सिंह बंधुओं का दरकता साम्राज्य
गलत फैसले, खराब रणनीति और कानूनी पचड़ों में सब स्वाहा.
नयी दिल्ली, 26 मार्च: एक मजबूत पहचान रखने वाले किसी कारोबारी समूह में तीसरी पीढ़ी के दो कारोबारी दिग्गज अगर 2.4 अरब डॉलर में अपनी प्रमुख कंपनी से नाता तोड़ते हैं तो यह किसी के लिए भी हैरान करने वाली बात होगी। वैसे आदर्श रूप में होना तो यह चाहिए था कि विरासत में मिली एक ठोस बुनियाद के साथ नकदी, कारोबारी मंत्र और अन्य सकारात्मक पहलुओं के साथ ये दिग्गज मजबूती से एक अच्छे कारोबारी भविष्य की नींव तैयार करते। लेकिन मालविंदर और शिविंदिर सिंह के मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ।
कारोबार आगे बढ़ाने के लिए सिंह बंधुओं के पास सभी आवश्यक संसाधन थे, बावजूद उन्होंने अपने दादा भाई मोहन सिंह और पिता परविंदर सिंह की विरासत को मटियामेट कर दिया। इन दोनों भाइयों के हाथ से पूंजी जाती रही और निवेश से जुड़े गलत फैसलों और खराब रणनीति और विभिन्न कानूनी पचड़ों में सब स्वाहा हो गया। हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने जापानी कंपनी दाइची सांक्यो द्वारा दायर 3,500 करोड़ रुपये के एक मध्यस्थता मामले में सिंह बंधुओं के शपथ पत्र में दी गई सभी चल संपत्तियां जब्त करने का आदेश दिया। इससे पहले सिंगापुर मध्यस्थता न्यायाधिकरण ने सिंह बंधुओं को कंपनी की बिक्री के समय महत्त्वपूर्ण जानकारियां छुपाने के लिए दायची को मुआवजा देने का आदेश दिया था। इसके बाद जापानी कंपनी बकाया रकम वसूलने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय गई थी। सिंह बंधुओं ने दाइची की इस पहल को चुनौती दी थी।
उच्च न्यायालय ने मध्यस्थता न्यायालय का निर्णय बरकरार रखा है और सिंह बंधुओं की जायदाद जब्त कर ली है। प्राइवेट इक्विटी कंपनी सिंगुलर गफ ऐंड कंपनी ने भी सिंह बंधुओं के खिलाफ मामला दायर किया है। दोनों भाइयों पर आरोप है कि उन्होंने रेलिगेयर से रकम निकाली थी। इसके बाद डेलॉयट ने वेंडरों को 5 अरब रुपये के असुरक्षित ऋण देने और प्रवर्तक से संबंधित कंपनी को इंटर-कॉर्पोरेट ग्रुप डिपॉजिट देने के लिए दोनों भाइयों के खिलाफ आगाह किया था।
मुसीबतें यहीं खत्म नहीं हुईं। साल 2014 में यूएसएफडीए ने दवा कंपनी रैनबैक्सी लैबोरेटरीज पर गाज गिराई थी। एफडीए ने तोआंसा (भारत) में कंपनी के विनिर्माण संयंत्र पर पाबंदी लगा दी। यह चौथा संयंत्र था, जिस पर 2008 के बाद एफडीए ने गुणवत्ता मानकों के उल्लंघन के कारण प्रतिबंध लगाया था। ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि दोनों भाइयों ने नया कारोबार खड़ा ही नहीं किया। 2008 में हिस्सेदारी बिक्री के बाद उन्होंने मॉरिशस में आरएचसी फाइनैंशियल सर्विसेस नाम की विशेष कंपनी (एसपीवी) बनाई थी, जिनसे उन्हें विदेश में परिसंपत्तियां खरीदने में आसानी होती। इसके तुरंत बाद एसपीवी ने फोर्टिस इंटरनैशनल (भारतीय कंपनी फोर्टिस हेल्थकेयर से अलग) साथ ही छह दूसरी कंपनियों पर नियंत्रिण स्थापित कर लिया। इन कंपनियों में श्रीलंका, हॉन्ग कॉन्ग, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर में तैयार एवं निर्माणाधीन अस्पताल शामिल थे।
