असम के बाहरी नागरिक
अवैध बांग्लादेशियों के मुद्दे ने पिछले चार दशक में राज्य की राजनीति को प्रभावित किया है। मसौदा एनआरसी के बाद 40 लाख लोगों पर विस्थापन की तलवार लटक रही है। बी.एस. के निबिर डेका ने लिया जायजा.
क्या आपको वाई2के को लेकर मचा हंगामा याद है? 31 दिसंबर, 1999 की आधी रात को क्या होगा, इसे लेकर तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे थे। कुछ लोगों का कहना था कि कयामत आ जाएगी, तो कुछ कह रहे थे कि सभी कंप्यूटर उपकरण पूरी तरह ठप हो जाएंगे। लेकिन सही बात तो यह है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
1 जनवरी, 2000 की सुबह भी दूसरे आम दिनों की तरह सामान्य थी। कयासों का दौर भले ही जारी था लेकिन दुनिया के किसी भी कोने से किसी बड़ी घटना की खबर नहीं आई। यही बात राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) पर भी लागू होती है। उच्चतम न्यायालय ने असम के नागरिकों की पहचान के लिए एनआरसी का आदेश दिया था।
एनआरसी का पहला मसौदा 31 जुलाई को जारी हुआ। चेतावनी दी जा रही थी कि इससे असम में विभिन्न समुदायों के बीच खूनी संघर्ष शुरू हो जाएगा और इसकी आग दूसरे राज्यों में भी फैल सकती है। लेकिन असम में पूरी तरह शांति रही। यह सही है कि कुछ इस तरह की खबरें आई थीं कि मेघालय सीमा पर कुछ छात्र संगठन बसों को रोक रहे थे और यात्रियों से पहचान पत्र मांग रहे थे (शायद यह उगाही का नया तरीका था), लेकिन राज्य सरकार ने इसमें हस्तक्षेप किया और यह वसूली केवल दो घंटे में बंद हो गई। हालांकि बराक घाटी से तनाव की खबरें आईं लेकिन वहां बिना दस्तावेज वाले असमी लोगों की संख्या महज 40,000 थी, इसलिए तनाव की हवा निकल गई। जिन लोगों का नाम मसौदा एनआरसी में नहीं है, वे याचिकाएं दायर कर रहे हैं।
क्या है झगड़ा?
पहले आंकड़ों की बात। कुल 32,991,384 आवेदकों में से 4,007,708 लोगों को एनआरसी में जगह नहीं मिली है। गृह मंत्रालय और रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया कह चुके हैं कि जिन लोगों के नाम अंतिम मसौदे में नहीं होंगे, उन्हें निर्वासन का खतरा नहीं है। आप यह सवाल पूछ सकते हैं कि उन्हें कहां निर्वासित किया जाएगा क्योंकि ये कथित रूप से घुसपैठिए हैं (इनमें से अधिकांश मुस्लिम हैं) और बांग्लादेश से भारत में आए हैं। बांग्लादेश उन्हें अपना नागरिक नहीं मानता है।
राजनीतिक असर
असम के एक पत्रकार ने कहा, ‘एनआरसी को लेकर दिल्ली में तनात है, असम में नहीं। हर पार्टी एनआरसी को अपने फायदे के लिए भुनाना चाहती है। इसमें पहली चोट पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने की। उन्होंने आरोप लगाया कि यह असम की मुस्लिम आबादी को निशाना बनाने की भाजपा की रणनीति है। मौके की तलाश में बैठे भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने एनआरसी को बड़ी उपलब्धि बताते हुए इसकी तारीफ की और कहा कि यह 1985 के असम समझौते की भावना के अनुरूप है जिसमें असम में घुसपैठियों की पहचान की बात कही गई है।’
तृणमूल के नेताओं का दावा है कि एनआरसी की प्रक्रिया और इसके बाद सत्यापन की प्रक्रिया वोट बैंक की राजनीति है। दूसरे आलोचकों ने इसे एक समुदाय विशेष का सफाया करने की साजिश बताया। चुनावी राजनीति को अलग कर दिया जाए तो मुद्दा उस जमाने का है जब इनमें से अधिकांश नेताओं की कोई राजनीतिक प्रासंगिकता नहीं थी।
कैसे हुई शुरुआत
पूर्वी बंगाल और असम को हमेशा से ही पलायन और जनसांख्यिकीय रुझानों में बदलाव के लिए जाना जाता है। पूर्वी बंगाल से चाय बागान मजदूर और दूसरे लोग चरणबद्घ तरीके से असम पहुंचे। देश को आजादी मिलने के बाद सिल्हट जनमत संग्रह ने सबकुछ बदलकर रख दिया। यह जनमत संग्रह इस बात के लिए हुआ था कि सिल्हट असम में ही रहेगा और भारत का हिस्सा बनेगा या फिर पूर्वी बंगाल (उस समय पूर्वी पाकिस्तान) में शामिल होगा।
इसमें सिल्हट के पाकिस्तान में शामिल होने पर मुहर लगी, हालांकि बराक घाटी असम में ही रही। लेकिन पंजाब के विभाजन के उलट वहां से बहुत कम लोग पूर्वी पाकिस्तान लौटे और उन्होंने असम में ही रहने का फैसला किया। नागरिकों का डेटाबेस तैयार करने और अवैध प्रवासियों की पहचान के लिए असम में पहला एनआरसी 1951 में तैयार किया गया।
