशेष: ...ताकि फिर से गुनगुनाएं गौरैया !
‘गौरैया से मुझे प्यार है’ (I Love Sparrows)।
लखनऊ: 14वां विश्व गौरैया दिवस पर विशेष प्रस्तुति में पटियाला (पंजाब) से स्वतंत्र लेखक व युवा साहित्यकार- 'सुनील कुमार महला' बताते हैं कि, प्रतिवर्ष 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मनाया जाता है।
'सुनील कुमार महला' बताते हैं कि, इस बार 14वां विश्व गौरैया दिवस है। एक समय ऐसा था जब घर-घर, आंगन-आंगन में गौरैया दिखती थीं, लेकिन समय के साथ पक्के मकानों और लगातार कम होते जंगलों के कारण गौरैया के कुनबे भी कम हो गए हैं, जिसका व्यापक असर हमारे पर्यावरण, धरती की पारिस्थिति की पर भी पड़ रहा है।
स्वतंत्र लेखक व युवा साहित्यकार 'महला' बताते हैं कि, गौरैया के प्रति जागरूकता बढ़ाने, इसे बचाने के उद्देश्य से पिछले 13 वर्षों से प्रतिवर्ष हम इस विश्व गौरैया दिवस को मनाते हैं, लेकिन आज लगातार बढ़ती आबादी, बढ़ते प्रदूषण, मनुष्य द्वारा कंक्रीट के जंगल के जंगल खड़े कर देना, बढ़ता औधोगीकरण, विकास, तकनीक, मोबाइल फोन रेडिएशन और प्रदूषण, खासकर ध्वनि, जल व वायु प्रदूषण, घटते जंगल (वनों की अंधाधुंध कटाई), धरती के विभिन्न संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, रहवास की कमी, खेतों में कीटनाशकों व विभिन्न रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग, खेती में तकनीक का अधिक इस्तेमाल आदि कारणों की वजह से भी गौरैया गायब होते जा रही हैं।
'महला' लिखते हैं कि, मैं जानकारी देना चाहूंगा कि नेचर फॉरेवर सोसायटी केअध्यक्ष मोहम्मद दिलावर के प्रयासों से पहली बार 2010 में विश्व गौरैया दिवस मनाया गया था। तब से हर साल 20 मार्च को यह दिवस मनाया जाता है। वर्ष 2022 विश्व गौरैया दिवस की थीम 'आई लव स्पैरो' (मैं चिडिय़ा/गौरैया से प्यार करता हूँ) थी। विश्व गौरैया दिवस मनाने का मकसद गौरैया के संरक्षण के प्रति लोगों में जागरूकता लाना है।
'महला' बताते हैं कि, छोटी प्रजातियों के पक्षी जिनमें गौरैया भी शामिल है, ध्वनि प्रदूषण से निकलने वाली आवाज को सहन नहीं कर पाते हैं।
उन्होंने बताया कि, आज भारत में गौरैया संकटग्रस्त इसलिए हो रही है क्योंकि हमारे यहाँ गांवों का तेजी से शहरीकरण हो रहा है। जीविका के लिए पारिस्थितिक संसाधनों में लगातार कमी आती चली जा रही है, प्रदूषण का स्तर पहले की तुलना में बहुत ज्यादा उच्च हो गया है और सबसे बड़ा कारण है - माइक्रोवेव टावरों से होने वाला उत्सर्जन।
'सुनील कुमार महला' बताते हैं कि, पक्षियों को माइक्रोवेव टावरों से निकलने वाले रेडिएशन से बहुत दिक्कतें होतीं हैं और वे मर जाते हैं। यातायात के साधनों में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी, अनलेडेड पैट्रोल, नया विषैला यौगिक (बेंजीन और मिथाइल तृतीयक ब्यूटाइल ईथर), जो पेट्रोल में सीसे का स्थान लेता है, उन कीड़ों को मार सकता है जिन पर युवा गौरैया पोषण के लिए लगभग पूरी तरह से निर्भर हैं। आज उद्यान शाकनाशियों और कीटनाशकों ने कीड़ों की आबादी को कम कर दिया है, जिससे गौरैया को जीविका से वंचित होना पड़ा है। बड़े शहरों के शहरी क्षेत्रों में गौरैया के पारंपरिक प्रजनन स्थलों में गिरावट प्रजनन के मौसम और उपयुक्त घोंसले के स्थानों के दौरान उपयुक्त भोजन की कमी आदि वे कारण हैं, जिनके कारण इनकी संख्या में लगातार कमी आ रही है। बदलती जीवन शैली, पाश्चात्य संस्कृति का बढ़ता प्रभाव और वास्तु विकास ने पक्षियों के आवास और खाद्य स्रोतों पर कहर बरपाया है।
