फंसा हुआ कर्ज और अपवाद से जुड़ा उत्साह
अखबारी सुर्खियां फंसे कर्ज के निस्तारण के बारे में चाहे जो कहें लेकिन सरकारी बैंक फंसे कर्ज से जुड़े नित नए खुलासे कर रहे हैं। इस बारे में विस्तार से बता रहे हैं __ देवाशिष बसु
देश के नीति निर्माताओं और राजनेताओं द्वारा किए जा रहे आत्मप्रशंसा में लीन और मुखर ट्वीट्स और उन्हें मिल रहे मीडिया के समर्थन पर भरोसा करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि देश का दिवालिया कानून जबरदस्त रूप से सफल रहा। पहला जिक्र टाटा स्टील द्वारा भूषण स्टील के सफल अधिग्रहण का हो रहा है। टाटा स्टील ने 364 अरब रुपये की राशि चुकाई। भूषण स्टील पर करीब 560 अरब रुपये का बकाया था। टाटा के इस कदम से दिवालिया होने के कगार पर पहुंच चुके कुछ सरकारी बैंकों को लाभ हुआ। इनमें स्टेट बैंक भी शामिल है। इस घटनाक्रम को ऐतिहासिक बताकर प्रचारित किया गया। अगला बड़ा मामला एक और बड़ी स्टील कंपनी से जुड़ा हुआ था जिसे सरकारी बैंकों से गलत तरीके से ऋण लेकर पिछले दो दशकों से किसी तरह जिंदा रखा गया था।
एस्सार स्टील नामक इस कंपनी पर करीब 570 अरब रुपये का बकाया है जिसमें से अधिकांश राशि स्टेट बैंक समेत सरकारी बैंकों की है। इससे पहले मॉनेट इस्पात का अधिग्रहण जेएसडब्ल्यू स्टील ने किया और इलेक्ट्रोस्टील स्टील्स भी वेदांत के हाथ बिकने जा रही है। इस कंपनी को भी सर्वाधिक ऋण स्टेट बैंक ने दिया है। कुछ ऐसे मामले भी हैं जहां प्रवर्तकों ने अपना पैसा लगाकर अपनी परिसंपत्ति पर नियंत्रण करना चाहा या बोली की अर्हता पाई। बहरहाल यह सहज मानवीय प्रवृत्ति है कि कुछ दृष्टांतों के आधार पर यह मान लिया गया कि ऋणशोधन एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) फंसे हुए कर्ज का समाधान कर देगी और बैंक दोबारा अच्छी स्थिति में आ जाएंगे।
इस खुशनुमा तस्वीर के साथ दो दिक्कतें हैं। पहली, फंसे हुए कर्ज का आकार बहुत बड़ा है और उसमें निरंतर बढ़ोतरी हो रही है। दूसरा, सरकारी बैंकों का प्रबंधन ठीक नहीं है और इस दिशा में कुछ खास किया भी नहीं जा रहा है। एक उदार अनुमान के मुताबिक फंसे हुए कर्ज का आकार करीब 100 खरब रुपये है। अधिक विश्वसनीय अनुमानों (आरबीआई के पूर्व डिप्टी गवर्नर और इंडियन बैंक तथा पीएनबी के पूर्व चेयरमैन केसी चक्रवर्ती के अनुमान) के मुताबिक भी यह राशि 200 खरब रुपये तो है ही। स्टील की मांग इसलिए बढ़ी हुई है क्योंकि यह कारोबार फलफूल रहा है और कुछ बड़ी कंपनियां पैसे चुकाने की स्थिति में हैं। इससे ज्यादा से ज्यादा 10 खरब रुपये की राशि आएगी यानी उदार अनुमानों का 10 फीसदी या ठोस अनुमान के 5 फीसदी के बराबर।
