25-26 जून: आपातकाल की घोषणा स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल
विशेष में प्रस्तुत है,
25-26 जून: आपातकाल की घोषणा स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल पर विशेष प्रस्तुति :
*25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित था। तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी।
*आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त करके मनमानी की गई।
12 जून सन् 1975: हिन्दुस्तान की न्यायपालिका का स्वर्णिम दिन:
ख़राजेअक़ीदत उस जगमोहन लाल सिन्हा को जिसने तत्कालीन प्रधानमंत्री- इन्दिरा गाँधी जी के ख़िलाफ़ फ़ैसला दे कर उनके चुनाव को अवैधानिक क़रार देते हुए 6 साल के लिए चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया था। इस फ़ैसले ने हिन्दुस्तान की न्यायपालिका व न्यायिक व्यवस्था को अपनी ओर आकर्षित किया जिसे रहती दुनिया तक भुलाया नहीं जा सकता है: शाहनवाज कादरी
*राजनारायण बनाम् इन्दिरा गाँधी
इलाहाबाद हाईकोर्ट
12 जून सन् 1975
*मुख्य आरोप:
1- श्री यशपाल कपूर शासकीय सेवा में रहते हुए इन्दिरा गाँधी जी के चुनाव एजेंट कैसे बने?-
2- चुनाव की सभाओं में मंच व लाउडस्पीकर के लिए पी डब्ल्यू डी के कर्मचारियों एवं सरकारी संसाधनों का दुरूपयोग किया गया।
3- पुलिस व प्रशासन का उपयोग कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मदद करने में किया गया।
4 - मतदाताओं को प्रलोभन देने के लिए मोटरसाइकिल व साईकिल बांटा गया, जिसके लिए यशपाल कपूर के हस्ताक्षर से पर्चीयां दी गई।
उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राज नारायण (1975 AIR 865, 1975 SCR (3) 333) इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा निर्णीत एक केस था जिसमें भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनावी कदाचार का दोषी पाया गया था। यह केस सन 1975 में राजनारायण द्वारा दायर किया गया था जो चुनाव में इंदिरा गांधी से हार गये थे। न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में श्रीमती गांधी की जीत को अवैध करार दिया और उन्हें 6 वर्ष के लिये चुनाव लड़ने से रोक लगा दी।
इस फ़ैसले ने सत्ताधारियों का घमंड तोड़ दिया ,उनके षडयन्त्र- धर्म जाति के समीकरण को तहस-नहस कर दिया तथा दूसरी तरफ आपातकाल की ज़मीन भी तैयार कर दी गई। ऐसे में कई दशकों से ग़रीब- शोषित पीड़ित- वंचित- दलित- पिछड़े व अल्पसंख्यकों को एक आशा की किरण नए नेतृत्व में दिखाई दी, जिसे जनता ने लोकबन्धु का नाम दिया जिसे आगे चलकर आपातकाल के समय आपातकाल के धूमकेतु के नाम से जाना व पहचाना गया।
देश की जनता को इस फ़ैसले को सामने रख कर आज की परिस्थिति में शासन तंत्र व धनतंत्र के प्रभाव में होने वाले अदालतों के फैसले की समीक्षा करनी चाहिए।
"हर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लड़ा जो तमाम उम्र, 69 बरस की उम्र में भी नौजवान था
मादरे वतन का निराला इंसान था, समझो तो अपने आप में हिन्दोस्तान था"
(शाहनवाज कादरी)
इस निर्नय से भारत में एक राजनीतिक संकट खड़ा हो गया और इन्दिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी जो 1975 से 1977 तक रहा।
25 जून 1975 (मध्य रात्रि) से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित था। तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था। आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त करके मनमानी की गई। इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को कैद कर लिया गया और प्रेस पर प्रतिबंधित कर दिया गया। प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर पुरुष नसबंदी अभियान चलाया गया। जयप्रकाश नारायण ने इसे 'भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि' कहा था।