उन्होंने बताया कि, आज पहले के जमाने की तरह हमारे घरों में, हमारे आंगन में, खेतों में गौरैया मंडराती नजर नहीं आती है। गौरैया ने अब हमारे घर-आंगन में गुनगुनाना बंद प्रायः सा ही कर दिया है। रिपोर्ट्स बतातीं हैं कि भारत में साठ फीसदी के लगभग हाउस स्पैरो कम हो गई हैं, जो कि बहुत ही चिंतनीय है। रॉयल सोसाइटी फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड के कुछ समय पहले किए गए सर्वे के मुताबिक, पिछले 40 सालों में दूसरे पक्षियों की संख्या बढ़ी और गौरैया घटी है। रॉयल सोसाइटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स (आरएसपीबी), यूके ने घरेलू गौरैया को अपनी लाल सूची में शामिल किया है (तेजी से घटती पक्षी आबादी के लिए, जो वैश्विक संरक्षण चिंता का विषय है)। दुनियाभर में गौरैया की 26 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से 5 भारत में देखने को मिलती हैं।
वे लिखते हैं कि, मैं यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि वर्ष 2012 में गौरैया को दिल्ली का राज्य पक्षी घोषित किया गया था। गौरैया को लगभग हर तरह की जलवायु पसंद होती है लेकिन पहाड़ी स्थानों में यह कम दिखाई देती है। इसके पसंदीदा भाग मैदानी ही हैं। गौरैया एवियन प्रजाति का पक्षी है जिसे अभी भी दुनिया की दो-तिहाई भूमि की सतह पर देखा जा सकता है, लेकिन यह संवेदनशील व चिंतनीय है कि पूरे भारत और दुनिया भर से इन पक्षियों की आबादी में तेजी से गिरावट की खबरें आ रही हैं। यह यूरोप और एशिया के विभिन्न शहरों, कस्बों, गाँवों, और खेतों के आसपास यह बहुतयात से पाई जाती है। वास्तव में गौरैया एक सामाजिक पक्षी है जो मनुष्य के इर्द गिर्द, चारों और रहना पसंद करता है। गौरैया ज्यादातर उन जगहों पर अपना घोंसला बनाती है, जहां उसे ज्यादा से ज्यादा सपोर्ट मिल सके। इनमें दीवार, खोखले हो चुके पेड़ (कोटर), स्ट्रीट लाइट, कच्चे घर, झाड़ियां, गहरे छोटे पेड़, पुराने आले अथवा रोशनदान, खिड़कियां, पुराने दरवाजे,मकान आदि शामिल हैं।
उन्होंने बताया कि, गौरैया पर्यावरण संतुलन में अहम रोल निभाती है। गौरैया अपने बच्चों को अल्फा और कटवर्म नाम के कीड़े खिलाती हैं। ये कीड़े फसलों के लिए बेहद खतरनाक होते हैं। ये फसलों की पत्तियों को खाकर उन्हें खत्म कर देते हैं। इसके अलावा, बारिश में दिखाई देने वाले छोटे कीड़े भी गौरैया खाती हैं।इस प्रकार से यह किसानों के लिए एक प्रकार से मित्र भी है।
वे बताते हैं कि, वैसे, गौरैया पासेरीडे परिवार की सदस्य है। ये झुंड में रहना पसंद करतीं हैं और सर्वाहारी हैं। वे बीज, कीड़े, जामुन और अन्य फल खा सकते हैं। इनकी उड़ान की गति आम तौर पर 24 मील प्रति घंटे होती है जिसे आपात स्थिति में 31 मील प्रति घंटे तक बढ़ाया जा सकता है। शिकारियों से बचने के लिए ये तैराकी का प्रदर्शन कर सकतीं हैं। गौरैया आमतौर पर सर्वाहारी होती हैं लेकिन गौरैया के पसंदीदा भोजन में मिलो, सूरजमुखी के बीज और बाजरा जैसे बीज शामिल हैं। वे कीड़े और कुछ फसलें भी खा सकते हैं। इनकी उम्र चार से पांच साल होती है। आज गौरैया के लिए किचन गार्डन की अनुपलब्धता, घौंसले बनाने के स्थानों में कमी, एक विशेष लार्वा (हेलिकोवर्पा आर्मिगेरा) की अनुपलब्धता कुछ विशेष कारण हैं, जिनके कारण इस सामाजिक पक्षी की जान पर बन आई है। आज पैकेटों में बीज उपलब्ध होने लगे हैं, पहले गांव-शहरों में एक फली विशेष के टूट जाने पर उससे गौरैया के खाने के लिए लार्वा निकलते थे, जो कि आजकल बंद पैकेटों के कारण खरीदी नहीं जाती है। आज लार्वा गायब हैं और गौरैया वंचित हो गई है।
उन्होंने बताया कि, वास्तव में, आज घरेलू गौरैया की गिरावट भारत तक ही सीमित नहीं है। बकिंघम पैलेस, मध्य लंदन में सबसे समृद्ध वन्यजीव क्षेत्र के रूप में प्रतिष्ठित है, इसकी गौरैया की आबादी शून्य हो गई है। यूके (यूनाइटेड किंगडम) के ग्रामीण क्षेत्रों में भी बहस समय पहले 58 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी। नर गौरैया के सिर का ऊपरी भाग, नीचे का भाग और गालों पर पर भूरे रंग का होता है। अलग अलग भाषाओं में गौरैया को अलग अलग नामों से जाना जाता है जैसे तमिल और मलयालम में कुरूवी, तेलगू में पिच्युका,कन्नड़ में गुब्बाच्ची, गुजराती में चकली, मराठी में चिमानी,पंजाबी में चिड़ी, बांग्ला में चराई पाखी, उड़िया में घरचटिया, सिंधी में झिरकी, उर्दू और राजस्थानी में चिड़िया, कश्मीरी में चेर के नाम से जाना जाता है।
