किसान आंदोलन: हार जीत नहीं बातचीत से समाधान संभव: रघु ठाकुर
विशेष प्रस्तुति में प्रस्तुत है, 'किसान आंदोलन' पर
महान समाजवादी चिंतक व विचारक- रघु ठाकुर, राष्ट्रीय संरक्षक, लोकतान्त्रिक समाजवादी पार्टी की विशेष
प्रस्तुति:
'हार जीत नहीं बातचीत से समाधान संभव'
नई-दिल्ली: 'किसान आंदोलन' पर महान समाजवादी चिंतक व विचारक- रघु ठाकुर, राष्ट्रीय संरक्षक, लोकतान्त्रिक समाजवादी पार्टी की विशेष प्रस्तुति में कहा है कि, किसान आंदोलन का समाधान हार जीत से नहीं बल्कि, बातचीत से संभव है।
रघु ठाकुर ने कहा कि, देश के एक हिस्से का किसान आँदोलन जो राजधानी दिल्ली की सीमा पर लगभग 50 दिनों से जारी है, उस आँदोलन का अभी तक कोई हल नहीं निकल सका। वार्तालाप से भी कोई हल नहीं निकला क्योंकि जब वार्तालाप स्वपक्षीय हठ बन जाती है, तो हल संभव नहीं होता।
उन्होंने कहा कि, सरकार का हठ है कि, हम कानून वापिस नहीं लेंगे याने पहले हमारी बात मानों किसान पक्ष का भी यही कहना है कि पहले कानून वापिस लो तब बात आगे बढ़ेगी।
कुल मिलाकर चंबल संभाग की पंचायतों की स्थिति है कि, हुकुम पंचों का सर माथे पर, पर नाला वहीं रहेगा। वार्तालाप में हठ या प्रतिरोध के पीछे, दोनों पक्षों के पीछे कुछ अदृश्य सी शक्तियां है, जो सत्ता व आँदोलन के पीछे से एक दूसरे से टकरा रही है तथा परदे के पीछे से, अपने-अपने दाँव पेंच चला रही है।
जब सत्ता आँदोलन मुद्दे या विकाश से हटकर, अखाड़े की कुश्ती बन जाये तो प्रतिरोध होना ही है। भारत सत्ता के समर्थक देश के समूहों के अलावा दुनिया के अर्थ के मालिक लोग भी है। तो आँदोलन को भी कई बाहरी देशों के साथियों- कनाडा के प्रधानमंत्री टूडो तथा यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव का भी समर्थन मिला है।
रघु ठाकुर ने कहा कि, यह आश्चर्यजनक है कि, कनाडा के प्रधानमंत्री ने करीमा बलूची की कनाडा में हत्या पर कोई चिंता तक व्यक्त नहीं की है, जाँच तो दूर की बात है।
उन्होंने कहा कि, इस सब घटनाक्रम में अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव की भी कुछ भूमिका हो सकती हैै। जिस प्रकार से, प्रधानमंत्री मोदी जी ने विदेश नीति में त्रुटि की थी कि, देश, देश की जनता के बजाय शासक व्यक्तियों मात्र से, रिस्ता बनाया वह विदेश नीति के लिये घातक था। उसके परिणामस्वरूप देश ने चीन, पाकिस्तान ईरान व अमेरिका में देखें हैं।
हालांकि हमने कई बार अपने सीमित माध्यमों से देश के साथियों को सावधान किया था कि विदेश नीति व्यक्ति संबंधों पर नहीं वरन राष्ट्रों के बीच के संबंध व राष्ट्र हित के आधार पर बनना चाहिये।
परंतु देश के साथियों को पहले दिन से ही यह भ्रम रहा है कि, 'न भूतो न भविष्यति' तथा हठ से पाई हुई जीत को हठ से टिकाया या चलाया जा सकता है।
आँदोलनकारियों का मुख्य केन्द्र पंजाब फिर हरियाणा व कुछ पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही अभी तक रहा है।
