EXCLUSIVE: राजस्थान उपचुनाव: जाति से ऐसे हार गई बीजेपी.
यूपी में यादवों और हरियाणा-पश्चिमी यूपी में जाटों के खिलाफ बाकी जातियों के लामबंद होकर वोट करने का पैटर्न दिखाई दिया है. अजमेर और अलवर उपचुनावों में भी कुछ-कुछ ऐसी ही तस्वीर उभर कर सामने आ रही है.
अजमेर से जीते कांग्रेस सांसद रघु शर्मा ये कहते हुए बिलकुल भी नहीं हिचकते हैं कि अजमेर-अलवर उपचुनावों में बीजेपी ही अपनी हार की जिम्मेदार है. अजमेर से ज़मीनी जाट नेता सांवरलाल जाट के बेटे रामस्वरूप लांबा को टिकट देना हो या फिर अलवर से 'कट्टर यादव' छवि वाले जसवंत यादव को मैदान में उतारना हो, दोनों ही दांव बीजेपी को उलटे पड़ गए. इन चुनावों में बेरोज़गारी, कम्युनल टेंशन, किसान कर्ज और गुर्जर आरक्षण जैसे मुद्दों पर वसुंधरा सरकार से नाराजगी दिखाई दी, लेकिन भीतर ही भीतर जातीय वर्चस्व के खिलाफ कमज़ोर जातियों ने भी एक स्पष्ट संदेश दिया है.
क्या यूपी-हरियाणा की राह चला राजस्थान
जातीय वर्चस्व के खिलाफ यूपी और हरियाणा में ऐसा होता नज़र आया है और अब राजस्थान में भी ये होता दिखाई दे रहा है. यूपी में यादवों और हरियाणा-पश्चिमी यूपी में जाटों के खिलाफ बाकी जातियों के लामबंद होकर वोट करने का पैटर्न दिखाई दिया है. अजमेर और अलवर उपचुनावों में भी कुछ-कुछ ऐसी ही तस्वीर उभर कर सामने आ रही है. स्थानीय पत्रकार सुरेंद्र जोशी भी इस पैटर्न की तस्दीक करते हैं और इससे संबंधित कई उदारण भी देते हैं. उनके मुताबिक राजस्थान में पिछले एक दशक से उन जातियों के खिलाफ अन्य जातियां लामबंद हो रहीं हैं जिनका प्रभुत्व रहा है.
बीकानेर लोकसभा में एक सीट है डूंगरगढ़, यहां इसे यूपी के बागपत इलाके की तरह जाटों का गढ़ माना जाता है. दौलतराम सारण और मंगलाराम गोदारा यहां से विधायक रह चुके हैं जो कि दोनों ही इलाके के बड़े जाट नेता के तौर पर जाने जाते हैं. यहां पर अब विधायक किशनाराम नाई चुनाव जीत रहे हैं जबकि इस सीट पर सिर्फ 2 हज़ार नाई वोट हैं. दौसा जिले में बस्सी सीट पर लगातार मीणा चुनाव जीतते हैं और बड़े मीणा नेता बनवारी लाल मीणा भी यहीं से जीतकर मंत्री तक बने. अब यहां अंजू धानका नाम की एक महिला निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत रही है. इस सीट पर धानका वोटर्स एक हज़ार भी नहीं है लेकिन अंशु दो बार से विधायक हैं.
इसी तरह नागौर जाट प्रभुत्व वाला इलाका है लेकिन यहां बीजेपी के टिकट पर दो मुस्लिम उम्मीदवार जीत रहे हैं. नागौर से हबीब उर रहमान और डीडवाना से युनुस खान. यहां लोग जातीय वर्चस्व को ख़त्म करने के लिए मुस्लिम उम्मीदवार चुनने से भी परहेज नहीं कर रही है. पूर्वी राजस्थान में गुर्जर और मीणा, पश्चिमी राजस्थान में राजपूत और जाट, दक्षिणी राजस्थान में आदिवासी (ST) और दूसरी जातियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई है जो पोलिंग बिहेवियर को भी प्रभावित कर रही है.
