संसदीय समितियों की कानून निर्माण में भूमिका: रघु ठाकुर
सेना के एक उच्च अधिकारी ने बहुत पीड़ा के साथ मुझसे कहा था कि, "हमारे देश के सांसद राष्ट्रभक्त नहीं है": रघु ठाकुर
भोपाल: संसदीय समितियों और उनकी भूमिका पर लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक - रघु ठाकुर ने अपनी विशेष प्रस्तुति में कहा कि, संसद की स्थाई समिति जो ‘‘ड्रग कंसल्टेटिव कमेटी’’ भी है ने अपनी 54 वीं रिपोर्ट में कहा कि, अगर कोई दवा कम्पनी एन.पी.पी.ए. (नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथाॅरिटी) के द्वारा दाम तय करने के बाद भी अधिक दाम पर दवा बेचते है तो भी इन कम्पनियों का लाइसेन्स रद्द नहीं होगा, केवल उन पर जुर्माना लग सकता है। और अगर वे जुर्माना नहीं दे तब उनके लाइसेंस को रद्द करने पर विचार किया जाए। कमेटी ने यह भी कहा कि, ड्रग एन्ड काॅस्मेटिक रूल में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि लाइसेंस रद्द किया जाए।
स्थाई समिति की यह व्याख्या देश के आम आदमी के लिए एक खतरनाक संकेत है। एक तो अपनी सिफारिश से संसदीय समिति नेशनल फार्मास्यूटिकल लाइसेंस अर्थाेरिटी को (जो दवाओं के मूल्य तय करने वाली एक वैधानिक और अधिकृत संस्था है) अवैधानिक तरीके पीछे दरवाजे से अधिकार शून्य घोषित कर दिया है। दाम तय करने वाली अथाॅरिटी को स्वाभाविक रूप से यह अधिकार हेाता है व होना चाहिये कि, वह न केवल दाम तय करे बल्कि निर्धारित किए गए दामों से अधिक में दवा बेचने वाले अपराधी कम्पनियों को दण्डित भी करें। संसदीय समिति इस अर्थ में अपनी सीमाओं से बाहर चली गई है या फिर उसने अपनी भूमिका को त्याग दिया है। इसके पहले ‘‘ड्रग टेक्निकल एडवाइज़री बोर्ड’’ ने भी लाइसेंस रद्द करने से इंकार किया था। हालांकि यह टेक्निकल बोर्ड केवल सलाहकार मात्र है और दूसरे शब्दों में यह एक अधिकारियों की संस्था भर है। जो अधिकारी आम तौर पर अपवाद छोड़ दें तो सत्ता के इसारे पर ही चलते है, परन्तु संसद की स्थाई समिति एक अर्थ में मिनी संसद जैसी है, जो संसद के द्वारा प्रदत्त अधिकारों से शक्ति सम्पन्न है। संसदीय समितियों का गठन और कल्पना इसलिए की गई थी कि, संसद सभयाभाव में या फिर सांसदों के औपचारिक भाषणों की इच्छा के कारण महत्वपूर्ण सवालों पर गहराई और बारीकी से विचार विमर्श नहीं कर पाती। इसलिए ये संसदीय समितियां बैठकर एक मिनी संसद के रूप में महत्वपूर्ण सवालों पर विशेषतः जिन्हें संसद या सरकार उन्हें भेजती ,है उन पर गंभीरता से चर्चा करें और राष्ट्रहित में कानून की व्याख्या व कानून में सुधार या नए कानून के निर्माण की संस्तुती करें।
आजादी के बाद के संसदीय जीवन के आरंभिक तीन दसकों में संसदीय समिति की भूमिका प्रभावी या महत्वपूर्ण नहीं थी। परन्तु पिछले कुछ दसकों से न केवल भारत में, बल्कि दुनिया के अन्य लोकतंत्र की सरकारों में भी इस आवश्यकता को देखते हुए संसदीय समितियों का चलन सुरु हुआ और जिसे भारत की संसद ने भी स्वीकार किया।
दरअसल संसदीय समितियों की भूमिका इस बात पर निर्भर करती है कि संसदीय समितियों के माननीय सदस्य किस विचार के है? मुझे स्मरण है कि 1994-95 में जब भारत के प्रधानमंत्री स्व. पी.वी. नरसिंह राव थे और विदेश मंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह जी थे, तथा दोनों चाहते थे कि, बीमा के क्षेत्र में विदेशी पूँजी निवेश को स्वीकृति प्रदान की जाए। जब इस उद्देश्य के लिए संसद में प्रस्ताव लाया गया तो संसद ने उसे पहले संसदीय समिति के पास विचारार्थ भेजने का आग्रह किया। यह सुविदित है कि, वैश्विकरण या उदारवाद को अधिकृत और औपचारिक तौर पर देश में लाने वाले तथा डब्लू.टी.