उन्होंने बताया कि, इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि इनकी संख्या आंध्रप्रदेश में 80% तक कम हुई। केरल, गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों में इसमें 20 फीसदी तक की कमी देखी गई है। गौरैया ज्यादातर छोटे पेड़ों, पुलों और झाड़ियों में घोंसले बनाना पसंद करती है। पेड़ों में बबूल, नींबू, अमरूद, अनार, मेंहदी, बांस और कनेर शामिल हैं। आज बढ़ती आबादी, शहरीकरण, बढ़ते औधोगीकरण, खेती में अंधाधुंध कीटनाशकों का प्रयोग, मोबाइल टावर्स आदि के कारण धीरे-धीरे इनकी तादाद भी कम हो रही है। दूसरी जगहों पर घोंसला बनाने पर इनके बच्चों को बिल्ली, कौए, चील,सांप और बाज आदि खा लेते हैं। पहले लोग अपने घरों के आंगन में इन पक्षियों के लिए दाना और पानी रखते रखते थे। समय के साथ आज उसमें भी अभूतपूर्व कमी आई है। आज शहर हो या गांव पक्षियों के लिए दाना पानी डालने की परंपरा भी लगातार कम होती चली जा रही है। आधुनिकता की आड़ में हम हमारी परंपराएं, संस्कृति, पशु-पक्षियों को पुण्य करना आदि को भूल गए हैं। आजमानव ने खुद को प्रकृति से इतना दूर करना शुरू कर दिया है कि गौरैया के लिए अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो गया है। केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय का भी मानना है कि देशभर में गौरैया की संख्या में निरंतर कमी आ रही है। अकेले भारत में ही नहीं पश्चिमी देशों में भी इनकी आबादी घटकर खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है।गौरैया की तेजी से घटती आबादी को देखते हुए इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर ने 2002 में इसे लुप्तप्राय प्रजातियों में शामिल कर दिया गया था। हम इस पक्षी को बचा सकते हैं। इसके लिए हम संकल्प लें और गौरैया संरक्षण की दिशा में काम करना शुरू करें कि हमें किसी भी हाल में गौरेया पक्षी को बचाना है, इसका हर हाल में संरक्षण करना है और अपने घर की छत पर या किसी ऐसी जगह पर जहां पक्षियों के आने की संभावना होती है, वहां मिट्टी के बर्तन में(सकोरे में) आवश्यक रूप से पानी और गौरैया के लिए दाना अवश्य रखें। साथ ही कोई ऐसी जगह हम उनके लिए छोड़ सकते हैं जहां वे आज़ाद होकर अपना घोंसला बना सकें। गौरैया एक पक्षी मात्र ही नहीं है, यह मानव जीवन का अभिन्न अंग है और हमें इसे बचाने के लिए एक दिन ही नहीं बल्कि हर दिन जतन करना होगा। आज भी हमारे गांव के खेतों में पक्षियों को भगाने के लिए 'स्केयर क्रो' का उपयोग किया जाता है, वास्तव में हमें इन्हें 'केयर क्रो' में बदलना होगा। हमें जंगलों की रक्षा करनी होगी। जंगलों को हम लगाकर काटेंगे तो इनमें अधिवास करने वाले जीव-जंतु,पक्षी आखिर कहां जायेंगे ?
अंत में स्वतंत्र लेखक व युवा साहित्यकार- 'सुनील कुमार महला' लिखते हैं कि, "वास्तव में, आज बढ़ती मॉडर्न टेक्नोलॉजी, औधौगिकीकरण, प्रदूषण ने चिड़ियों का सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। गौरैया की आबादी में 60 से 80 फीसदी तक की कमी आई है। यदि इसके संरक्षण के उचित प्रयास नहीं किए गए तो हो सकता है कि गौरैया इतिहास का पक्षी बन जाए और भविष्य की पीढ़ियों को यह देखने को ही न मिले अथवा किताबों में ही देखने को मिले। अतः हमें यह चाहिए कि हम ऐसे पेड़ों को लगाएं जहां उनको भोजन, अधिवास भी मिल सके। हम उनके लिए दाना-पानी का प्रबंधन व व्यवस्था करें। गौरेया के लिए घोंसले बनाए जा सकते हैं।
अतः आइए हम सब पर्यावरण संरक्षण और पक्षियों के संरक्षण में अपना योगदान अवश्य दें और इस धरती, यहाँ के पर्यावरण को खुशहाल व समृद्ध बनाएं।
(फोटो) सुनील कुमार महला
(फोटो साभार- RKalert / मल्टी मीडिया)
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