राव राजेंद्र सिंह राजस्थान विधानसभा के उपाध्यक्ष हैं वो शाहपुरा इलाके से जीतते हैं. इस सीट से दशकों तक जाट उम्मीदवार कमला बेनीवाल चुनाव जीतती रहीं. ये इलाका जाट डोमिनेंस वाला है राजपूत कम्युनिटी के यहां तीन हज़ार वोटर्स भी नहीं हैं. लेकिन जाटों के प्रभुत्व को चैलेंज देने के लिए बाकी सारी जातियां राव राजेंद्र के पीछे लामबंद हो जाती हैं. संवाई माधोपुर से दिया कुमारी को टिकट दिया गया था, ये मीणा डोमिनेंस वाला इलाका है और यहां से राजस्थान को किरोड़ी लाल मीणा जैसा नेता मिला है. लेकिन दीया कुमारी यहां से जीत गई क्योंकि मीणा प्रभुत्व के खिलाफ वोटिंग हुई.
दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर संभाग में मेवाड़ का जो इलाका है वहां हो रही भीललैंड नाम के अलग राज्य की मांग से भी इसे समझा जा सकता है. डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़ में बड़ी संख्या में भील जनसंख्या है. मध्य प्रदेश की तरफ मंदसौर और गुजरात में हिम्मतनगर के आस-पास के जिलों में भील आबादी का प्रभुत्व है. ये सारे इलाकों को मिलकर आदिवासी राज्य की मांग की जा रही है. असल में ज़्यादातर जगह ये देखने को मिला है कि जहां जो जाति डोमिनेट कर रही है उसी के खिलाफ अन्य जातियां लामबंद होकर वोटिंग करने लगी हैं.
राजस्थान में पोलिंग बिहेवियर काफी तेजी से बदला है और आप ये बदलाव यूपी और हरियाणा में साफ़-साफ़ देख सकते हैं. पहले सरकारों में ब्राह्मण और अन्य ऊंची जातियों का प्रभुत्व रहता था. इसके बाद एक समय आया जब इलाके में बड़ी संख्या में मौजूद जातियों ने आगे बढ़कर सरकारों पर कब्जा किया. फिलहाल जो बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है उसमें बड़ी और प्रभुत्वशाली जातियों के खिलाफ छोटी-छोटी जातियां एकजुट होकर वोटिंग कर रहीं हैं. इधर बीजेपी के ही लोग जैसे सुशील कटारा और देवेंद्र कटारा ही इस आंदोलन के साथ हैं. अब इससे वहां की अन्य जातियों खासकर जनरल कास्ट को लगने लगा है कि बीजेपी ही इस आग को लगाना चाहती है और बीजेपी का ये कोर वोट बैंक अब कांग्रेस की तरफ शिफ्ट होने लगा हैं.
क्यों हारे अजमेर
अजमेर का चुनाव इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, यहां पर बीते 25 सालों से बीजेपी की राजनीति सांवरलाल जाट तय करते थे. उनके निधन के बाद ये सीट खली हुई और उनके बेटे को दे दी गई. वहां बाकी जातियों में जो राय बनी वो यही थी कि पहले ही 25 सालों से जाट सत्ता में रहे हैं अगर अब इस 30 साल के लड़के को जिता दिया तो आने वाले 40 सालों तक इस सीट पर जाटों का ही कब्जा रहना तय है.
अजमेर के चार जिले केकड़ी, नसीराबाद, विजयनगर और नसीराबाद ऐसे इलाके हैं जिनके चारों तरफ जाट आबादी बड़ी संख्या में मौजूद है लेकिन केकड़ी में ही 35 हज़ार से ज्यादा वोटों से बीजेपी पीछे रही. यहां वोटिंग सरकार के रूखे व्यवहार से ज्यादा इलाके की प्रभुत्वशाली जाति के लड़कों का जो बाकी जातियों के लोगों के साथ व्यवहार रहा, उसके खिलाफ भी थी. इलाकों में प्रभुत्वशाली जाति के लड़कों का नाम हिंसा, लूटपाट, क़त्ल और लड़कियों से छेड़छाड़ की कई घटनाएं में सामने आया जिससे शहर का मध्यवर्ग खासकर वैश्य और ब्राह्मण वोटर्स नाराज़ हो गए. अजमेर में व्यापारी वर्ग के बीच एक जो सोच बन गई वो ये हैं कि बीजेपी वो पार्टी है जिसे उन्होंने वोट दिया, पैसा दिया और सपोर्ट किया उसने ही उनकी चिंता नहीं की. उपचुनाव से पहले जब सीएम अजमेर रैली करने गईं तो कोई भी बड़ा व्यापारी उनसे मिलने नहीं आया.
