लखनऊ: अखिलेश से हाथ मिलाकर क्या कांशीराम का इतिहास दोहरा रही हैं मायावती!
पिछले साल राज्य सभा छोड़ने के बाद से मायावती राजनीति में उस तरह सक्रिय नहीं दिख रही हैं. लेकिन उन्होंने दूसरे दलों से हाथ मिलाने के संकेत जरूर दिए हैं.
लखनऊ, 05 मार्च 2018:
1991 की शुरुआत में जनता दल के विघटन के बाद उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के सामने कोई रास्ता नहीं था. कुछ महीने बाद, आम चुनाव में पी.वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में केंद्र में कांग्रेस सरकार की वापसी हुई. जबकि उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में पहली बार बीजेपी की सरकार बनी. उन्हीं दिनों जनता दल से टूट कर समाजवादी जनता पार्टी बनी. इसके नेता चन्द्र शेखर थे. वो बीजेपी को चुनौती देना चाहते थे. लेकिन मुलायम सिंह यादव की अलग योजनाएं थीं.
इटावा में लोकसभा चुनाव के दौरान जमकर हिंसा हुई थी. चुनाव में हेरफेर के आरोप लगे थे. लिहाजा नंवबर 1991 में यहां उपचुनाव कराए गए. इस सीट पर मुलायम सिंह यादव की तूती बोलती थी. लेकिन यहां चुनाव में बीजेपी और समाजवादी जनता पार्टी आमने-सामने थी.
दिलचस्प बात ये है कि इस सीट के जरिए बीएसपी के संस्थापक कांशी राम भी राष्ट्रीय राजनीति में आने की कोशिश कर रहे थे. उन्होंने भी यहां से उपचुनाव के लिए पर्चा भरा.
उस चुनाव को याद करते हुए मुलायम के एक करीबी ने कहा " मतदान के दिन हमें एहसास हुआ कि हमारे एजेंट बसपा के लिए वोट मांग रहे थे. हमारे बस्ते पर हाथी के वोट पड़ रहे थे''.
कई बार कोशिश करने के बाद कांशीराम पहली बार लोकसभा में पहुंचे थे. इस बीच मुलायम सिंह यादव का ओबीसी, दलित और मुसलिम वोट बैंक का प्रयोग भी सफल रहा.
एक साल बाद, अक्टूबर 1992 में मुलायम ने अपनी पार्टी बना ली. 1993 में राम मंदिर आंदोलन चरम पर था. इसी साल समाजवादी पार्टी और बसपा के गठबंधन ने बीजेपी को हरा दिया. समाजवादी पार्टी और बसपा ने राज्य में साझा सरकार बनाई.
10 साल के बाद बीएसपी को जीत मिली. उन दिनों का काफी लोकप्रिय नारा था 'मिले मुलायम कांसीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम'.
हालांकि सपा-बसपा गठबंधन ज्यादा दिन नहीं चला और सरकार पांच से पहले ही गिर गई. कांशीराम ने बहुचर्चितक गेस्टहाउस कांड के बाद समाजवादी पार्टी से समर्थन वापस ले लिया था. बीजेपी के समर्थन से मायावती को मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला.
दूसरी बार कांशीराम ने 1991 में चुनाव से पहले कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता, जिन्होंने उसी साल विधानसभा चुनाव जीता था, ने ये बात याद करते हुए कहा कि "बसपा के समर्थक ने ये सुनिश्चित किया था कांग्रेस को वोट मिले". लेकिन उनकी ओर से ऐसा नहीं हुआ.
बीएसपी के लिए ये एक सीख थी. बीएसपी ने इसके बाद कई साल तक चुनाव से पहले किसी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं किया. लेकिन इसके बाद से हालात बदल गए हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मायावती आखिरकार लोकसभा चुनाव से पहले किसी पार्टी के साथ गठबंधन करेंगी.
पिछले साल राज्यसभा छोड़ने के बाद से मायावती राजनीति में उस तरह सक्रिय नहीं दिख रही हैं. लेकिन उन्होंने दूसरे दलों से हाथ मिलाने के संकेत जरूर दिए हैं. कर्नाटक में मायावती ने जेडीएस के साथ हाथ मिलाया है. बसपा ने गोरखपुर-फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में सपा को समर्थन दिया है.
लेकिन क्या इसका मतलब ये है कि बीएसपी केंद्र में बीजेपी के खिलाफ एक बड़े राष्ट्रीय गठबंधन के लिए तैयार है? क्योंकि कोई भी दो चुनाव एक जैसे नहीं होते. चुनावी राजनीति में दो और दो मिलकर हमेशा चार नहीं होते हैं.
राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता. संभवतः चुनावों के करीब, मायावती अपने गुरु कांशी राम की तरह गठबंधन पर जरूर बड़ा फैसला करेंगी.
(सुमित पाण्डे)
(साभार: न्यूज़-18)
संपादक- स्वतंत्र भारत न्यूज़
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