जून महीना आते ही आपातकाल की यादें जोर मारने लगती हैं। 46 साल पहले का घटनाक्रम मन-मस्तिष्क में सजीव हो उठता है। 25 - 26 जून 1975 को याद करने के लिए उसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा।
1967 और 1971 के बीच, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सरकार और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के साथ ही संसद में भारी बहुमत को अपने नियंत्रण में कर लिया था। केंद्रीय मंत्रिमंडल की बजाय, प्रधानमंत्री के सचिवालय के भीतर ही केंद्र सरकार की शक्ति को केंद्रित किया गया। सचिवालय के निर्वाचित सदस्यों को उन्होंने एक खतरे के रूप में देखा। इसके लिए वह अपने प्रधान सचिव पीएन हक्सर, जो इंदिरा के सलाहकारों की अंदरुनी घेरे में आते थे, पर भरोसा किया। इसके अलावा, परमेश्वर नारायण हक्सर ने सत्तारूढ़ पार्टी की विचारधारा "प्रतिबद्ध नौकरशाही" के विचार को बढ़ावा दिया।
आपातकाल के दौरान एक लोकप्रिय नारा था:
'आपातकाल के तीन दलाल - संजय, विद्या, बंसीलाल'
इंदिरा गांधी ने चतुराई से अपने प्रतिद्वंदियों को अलग कर दिया जिस कारण कांग्रेस विभाजित हो गयी और 1969-में दो भागों , कांग्रेस (ओ) ("सिंडीकेट" के रूप में जाना जाता है जिसमें पुराने गार्ड शामिल हैं) व कांग्रेस (आर) जो इंदिरा की ओर थी, भागों में बट गयी। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी और कांग्रेस सांसदों के एक बड़े भाग ने प्रधानमंत्री का साथ दिया। इंदिरा गांधी की पार्टी पुरानी कांग्रेस से ज्यादा ताकतवर व आंतरिक लोकतंत्र की परंपराओं के साथ एक मजबूत संस्था थी। दूसरी और कांग्रेस (आर) के सदस्यों को जल्दी ही समझ में आ गया कि उनकी प्रगति इंदिरा गांधी और उनके परिवार के लिए अपनी वफादारी दिखने पर पूरी तरह निर्भर करती है और चाटुकारिता का दिखावटी प्रदर्शित करना उनकी दिनचर्या बन गया। आने वाले वर्षों में इंदिरा का प्रभाव इतना बढ़ गया कि वह कांग्रेस विधायक दल द्वारा निर्वाचित सदस्यों की बजाय, राज्यों के मुख्यमंत्रियों के रूप में स्वयं चुने गए वफादारों को स्थापित कर सकती थीं।
इंदिरा की उस सरकार के पास जनता के बीच उनकी करिश्माई अपील का समर्थन प्राप्त था। इसकी एक और कारण सरकार द्वारा लिए गए फैसले भी थे। इसमें जुलाई 1969 में प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण व सितम्बर 1970 में राजभत्ते(प्रिवी पर्स) से उन्मूलन शामिल हैं; ये फैसले अपने विरोधियों को सार्वभौमिक झटका देने के लिए, अध्यादेश के माध्यम से अचानक किये गए थे। इसके बाद, सिंडीकेट और अन्य विरोधियों के विपरीत, इंदिरा को "गरीब समर्थक , धर्म के मामलों में, अर्थशास्त्र और धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद के साथ पूरे देश के विकास के लिए खड़ी एक छवि के रूप में देखा गया।" प्रधानमंत्री को विशेष रूप से वंचित वर्गों-गरीब, दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों द्वारा बहुत समर्थन मिला। उनके लिए, वह उनकी इंदिरा अम्मा थीं।
1971 के आम चुनावों में, "गरीबी हटाओ" का इंदिरा का लोकलुभावन नारा लोगों को इतना पसंद आया कि पुरस्कार स्वरुप उन्हें एक विशाल बहुमत (518 से बाहर 352 सीटें) से जीता दिया। " जीत के इतने बड़े अंतर के सम्बन्ध में इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने बाद में लिखा था कि "कांग्रेस (आर) असली कांग्रेस के रूप में खड़ी है इसे योग्यता प्रदर्शित करने के लिए किसी प्रत्यय की आवश्यकता नहीं है।"