हालांकि देश के अन्य हिस्सों के किसान एक किसान के रूप में बड़े पैमाने पर आँदोलन में शामिल भले ही न हो परंतु एक आम किसान भी यह मान रहा है कि ये कानून किसान विरोधी है तथा वह सरकार से सहमत नहीं है। वह आँदोलन का सक्रिय समर्थक भले न हो पर मूक समर्थक तो है। अगर वह समर्थन में सक्रिय नहीं है तो विरोध पर भी चुप है।
रघु ठाकुर ने कहा कि, राजनैतिक दल अपने-अपने सत्ता के लक्ष्य के लिये, विरोध या समर्थन में खेल रहे है। यद्यपि किसानों का समर्थन या सहानुभूति अभी तक उनके साथ नहीं है तथा केवल दलीय कार्यकर्ता ही उनमें सहभागी होते है तथा अपने नेता के गुणगान व विरोधी की निंदा कर आत्मसंतुष्ट हो जाते हैं।
उन्होंने कहा कि, पूर्व की भाँति, कुछ उच्च शिक्षित संपन्न लोग कुछ देशी-विदेशी सहायता प्राप्त गैर सरकारी संगठन किसान आँदोलन में पीछे खड़े दिखते है। इनमें से अधिकांश चेहरे मोहरे वही हैं, जो लोकपाल बिल के नाम के कारपोरेट अभियान में व दुनिया में चल रहे प्राक्सीवार के एक छोटे सिपाही रहे हैं।
पर एक बड़ी घटना व महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि पचास दिनों से, पचास से अधिक किसान भाईयों की ठंड से या आत्महत्या से हुई मौत के बाद भी आँदोलनकारी गाँधीवादी और शांतिपूर्ण ढंग से धरने पर बैठे हैं।
रघु ठाकुर ने कहा कि, उन्होंने कोई हिंसा नहीं की है और न ही हिंसा को कोई उकसावा दिया है। उनकी 7 जनवरी की ट्रेक्टर रैली भी निर्धारित मार्ग पर और शांतिपूर्ण थी, जिसमें बड़ी संख्या में ट्रेक्टर शामिल थे थे। निसंदेह धरने के आयोजक किसानों के पास साधनों की कमी नहीं है, और यह आँदोलन की मजबूती के लिये महत्वपूर्ण है।
सरकार ने भी वार्ता की प्रक्रिया में केवल सत्ता पक्ष व किसान संगठनों के प्रतिनिधियों को ही शामिल रखा है। देश के अन्य समूहों या संगठनों या राजनैतिक दलों से कोई संवाद नहीं किया है। याने दोनों तरफ अपने अपने दायरों तक की सिकुड़न है।
उन्होंने कहा कि, सबसे विचित्र यह है कि, 8 दौर की बैठकों के बाद भी उन मुद्दों पर उनके गुण दोष पर कोई चर्चा नहीं हुई जो, किसानों के वास्तविक मुद्दे हैं।
उनके निर्णायक हल से सरकार भी बच रही है और किसान प्रतिनिधि भी। अभी तक देश अधिकृत रूप से यह नहीं जान पा रहा है कि कौन सा पक्ष सही है। एक प्रकार की भावनात्मक बहस व टकराव चल रहा है जिसमें मुद्दों पर बहस ओझल है। मीडिया भी अपने- अपने मालिकों के हितों व निर्देशों में बँटा हुआ है। किसानों के पास भी देश-विदेश, देश से आये हुए तकनीकी ज्ञान वाले पढ़े-लिखे नौजवानों की एक अच्छी टीम है जो कम से कम शोसल मीडिया पर आँदोलन की खबरों को गढकर व सजाकर प्रस्तुत कर रही है।
भारत जैसे गरीब देश में, किसी जन आँदोलन के पास इतने संसाधन और प्रचार तंत्र की उपलब्धता निसंदेह अभूतपूर्व है। कई बार तो ऐसा लगता है कि संपन्न लोग समाजवादी हो गये हैं, और गरीब भूखे लोग पूँजीवादी।
कुछ धार्मिक संगठन भी मानवीय और अपनी सेवा परंपरा के आधार पर किसान आँदोलन को सक्रिय व नियमित मदद दे रहे हैं। उनकी प्रेरणा धर्म समूह की एकता या हित के आधार पर है या विदेशी संबंधों के कारण है या स्वप्रेरणा से है, यह कहना अभी कठिन है। परंतु यह एक महत्वपूर्ण पक्ष है।
