कई सवाल खड़े करता है क्रिकेट में सरकार की घुसपैठ को लाइसेंस
सरकारी वोटों को बरकरार रख कर सुप्रीम कोर्ट ने संबंधित मंत्रालय के मंत्रियों और नौकरशाहों के लिए वोट के जरिए बीसीसीआई में अपना प्रभाव को बनाए रखने का रास्ता खुला रखा है.
नयी दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट का रुख पिछले कुछ समय में बदला है, यह उनके गुरुवार को दिए फैसले में नजर आता है. अपने ही चीफ जस्टिस राजेंदर मल लोढ़ा कमेटी की सिफारिशों को कमजोर करके स्वीकार करना काफी लोगों के लिए परेशान करने वाला फैसला है. वो लोग, जो उम्मीद लगाए बैठे थे कि लोढ़ा कमेटी की सिफारिशें बदलाव के बिना मंजूर कर ली जाएंगी.
हालांकि इस फैसले में लोढ़ा कमेटी की सिफारिशों में तमाम अहम बातें मानी हैं. गुरुवार को दिए अपने आखिरी आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय क्रिकेट बोर्ड में चले आ रहे चंद अधिकारियों के सालों से कब्जे को खत्म किया है. लेकिन उसने एक स्वायत संस्था में सरकार की घुसपैठ को बरकरार रख कर कई सवाल खड़े कर दिए हैं.
क्या है बड़ा सवाल
तीन सदस्यीय लोढ़ा कमेटी ने रेलवे, सर्विसेज और यूनिवर्सिटीज के वोट को खत्म करने की सिफारिश की थी. इसके पीछे कारण था कि बीसीसीआई जैसी स्वायत संस्था में सरकार को तीन वोट नियंत्रित करने की इजाजत नहीं होनी चाहिए.
तकनीकी तौर पर रेलवे का वोट रेल मंत्रालय का है. सर्विसेज के वोट का मालिक रक्षा मंत्रालय है और यूनिवर्सिटीज एचआरडी मिनिस्ट्री को जवाबदेह है.
यह सही है कि रेलवे ने भारतीय क्रिकेट को पुरुष और महिला क्रिकेट में कई अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी दिए हैं. जबकि थल सेना, वायु सेना और नौसेना यानी नेवी के क्रिकेटर सर्विसेज के लिए खेलते हैं. साथ ही यूनिवर्सिटीज का क्रिकेट युवाओं के इस खेल में भविष्य देखने में मदद करता है. लेकिन लोढ़ा कमेटी ने इन सरकारी तीनों संस्थाओं के क्रिकेट को नहीं छुआ था.
तीन वोटों पर रहेगा सरकार का कंट्रोल
यहां पर काफी विचित्र सी स्थिति हैं. सुप्रीम कोर्ट ने जिन सिफारिशों पर अपनी मुहर लगाई है, उनमें एक यह भी है कि कोई मंत्री या जनसेवक यानी पब्लिक सर्वेंट बीसीसीआई में पद नहीं ले सकता. लेकिन सरकारी वोटों को बरकरार रख कर सुप्रीम कोर्ट ने संबंधित मंत्रालय के मंत्रियों और नौकरशाहों के लिए वोट के जरिए बीसीसीआई में अपना प्रभाव को बनाए रखने का रास्ता खुला रखा है.
जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मंत्री या ब्यूरोक्रेट बीसीसीआई में पद नहीं ले सकता. लेकिन वह अपने वोट की ताकत का इस्तेमाल अपने किसी व्यक्ति की बोर्ड में नियुक्ति के लिए करना चाहे तो उसे कौन रोक सकेगा!
यहां यह तर्क भी दिया जा सकता है कि यह पहले भी होता था. लेकिन उस समय स्थित अलग थी क्योंकि कई केंद्रीय मंत्री बीसीसीआई में थे. लेकिन ताजा स्थिति के बाद इन तीन वोट का इस्तेमाल पूरी तरह से बदल गया है.
वन-स्टेट-वन वोट के पीछे ये थी वजह
इन तीन वोटों को खत्म करने के पीछे लोढ़ा कमेटी का तर्क था कि इससे किसी एक पार्टी के पक्ष में लॉबी को खत्म करने में मदद मिलेगी. इसलिए वन-स्टेट-वन वोट की बात कही गई.
वेस्ट जोन के वोटों को भी खत्म करने के पीछे यही सोच थी. इसलिए गुजरात से वड़ौदा और सौराष्ट्र के वोट को खत्म करके सिर्फ गुजरात के ही वोट को रखने की सलाह दी गई थी. वोट को रोटेशन में इस्तेमाल का भी आइडिया था.
इसी तरह महाराष्ट्र का अपना वोट था जबकि मुंबई और विदर्भ को भी वोट डालने का अधिकार था जिसे लोढ़ा कमेटी ने खत्म करने की सलाह सुप्रीम कोर्ट को दी थी.
वेस्ट के वोट थे निर्णायक
अभी तक के बोर्ड के इतिहास में झांकने पर साफ दिखाई देता है कि जो भी दिग्गज वेस्ट के वोट हासिल करने में कामयाब रहता था, बीसीसीआई पर उसका ही कब्जा हो जाता था.
यह स्थिति भी मजबूत हो जाती है अगर रेलवे, सर्विसेज और यूनिवर्सिटीज के वोट भी इस जोन से लड़ने वाला ग्रुप हासिल कर लेता है. जाहिर है कि इन वोटों के बारे में फैसला सत्ता में बैठा सबसे पावरफुल नेता ही करेगा. दूसरे शब्दों में उसकी मदद के बिना सत्ता में काबिज होना काफी मुश्किल है.
कोर्ट का यह फैसला इसलिए भी ऐतिहासिक रहा है क्योंकि रिव्यू पिटिशन के नामंजूर होने के बाजजूद 18 जुलाई 2016 को चीफ जस्टिस के फैसले में बदलाव किया गया था.
(साभार- फर्स्ट पोस्ट)
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