वर्ष 1971 में बांग्लादेश के गठन से पहले पूर्वी पाकिस्तान में आंतरिक अशांति के कारण भारत में शरणार्थियों की बाढ़ आ गई थी। असम की आबादी में भी यह बात स्पष्टï तौर पर दिखती है जिसमें 1951 से 1961 के बीच करीब 35 फीसदी की बढ़ोतरी हुई जबकि राष्ट्रीय जनसंख्या वृद्घि दर करीब 13 फीसदी थी। 1961 से 1971 के बीच राज्य की जनसंख्या में करीब 35 फीसदी बढ़ोतरी हुई। इसका मतलब यह था कि असम में शरणार्थियों की बाढ़ आ रही थी और इससे राज्य में व्यापक जनसांख्यिकीय बदलाव आ रहे थे। 1971 के बाद असम में मतदाताओं की संख्या में 50 फीसदी बढ़ोतरी हुई जिससे राज्य का राजनीतिक परिदृश्य बदल गया। इससे स्थानीय लोगों में रोष पैदा हुआ।
असम आंदोलन
असम आंदोलन के केंद्र में मुख्य रूप से यही गुस्सा था जो 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर के साथ ठंडा हुआ। इस समझौते पर भारत सरकार और असम आंदोलन के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किए थे। समझौते के मुताबिक 1951 से 1961 के बीच असम आने वाले सभी विदेशियों को मताधिकार सहित पूर्ण नागरिकता दी जाएगी। लेकिन 1971 के बाद आने वाले लोगों को निर्वासित कर दिया जाएगा। वर्ष 1961 से 1971 के बीच असम आने वाले बाहरी लोगों को 10 साल तक वोट देने का अधिकार नहीं दिया जाएगा लेकिन नागरिकता के दूसरे सभी अधिकार दिए जाएंगे। इस तरह एनआरसी के लिए 1971 को आधार वर्ष माना गया। एनआरसी को अपडेट करके उसमें उन लोगों (या उनके वंशजों) के नाम जोड़े गए जिनके नाम 1951 के एनआरसी में थे या फिर 24 मार्च, 1971 की आधी रात तक किसी मतदाता सूची में थे या फिर इस तिथि तक जारी किसी भी मान्य दस्तावेज में थे।
पलायन, भाषाई खाई
वर्ष 1971 से वर्ष 1991 के बीच असम में मुस्लिम आबादी में 77.3 फीसदी बढ़ोतरी हुई जिससे असम का धार्मिक स्वरूप बदल गया। हिंदू आबादी में भी निरंतर उल्लेखनीय वृद्घि हुई। हिंदुओं और मुस्लिमों की आबादी में तो बढ़ोतरी हुई लेकिन असमिया बोलने वाले लोगों की संख्या में कमी आई। इसलिए असम आंदोलन जातीय अस्मिता के साथ-साथ भाषाई पहचान के लिए भी था। इसका मकसद त्रिपुरा जैसी स्थिति से बचना था जहां पलायन से स्थानीय जनजातीय आबादी अल्पसंख्यक हो गई थी।
हिंदू बनाम मुस्लिम?
इस कहानी में एक और मोड़ आया। जिन जिलों में बांग्ला भाषा का वर्चस्व था वहां मुस्लिम आबादी बहुत तेजी से बढ़ी। असम आंदोलन के नेता अपनी लड़ाई को भाषाई संघर्ष मानते थे जिसमें कई मुस्लिम भी मारे गए। असमएकॉर्ड. असम.गव.इन द्वारा प्रकाशित असम आंदोलन के शहीदों के नाम में कई मुस्लिम नेता भी शामिल हैं जो इस संघर्ष में मारे गए। इस समस्या में धार्मिक रंग तब चढ़ा जब दूसरे देशों में धार्मिक अत्याचार से बचने के लिए भारत में शरण लेने वाले गैर मुस्लिमों को नागरिकता देने के लिए भाजपा सरकार ने नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 पेश किया। भाजपा को छोडक़र असम आंदोलन के सभी नेताओं ने इस विधेयक का विरोध किया। इस विधेयक को संसद की प्रवर समिति को सौंपा गया है। समिति के अध्यक्ष ने इसके लिए संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन तक विस्तार मांगा है। इससे यह मामला साल के अंत तक टल जाएगा। बजट सत्र 2019 के आम चुनावों से पहले संसद का आखिरी सत्र होगा, इसलिए नागरिकता (संशोधन) विधेयक का भविष्य अधर में है।
आगे का रास्ता
गृह मंत्रालय द्वारा मार्च में जारी एक अधिसूचना के मुताबिक अवैध रूप से भारत में आने वाले बांग्लादेशियों को वापस भेजने के लिए वहां की सरकार के साथ कोई विशेष संधि नहीं है। एनआरसी का काम पूरा होने के बाद अवैध घोषित किए गए लोगों के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा। इस बात की पूरी संभावना है कि ये लोग बांग्ला भाषी मुस्लिम ही होंगे। यही वजह है कि ममता बनर्जी इससे सबसे अधिक चिंतित हैं क्योंकि उन्हें पश्चिम बंगाल ही भेजा जाएगा। लेकिन अल्पसंख्यक कार्ड खेलने में उन्हें एक राजनीतिक संभावना भी दिखाई दे रही है। भाजपा भी इसे एक अवसर के रूप में देख सकती है और नागरिकता के मुद्दे को राष्ट्रवाद से जोड़ सकती है।
(साभार- बी.एस.)
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