यह सरकारी बैंकों में नया ऋण चक्र आरंभ करने के लिए पर्याप्त नहीं है। नीति निर्माता और टीकाकार भले ही अनदेखी कर दें लेकिन बाजार किसी चीज की अनदेखी नहीं करता। सरकारी बैंकों के शेयरों को लेकर कोई उत्साह नहीं नजर आता। अखबारी सुर्खियां फंसे कर्ज के निस्तारण के बारे में चाहे जो कहें लेकिन सरकारी बैंक फंसे कर्ज से जुड़े नित नए खुलासे कर रहे हैं। स्टील क्षेत्र की चुनिंदा सफलताओं को बानगी बनाकर हम एक चीज भूल रहे हैं कि आईबीसी के तीन संभावित निष्कर्ष हो सकते हैं। उनमें से पहला और तीसरा निष्कर्ष एकदम अलहदा है। पहला निष्कर्ष, बैंकों को अपने कर्ज में से बड़ा हिस्सा केवल उन्हीं कारोबारों से वापस मिल सकता है जो बड़े आकार के और व्यवहार्य हैं।
हमें इस्पात के क्षेत्र में अपवाद स्थिति नजर आ रही है क्योंकि वहां कारोबारी परिस्थितियां बहुत बेहतर हैं और खरीदार भारी पैसा चुकाने को तैयार हैं। आईबीसी का दूसरा निष्कर्ष यह है कि प्रवर्तक अपने कारोबार पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए फंसा कर्ज निपटाने सामने आ रहे हैं। उन्हें भय है कि नकदीकरण में वे कहीं संपत्ति से हाथ न धो बैठें। परंतु यह भी बहुत विसंगतिपूर्ण है। भारतीय मॉडल परियोजना की लागत बढ़ाने, पैसे को ठिकाने लगाने और बैंक से नया कर्ज मांगने का रहा है। अगर ऐसा बार-बार किया जाए तो मामला हाथ से बाहर निकल जाता है और प्रवर्तकों के पास न तो पैसा रह जाता है न ही अपनी ही अधिमूल्यित संपत्ति को वे निजी पैसे से खरीद पाते हैं।
यहीं पर बैंकों, निस्तारण पेशेवरों और कंपनियों के बीच सौदेबाजी होती है और प्रवर्तक किसी तरह नियंत्रण हासिल कर लेते हैं। जिन 12 कंपनियों की प्रधानमंत्री कार्यालय सीधी निगरानी कर रहा है उनमें से एक यही तरीका अपनाने की जुगत में है। आईबीसी का तीसरा निष्कर्ष छोटे और अव्यवहार्य कारोबारों से संबंधित है। वह है उन्हें समाप्त कर देना। बैंकों को उनका पैसा वापस मिलने की संभावना ही समाप्त। भूषण स्टील को लेकर सारे हो हल्ले के बीच याद रहे कि आलोक इंडस्ट्रीज जिस पर 300 अरब रुपये का कर्ज है (यहां भी एसबीआई सबसे बड़ा कर्जदाता), का नकदीकरण हो सकता है जिससे बैंकों को नाम मात्र की राशि मिलेगी। आपको कोई मंत्री, नौकरशाह या सलाहकार इन मामलों पर ट्वीट करता नहीं दिखेगा।
यानी संभव है कोई चरणबद्ध वसूली नहीं होगी। या तो बैंकों को ढेर सारा पैसा मिलेगा या फिर बहुत कम। एसबीआई चेयरमैन को यह कहते हुए बताया गया है कि उन्हें राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट के मामलों से दूसरे दौर में 25 फीसदी वसूली की अपेक्षा है। यह उन 12 मामलों से अलग है जिन पर प्रधानमंत्री कार्यालय की सीधी निगरानी है। यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि बैंकों को लाखों छोटे खातों से क्या मिलेगा। आईबीसी का असली लाभ यह है कि यह फंसे कर्ज का जल्दी निस्तारण सुनिश्चित कर सकता है। इसका इस बात से कोई लेनादेना नहीं है कि फंसे कर्ज के मामले में सरकारी बैंकों का नाम ही क्यों सामने आता है। हमें इस विषय को गंभीरता से निपटाना होगा ताकि यह सब दोहराया न जाए।
(साभार- बिजनेस स्टैण्डर्ड)
संपादक- स्वतंत्र भारत न्यूज़
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