ओ. के समझोते पर हस्ताक्षर करने वाली जुगलबंदी स्व. नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की थी। इन दोनों महानुभावों की वैश्विकरण के प्रति प्रतिबद्धता जग जाहिर है। वे बीमा के क्षेत्र में भी विदेशी पूँजी निवेश के लिए प्रतिबद्ध थे। इसके बावजूद भी उन्होंने संसद में प्रतिपक्ष द्वारा किए गए विरोध का सम्मान करते हुए इस विषय को संसदीय समिति के पास विचारार्थ भेजा। उस समय इस संसदीय समिति के अध्यक्ष सी.पी.आई. के राज्यसभा सदस्य स्व. चतुरानन मिश्र थे और भाजपा की श्रीमति सुशमा स्वराज इसकी सदस्य थी। इस समिति ने बीमा के क्षेत्र में विदेशी पूँजी निवे-रु39या पर चर्चा के लिए विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को भी आमंत्रित किया था। उस समिति द्वारा मुझे भी बयान देने को आमंत्रित किया था। मैंने समिति के समक्ष अपने तर्काें के साथ बीमा के क्षेत्र में विदेशी पूँजी निवेश से क्या नुकसान और संभावित खतरे हो सकते हैं, इन्हें विस्तार से प्रस्तुत किया था। संसदीय समिति ने इन तर्काें को स्वीकार किया और बीमा के क्षेत्र में एफ.डी.आई. को स्वीकृति नहीं देने की संस्तुति की। जब संसद में समिति की रिपोर्ट पेश की गई तो इस बहस में श्रीमती सुशमा स्वराज ने मेरे नाम और तर्काें का उल्लेख करते हुए प्रस्ताव का विरोध किया तथा भारत सरकार, तत्कालीन प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री जो भारत की तरफ से डब्लू.टी.ओ. के हस्ताक्षरी थे, ने बीमा के क्षेत्र में एफ.डी.आई. लाने के प्रस्ताव को स्थगित कर दिया। यह जहाँ एक तरफ सांसदों की वैचारिक और राष्ट्रीय प्रतिबद्धता का प्रमाण है, वही दूसरी तरफ सरकार के भी याने तत्कालीन प्रधानमंत्री के लोकतांत्रिक भावनाओं और परम्पराओं के प्रति सम्मान का प्रमाण है। ऐसी और भी घटनाएं उल्लेखित की जा सकती है।
परन्तु कालांतर में जहां सरकारों पर लोकतांत्रिक संवेदनशीलता में कमी आई, वहीं सांसदों के जीवन में भी चारत्रिक और वैचारिक गिरावट आई है। मुझे यह भी घटना याद है कि, श्री राज बब्बर जो रक्षा संसदीय समिति के सदस्य थे। हथियारों की गुणवत्ता और राष्ट्रीय सुरक्षा की स्थिति पर विमार्श के लिए संसदीय रक्षा समिति की बैठक तय की गई थी। जिसमें सेना के जनरल को भी प्रस्तुतिकरण के लिए आमंत्रण किया गया था और सैन्य अधिकारियों ने बहुत मेहनत के साथ अपने विषय की तैयारी की थी तथा राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टिकोण से हमारी क्या सामरिक तैयारी है, हमारे हथियारों की क्या स्थिति है, क्या कमी है, क्या आवश्यकता है, आदि विषयों पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ तैयार किया था।
परन्तु उसी दिन तत्कालीन कांग्रेस सांसद श्री राज बब्बर को मुंबई में किसी शादी या निजी कार्यक्रम में जाना था और उनकी पहल पर समिति के अध्यक्ष ने कुछ ही मिनिट में सांकेतिक बैठक कर उसे स्थगित कर दिया, ताकि वे निजी कार्यक्रम में भाग ले सकें।शायद इतनी खानापूर्ति इसलिए जरूरी थी कि, भत्ता और विमान के टिकिट आदि के औचित्य को सिद्ध किया जा सके। संसदीय समिति की बैठक के स्थगन का समाचार छोटा सा उस समय के अखबारों में आया था और सेना के एक उच्च अधिकारी ने मुझे बहुत पीड़ा के साथ इस घटना की जानकारी थी।
उन्होंने तो यह भी कहा था कि, हमारे देश के सांसद राष्ट्रभक्त नहीं हैं। और उसके बाद सैन्य अधिकारियों, व रक्षा विभाग ने संसदीय समिति को गंभीरता से लेना कम कर दिया।
मैंने इस घटना की सूचना संसद के तत्कालीन भाजपा और कांग्रेस के अध्यक्षों को दी थी और उनसे अनुरोध किया था कि वे समितियों और संसदीय समितियों तथा संसद में अपने सदस्यों की कार्यात्मक भूमिका का सामाजिक आंकलन कराए एवं तदानुसार उनका भविष्य तय करें।