देश के धार्मिक सामाजिक संगठनों ने ऐसी महत्वपूर्ण भूमिका लाॅकडाऊन में भी अदा की थी, जब सरकार ने आम लोगों को लगभग बँदी व लाचार बनाकर छोड़ दिया था तथा राजनैतिक दल तो अमूमन केवल शाब्दिक सहानुभूति तक ही सीमित रहते हैं।
रघु ठाकुर ने कहा कि, 'मेरी राय में निम्नलिखित ऐसे प्रमुख मुद्दे हैं, जिन पर सुप्रीम कोर्ट, सरकार व किसान पक्ष के प्रतिनिधियों को, निर्णय करना चाहिये:
1. न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी व न देने पर दण्डनीय अपराध बनाया जाये।
2. डाॅ. लोहिया के बताये अनुसार दाम बाँधों नीति को कानूनी रूप दिया जाये याने, कृषि उत्पाद व कारखाना उत्पाद दोनों का लागत मूल्य निकालकर उसमें लागत का पचास प्रतिशत जोड़कर बाजार मूल्य तय किया जाये।
3. कानून में छीने गये अदालतों के अधिकार बहाल किये जायें तथा कमजोर किसान पक्ष को बगैर कोर्ट फीस के कोर्ट में जाने का प्रावधान बनाया जाये।
4. कृषि उत्पाद के खरीददार व विक्रेता के बीच इकरारनामा पंजीकृत हो।
5. किसान क्रेडिट कार्ड के समान ‘‘कृषि उत्पाद खरीद क्षमता कार्ड’’ बैंक व शासन की सहमति व गारंटी से जारी हो ताकि उसी सीमा तक की उक्त खरीददार खरीद कर सके।
6. बड़े खरीददारों को जो 100 - 50 कुंटल या उससे अधिक क्रय करते हैं, को जिला कलेक्टर या कृ-िुनवजया अधिकारी के द्वारा चिन्हित खाते में इकरारनामा पंजीकरण के समय ही उसका अग्रिम मूल्य जमा करना अनिवार्य हो तथा उपज लेते ही वह पैसा अधिकारी किसान के खाते में स्थानांतरित करें।
7. सुप्रीम कोर्ट ने आँदोलन को अपने संज्ञान व परिधि में लिया है। यह एक अवसर भी है कि बगैर हार या जीत के मुद्दों पर हल निकाला जाये और न तुम जीते न हम हारे की तर्ज पर प्रतिरोध खत्म हो तथा किसान पक्ष की आशाओं के निर्मूलन के लिये उचित कानूनी प्रावधान बनें, भले ही सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता आआश्चर्य जनक है।
आमतौर पर आँदोलन या कानून व्यवस्था को लेकर सुप्रीम कोर्ट या अदालतें ज्यादा चिंता नहीं करती रही है। वैसे यह उनका काम भी नहीं है तथा आम न्यायिक परिधि के बाहर हस्तक्षेप जैसा है। निसंदेह यह सरकार के लिये संतोषजनक होगा और कुछ किसान संगठनों के लिए चिंताजनक व संदिग्ध भी लगेगा। परंतु देश का आम आदमी हल का इंतजार कर रहा है तथा वह आशान्वित है।
रघु ठाकुर ने कहा कि, "मैं समिति के सदस्यों की पृष्ठ भूमि या अतीत के आधार पर टिप्पणी के बजाय ज्यादा उचित यह मानता हूॅ कि, किसान संगठन उनसे बात करें व उनके माध्यम से अपनी राय सुप्रीम कोर्ट को भेजें। या फिर सीधे स्वतः कोर्ट में जाये। वे समिति को लिखित तर्क दें कि वे क्यों असहमत हैं तथा क्या चाहते हैं?- वरना देश के आम जन मानस में उन्हें ही हठी करार दिया जायेगा, तथा जनमानस उनके भी खिलाफ हो सकता है"।
उन्होंने कहा कि, यह भी विचारनीय है कि सुप्रीम कार्ट में किसानों के पक्ष के वकीलों ने जो नाम समिति की सदस्यता के लिये सुझाये थे, जैसे काॅलिन गोंसाॅलविस आदि उनमें भी कोई किसान या संघर्षरत किसान संगठनों का प्रतिनिधि नहीं था।
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