दिसंबर 1971 में, इनके सक्रिय युद्ध नेतृत्व में भारत ने पूर्व में पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) को अपने कट्टर दुश्मन पाकिस्तान से स्वतंत्रता दिलवाई। अगले महीने ही उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया, वह उस समय अपने चरम पर थीं; उनकी जीवनी लेखक इंदर मल्होत्रा, के लिए 'भारत की साम्राज्ञी' के रूप में उनका वर्णन" उपयुक्त लग रहा था। नियमित रूप से एक तानाशाह होने का और एक व्यक्तित्व पंथ को बढ़ावा देने का आरोप लगाने वाले विपक्षी नेताओं ने भी उन्हें दुर्गा सामान माना। आपातकाल घोषित करके प्रमुख नेताओं को पकड़कर जेल में डाल दिया गया था।
1975 की तपती गर्मी के दौरान अचानक भारतीय राजनीति में भी बेचैनी दिखी। यह सब हुआ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फ़ैसले से जिसमें इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया गया और उन पर छह वर्षों तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। लेकिन इंदिरा गांधी ने इस फ़ैसले को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी गई।
आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा, "जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील क़दम उठाए हैं, तभी से मेरे ख़िलाफ़ गहरी साजिश रची जा रही थी।"
आपातकाल लागू होते ही आंतरिक सुरक्षा क़ानून (मीसा) के तहत राजनीतिक विरोधियों की गिरफ़्तारी की गई, इनमें जयप्रकाश नारायण, जॉर्ज फ़र्नांडिस,अटल बिहारी वाजपेय, रघु ठाकुर और शाहनवाज कादरी भी शामिल थे।
आपातकाल लागू करने के लगभग दो साल बाद विरोध की लहर तेज़ होती देख प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश कर दी। चुनाव में आपातकाल लागू करने का फ़ैसला कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ। ख़ुद इंदिरा गांधी अपने गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं। जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। संसद में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 350 से घट कर 153 पर सिमट गई और 30 वर्षों के बाद केंद्र में किसी ग़ैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली। नई सरकार ने आपातकाल के दौरान लिए गए फ़ैसलों की जाँच के लिए शाह आयोग गठित की गई। हालाँकि नई सरकार दो साल ही टिक पाई और अंदरूनी अंतर्विरोधों के कारण १९७९ में सरकार गिर गई। उप प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने कुछ मंत्रियों की दोहरी सदस्यता का सवाल उठाया जो जनसंघ के भी सदस्य थे। इसी मुद्दे पर चरण सिंह ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और कांग्रेस के समर्थन से उन्होंने सरकार बनाई लेकिन चली सिर्फ़ पाँच महीने. उनके नाम कभी संसद नहीं जाने वाले प्रधानमंत्री का रिकॉर्ड दर्ज हो गया।
लोसपा प्रदेश अध्यक्ष (उत्तर प्रदेश)- एस. एन. श्रीवास्तव ने कहा कि, वर्तमान शासकों ने आपात काल को भी पछाड़ दिया है, जिससे आर्थिक आतंकवाद चरम पर है। जनता के धन को टैक्स और तमाम माध्यमों से लूटा जा रहा है। आज आर्थिक गुलामी की जंजीरों में जकड़ती जा रही माँ भारती और उनके सपूत (नागरिक) परिवर्तन और सही मायने में आर्थिक आतंकवाद को समाप्त कर "शहीद ए आज़म भगत सिंह, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, डॉक्टर आम्बेडकर, डॉक्टर लोहिया और लोकनायक जय प्रकाश नारायण" के विचारों के अनुरूप 'समतामूलक समाज' की स्थापना के लिए राजनैतिक पैगम्बर- महान समाजवादी चिंतक व विचारक - रघु ठाकुर की ओर देख रहे हैं।
(साभार - मल्टी मीडिया & शाहनवाज कादरी)
swatantrabharatnews.com