इलाके के आरटीआई एक्टिविस्ट और समाजसेवी यशवर्धन सिंह बताते है कि ओबीसी रिजर्वेशन के बाद से जाट सरकारी नौकरियों में दिखने लगे और सरकार में उनकी हिस्सेदारी होने का उन्हें फायदा भी मिला. उपचुनावों से ठीक पहले अजमेर में सोशल मीडिया पर एक लिस्ट वायरल की गई, जिसके मुताबिक यहां एमपी, एसपी, जिलों में कलेक्टर और 32 थानों में एसएचओ भी जाट थे. दलितों पर अत्याचार की घटनाओं में आरोपी जाट थे जिससे ये वोटबैंक भी दूर हो गया.
बता दें कि अजमेर जाट और गुर्जर बहुल इलाका है, हालांकि यहां मुस्लिम, राजपूत, ब्राह्मण, वैश्य और रावत समुदाय से जुड़े लोग भी बड़ी तादाद में हैं. बीजेपी के उम्मीदवार रामस्वरूप लांबा जाट समुदाय से आते हैं, वहीं पायलट गुर्जरों के नेता माने जाते हैं. ब्राह्मण और वैश्य बीजेपी के परंपरागत वोटर्स माने जाते हैं. हालांकि पायलट ने रघु शर्मा के जरिए इसी वोट बैंक में सेंध लगा दी. उधर कुख्यात गैंगस्टर आनंदपाल के एनकाउंटर से नाराज़ राजपूतों को भी पायलट ने अपनी तरफ मिलाने के लिए कई मुलाकातें की जिसका फायदा रिज़ल्ट में दिखाई भी दिया.
क्या हुआ अलवर में
अलवर में तो दोनों यादव उम्मीदवार थे लेकिन इलाके में जसवंत यादव की छवि 'कट्टर यादव' वाली है. इसके उलट डॉक्टर करण सिंह यादव की छवि 'सॉफ्ट' यादव वाली रही. कर्ण सिंह के पक्ष में बाकी जातियां भी लामबंद हुई जिसका फायदा करण सिंह यादव को हुआ और उन्होंने बीजेपी के जसवंत सिंह यादव को करीब 196496 वोटों के अंतर से हरा दिया. अलवर के मामले में तो यादव भी बंट गए क्योंकि दोनों तरफ वही थे और यादव समाज में एक सहमति ये बनी कि दिल्ली भी किसी यादव को भेजना है.
अलवर की जो मुस्लिम मेव कम्युनिटी है वो पहले से ही कांग्रेस के पक्ष में रही है. भंवर जिंतेंद्र सिंह की जगह जब प्रोग्रेसिव छवि वाले करण सिंह यादव को टिकट दिया गया तो उनके पीछे सभी मेव और यादवों का एक बड़ा हिस्सा लामबंद हो गया. करण क्योंकि अशोक गहलोत के गुट के माने जाते हैं इसलिए माली कम्युनिटी ने भी उन्हें ही वोट दिया. करण को पिछले एमपी जितेंद्र सिंह के किए गए काम का भी फायदा मिला. जितेंद्र ऐसे अकेले नेता थे जिन्होंने समझा कि छोटी-छोटी जातियों को साथ लेकर भी बड़े बदलाव को अंजाम दिया जा सकता है. उन्होंने नाथ संप्रदाय, नाई, खाती और कुम्हार जैसी जातियों के वोटों को अपने पक्ष में किया साथ ही एंटी यादव सेंटिमेंट को खूब भुनाया.
(साभार: न्यूज़ 18)
संपादक- स्वतंत्र भारत न्यूज़
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