परन्तु मेरा यह पत्र लगभग अनसुना रह गया।
स्व. वाजपेयी जी ने मुझे फोन पर अपनी पीड़ा और मेरे सुझाव के साथ सहमति व्यक्त की थी। हालांकि वह अपने दल के सदस्यों के संसदीय आचरण में कोई बदलाव नहीं ला पाए। कांग्रेस अध्यक्ष ने तो औपचारिक उत्तर देने का भी कष्ट नहीं किया। कितना विचित्र हाल हमारे संसदीय लोकतंत्र का है कि, अगर कोई सांसद अपने दल के ताकतवर नेता के खिलाफ एक शब्द कह दे तो उसका सारा राजनैतिक जीवन नष्ट हो जाए, परन्तु अपने वतन के खिलाफ आप कुछ भी गुनाह करे पर वह राजनैतिक दलों की परिभाषा में अपराध नहीं है। संसद के समान ही इस प्रकार का संसदीय परम्पराओं का पराभाव विधान सभाओं में भी आया है।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जी लालू प्रसाद सरकार के एक मंत्री श्याम रजक जो अब राजद छोड़कर जदयू में शामिल हो गए है की शादी में मुंबई जाने के लिए विधानसभा का सत्र ही असमय स्थगित कर दिया गया था। यह भारतीय लोकतंत्र की स्थिति है। 1999 - 2000 में म. प्र. विधानसभा ने सोम डिस्टिलरी से निकलने वाले अपव्यय से होने वाले प्रदूषण और बदबू कि जाँच के लिए एक विधायकों की समिति का गठन किया था। भोपाल रायसेन मार्ग से जाने वाला शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने इस दुर्गन्ध का जायजा न लिया हो। परन्तु विधायक समिति ने अपनी रपट में सोम डिस्टिलरी को दोष-मुक्ति का प्रमाण पत्र दे दिया। इसके लिए सोम डिस्टिलरी ने क्या कीमत दी या नहीं दी वह तो वही बता सकते है। परन्तु उस समिति की रपट म. प्र. की विधानसभा के ग्रंथालय में सुरक्षित रहेगी और विधायकों के लोकतांत्रिक अपराध की सनद रहेगी।
संसद की स्थाई समिति ने यह तर्क देकर कि निर्धारित दरें जिन्हें एन.पी.पी.ए. तय करता है कीमत से ज्यादा दामों पर बेचने वाली कंपनियों का लाइसेंस रद्द नहीं किया जा सकता समिति ने घोर अपराध किया है। और एक प्रकार से अपनी जननी संसद के कानून के अवज्ञा की सिफारिश की।
दुखद यह भी है कि, इन समितियों में लगभग सभी बड़े दलों के सदस्य कम या ज्यादा संख्या में होते है।
परन्तु प्राप्त सूचना के अनुसार किसी भी दल के सदस्य ने इसके खिलाफ अपना अभिमत दर्ज नहीं कराया और दवा उद्योगपतियों के समक्ष देश की सरकार और संसद को, कानून और नियमों को असहाय सिद्ध कर दिया। जबकि संसदीय इतिहास में कई बार संसदीय समितियों ने वर्तमान कानून को बदल कर नए कानूनों के निर्माण तक की संस्तुति की है और उनकी सिफारिश पर नए कानून बने है। यह भारतीय लोकतंत्र, संसदीय परंपराओं और सांसदों के वैचारिक गिरावट और पतन की रपट है। मैं भारत सरकार, माननीय अध्यक्ष लोकसभा एवं संसदीय शक्ति वाले राजनैतिक दलों के अध्यक्षों, मुखियाओं से अपील करूॅगा कि:-
1. संसद की स्थाई समिति की 54वीं बैठक की रपट को संसद में खारिज करायें।
2. भारत सरकार सर्वदलीय बैठक आमंत्रित करे तथा निर्धारित दरों से अधिक दाम पर दवा बेचने वाली कंपनियों के लाइसेंस रद्द करने, उनके मालिकों को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में गिरफ्तार करने, तथा ज्यादा लिए गए दामों को उनसे वसूलकर उसे प्रधानमंत्री कल्याण निधि में जमा करने का कानून संसद में पास कराए।
3. इस संसदीय समिति के सदस्यों के दलों के नेता उनसे ऐसी अपराधिक रपट देने के लिए कार्यवाही करें।
अन्त में, कहना चाहूॅगा कि देश की जनता और मतदाताओं को सोचना होगा कि कैसे प्रतिनिधियों को उन्हें चुनना चाहिए। अगर वह केवल पैसे के मालिकों या पैसा बाँटने वालों को चुनेंगे तो यही हालात रहेंगे। बदलना चाहते है तो उन्हें पहले खुद को बदलना होगा।
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