लहू बोलता भी है: आज़ाद ए हिन्द के मुस्लिम किरदार -अल्लामा मोहम्मद इक़बाल
आइये, जानते हैं आज़ाद ए हिन्द के मुस्लिम किरदार -अल्लामा मोहम्मद इक़बाल को,
अल्लामा मोहम्मद इक़बाल की पैदाईश 9 नवम्बर सन् 1877 को सूबे पंजाब के सियालकोट ज़िले में हुई। आपके वालिद शेखनूर मोहम्मद कारोबारी थे। आपका ख़ानदान कश्मीर से पंजाब आकर मुक़ीम हुआ था।
इक़बाल साहब ने अरबी और उर्दू की तालीम मदरसे से हासिल करके मिशनरी स्कूल (लाहौर) से मिडिल पास किया। उसके बाद आपने सन् 1899 में लाहौर से ग्रेजुएशन और फिलास्फी से एम.ए किया। उसके बाद आप फ़िलास्फी के टीचर हो गये। सन् 1904 में आपके लिखे एक तराने सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा से आपको अचानक शोहरत मिली। यह तराना सन् 1904 से आज तक मक़बूल है। यह तराना इत्तहाद मैग़ज़ीन में शाया हुआ था।
आपने सन् 1905 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से लॉ की डिग्री हासिल की। उसके बाद आपको द डेवलपमेंट ऑफ मेटाफिज़िक्स इन पर्शियन सब्जेक्ट पर जर्मनी की म्युनिख यूनिवर्सिटी से पी.एच.डी. की डिग्री हासिल हुई। इसी नाम से बाद में आपकी एक किताब भी शाया हुई।
आप लंदन यूनिवर्सिटी में 6 माह तक अरबी के टीचर भी रहे।
सन् 1906 में आप मुस्लिम लीग की लंदन यूनिट के मेम्बर बने। उसके बाद आपने स्वदेशी आंदोलन में हिस्सा लिया। आप सन् 1908 में भारत लौट आये और यहीं वकालत करने लगे।
आंदोलन के साथ-साथ आपकी शायरी दिनों-दिन लोगों की पसंद बनती गयी। शायरी में मिर्ज़ा गालिब के बाद इक़बाल की शायरी आम हिन्दुस्तानियों में एक अपना अलग मुक़ाम रखती है। अल्लामा इक़बाल मुस्लिम समाज की तालीम और पसमांदगी पर बहुत फिक्ऱमंद रहा करते थे। सन् 1926 में आप पंजाब लेजिसलेटिव एसेम्बली के मेम्बर चुने गये।
अल्लामा ने सन् 1931-1932 में सेकेंड राउंड टेबल कांफ्रेंस में हिस्सा लिया।
इक़बाल ने अपनी शायरी में महबूब से बात करने का अंदाज़ भी समाज के हर तबके, हर मज़हब, मुल्क की आज़ादी, मुसलमानों की फ़िक्र व सोच, हिन्दुओं की समाजी ग़ैरबराबरी, अंग्रेज़ों के ज़ुल्मों-ज़्यादती के हर मौंजू को गज़ल व गीत में ढालने का काम किया है। आपके कुछ मशहूर अशआर इस तरह हैं-
(1) लब पे आती है, दुआ बनके तमन्ना मेरी
जिंदगी शमा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी
(2) ज़ाहिदे-तंग नज़र ने मुझे काफ़िर जाना
और क़ाफिर ये समझता है मुसलमान हूं मैं
(3) आह शूद्र के लिए हिन्दुस्तां ग़म-ख़ाना है
दर्दे-इंसानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है।
(4) न समझोगे तो मिट जाओगे, ऐ हिन्दुस्तां वालो।
तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में’’
(5) कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा दुश्मन दौरे-ज़मां हमारा
(6) मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तां हमारा
आपने सन् 1930 में इलाहाबाद में हुई मुस्लिम लीग के कांफ्रेंस की सदारत की थी। इसी कांफ्रेंस में आपने अपनी तक़रीर में मुसलमानों की तालीम को फ़रोग़ देने और उनकी पसमांदगी दूर करने के लिए उनकी ख़ातिर कुछ खास सहूलियतें व हुकूक़ की मांग की, जिसका एक ग्रुप ने गलत मतलब निकालकर यह कहना शुरू कर दिया कि इक़बाल ने अलग मुल्क की मांग की है।
इसे बाद में आपने तरदीद करते हुए कहा कि मैंने मुस्लिम अक़सरियत वाले सूबों को एक सूबा बनाकर उनकी पसमांदगी व तालीमी बेदारी के लिए कुछ अलग रियायत व हकूक़ की मांग की है। मेरा मक़सद कोई अलग मुल्क बनाना नहीं है।
इस बारे में आपके बेटे जावेद इक़बाल, जो लाहौर-हाईकोर्ट में जज थे, ने कहा कि अल्लामा इक़बाल एक सच्चे मुसलमान और ता-जिंदगी हिन्दुस्तानी ही रहे।
उन्होंने कभी पाकिस्तान बनने की हिमायत नहीं की। अपनी बात की वज़ाहत करते हुए जावेद इक़बाल ने कहा कि उनके इंतक़ाल के नौ साल बाद पाकिस्तान वजूद में आया है। अल्लामा इक़बाल पैदा भी हिन्दुस्तान में हुए और वफ़ात भी हिन्दुस्तान में ही पायी।
अल्लामा इक़बाल इतनी खूबियों के मालिक थे कि उनके बारे में लिखने के लिए जगह कम पड़ जायेगी, लेकिन किस्से पूरे नहीं होंगे। 15 अगस्त सन् 1947 को जब हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ तो रात 12 बजे पार्लियामेंट में मौजूद सारे लोगों ने कोरस की तरह इक़बाल का तराना सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा गाया। तब से आज तक इस तराने की जगह कोई और नहीं ले सका।
21 अप्रैल सन् 1938 को अल्लामा इक़बाल ने इस दुनिया को अलविदा कहा।
महात्मा गांधी ने अल्लामा इक़बाल के इंतक़ाल पर दुःख ज़ाहिर करते हुए कहा कि मैं बड़ौदा जेल में था, तब इक़बाल साहब की नज़्म हिन्दुस्तां हमारा पढ़ी और पढ़ता ही चला गया।
मुझे याद नहीं कि मैंने कितनी बार इस नज़्म को पढ़ा व गाया होगा।
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