सिंह बंधुओं ने दुबई में एक डॉयग्नॉस्टिक कारोबार भी तैयार किया था। इस बीच, भारत में फोर्टिस का कारोबार बढ़ता गया, जिसकी संख्या 2001 में 1 से बढ़कर 2011 में 66 हॉस्पिटल तक पहुंच गई। इनमें प्रतिस्पर्धी कंपनी वॉकहार्ट से खरीदे गए 10 अस्पताल भी शामिल थे। राह से भटकने का संकेत मिलना उस समय शुरू हो जाना चाहिए था जब कंपनी ने सिंगापुर के पार्कवे हॉस्पिटल्स में एक चौथाई हिस्सेदारी खरीदने के लिए 65 करोड़ डॉलर फूंक दिए। विरासत में मिले शेयरों की बिक्री से मिली नकदी के दम पर वे अपनी क्षमता से कहीं अधिक दांव लगा रहे थे। दोनों भाइयों से बातचीत करने वाले एक पूर्व कर्मचारी ने नाम सार्वजनिक नहीं करने की शर्त पर बताया कि दोनों भाइयों में कोई भी अधिक खर्च करने वाले या पार्टी आदि में शिरकत करने वाले नहीं थे। यानी व्यक्तिगत स्तर पर बेतहाशा खर्च करने जैसे कोई बात नहीं थी। उस कर्मचारी ने कहा, 'दोनों भाई शराब-सिगरेट कुछ भी नहीं लेते थे और शाकाहारी भी थे।'
मालविंदर तो दावोस में विश्व आर्थिक मंच में अक्सर दिख जाते थे और स्वास्थ्य क्षेत्र में आधुनिकता बहाल करने में भारत की भूमिका की चर्चा करते रहते थे। फोर्टिस में काम कर चुके एक पूर्व वित्त अधिकारी ने नाम सार्वजनिक नहीं करने की शर्त पर बताया, 'मालविंदर सौदों और अधिग्रहणों पर ध्यान दे रहे थे, वहीं शिविंदर रोजमर्रा का काम देख रहे थे।' यह पूछे जाने पर कि आखिर क्या ऐसी बात हुई जिसने पूरा गणित बिगाड़ दिया, उस अधिकारी ने कहा कि दोनों भाईयों की वित्तीय सेवा इकाई रेलिगेयर एंटरप्राइजेज ने समूह की खाट खड़ी दी। सिंह बंधु मध्यम स्तर के कई कर्मचारियों को सालाना 1 करोड़ रुपये तक वेतन दे रहे थे और रवैया कुछ ठीक नहीं था।
खबरों के अनुसार 2009 में तो रेलिगेयर ने रिटेंशन बोनस के रूप में शीर्ष 10 कर्मारियों को 30 महंगी जर्मनी की कारें उपहार में दे दी थी। इन सभी खर्चों के लिए एक कीमत चुकानी पड़ रही थी। साल 2011 तक फोर्टिस पर कर्ज 70 अरब रु पये से अधिक हो गया और डेट-टु-इक्विटी अनुपात बढ़कर 2.2 गुना हो गया, जो एक साल पहले तक 0.3 था। आखिर ऐसा होने की क्या वजह थी? सिंह बंधुओं को एसआरएल डायनॉस्टिक में 9.6 अरब रुपये में प्रवर्तक हिस्सेदारी और फोर्टिस इंटरनैशनल पर 32.7 अरब रुपये कर्ज भारी पड़ गया। जब दोनों भाइयों को एहसास हुआ कि उन्होंने चादर से अधिक पांव पसार लिए हैं तो उन्होंने अपनी हिस्सेदारी तेजी से कम करनी शुरू कर दी। सबसे पहले मुनाफे में चल रही ऑस्ट्रेलिया में सहायक इकाई डेंटल कॉरपोरेशन बूपा हेल्थकेयर को 15.5 अरब रुपये में बेच दी। इसके बाद उन्होंने सिंगापुर में सूचीबद्ध रेलिगेयर हेल्थ ट्रस्ट से 22 अरब रुपये में पल्ला झाड़ लिया। उन्होंने एसआरएल डायनॉस्टिक्स में भी 3.7 अरब मूल्य की हिस्सेदारी बेच दी। इन सभी उपायों से कंपनी को कर्ज कम कर 23 अरब रुपये तक लाने में मदद मिली और डेट-टु-इक्विटी अनुपात भी कम होकर 0.6 गुना रह गया।
फिलहाल फोर्टिस में 98 फीसदी से अधिक हिस्सेदारी गिरवी पड़ी हैं और अंतत: यह एक निवेशक को बेच दी जाएगी। कंपनी के लचर कारोबारी मॉडल और एक ठोस नेतृत्व नहीं होने साथ ही मौजूदा कानूनी लफड़ों के बीच कई पीढि़यों के दौरान अर्जित सिंह परिवार की साख दोबारा बहाल करना सबसे कठिन चुनौती हो सकती है। अच्छी बात यह है कि दोनों भाई अपनी बात रखने, अपने कदमों का औचित्य बताने और शायद अपना रुख सही ठहराने (अगर कोई था तो) के लिए भारत में ही हैं।
(साभार: बिजनेस स्टैण्डर्ड)
संपादक: स्वतंत्र भारत न्यूज़
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