हिंसाग्रस्त दुनिया में 'गाँधी' ही 'वैक्सीन' हैं: रघु ठाकुर
कोरोना की महामारी की वैक्सीन बनना अभी शेष है, परन्तु सामाजिक सदभाव प्रेम, अहिंसा और मर्यादा के लिए दुनिया में एक वैक्सीन पहले से मौजूद है, और वह है, महात्मा गाँधी।
आज भी अगर दुनिया गाँधी की वैक्सीन का प्रयोग करेगी तो हिंसा और युद्ध की महामारी से बच सकेगी वरना इतिहास गवाह है कि साम्राज्य और समाज आपसी प्रतिशोध में कैसे नष्ट हो गये?
-:रघु ठाकुर:-
भोपाल (मध्य प्रदेश): देश के प्रख्यात विद्वान और समाजवादी चिन्तक और लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक रघु ठाकुर ने अपनी विशेष प्रस्तुति में कहा कि, 2020 के वर्ष की शुरूआत कोरोना की महामारी से शुरू हुई और अंत शब्द और कर्म की हिंसा से हो रहा है। कोरोना की महामारी से मरने वालों की संख्या देर-सवेर कुछ लाख हो जाएगी। परन्तु अगर हिंसा और उसके परिणाम स्वरूप युद्ध हुये तो उसके परिणाम महामारी से भी घातक होंगे। हो सकता है कि, दुनिया के वैज्ञानिक कोरोना से बचाव के लिए कोई वैक्सीन बनाने में सफल हो जाए, परन्तु घृणा ओर हिंसा, कट्टरता और फिरकापरस्ती का उपचार कोई वैक्सीन नहीं है। जिस प्रकार दुनिया ने वैक्सीन के अभाव में कोरोना की महामारी से बचाव के लिए कुछ मास्क या दूरी आदि के उपाय किए है और अपने खानपान से अपने शरीर में ही प्रतिरोध-शक्ति पैदा करने की प्राकृतिक पहल की है, उसी प्रकार दुनिया और विश्व समाज को हिंसा और घृणा की महामारी से बचाने के लिए जहाँ एक तरफ कुछ सामाजिक निषेध के उपाय व प्रयोग खोजना होंगे वहीं धैर्य और संयम की अपनी प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाना होगा।
रघु ठाकुर ने आगे कहा कि, पिछले दिनों फ्रांस में किसी ने पैगम्बर मोहम्मद साहब का कार्टून बनाया। मैं इस कार्टून बनाने का समर्थक नहीं हूॅ। परन्तु फ्रांस का समाज एक अलग प्रकार के लोकतांत्रिक स्वभाव का समाज है, जहाँ सभी प्रकार की आलोचनाएं सही जाती है। विचारक नीत्से ने तो यहाँ तक कहा था कि ‘‘भगवान कभी का मर चुका है’’, और यह भगवान शब्द मैंने अनुवाद कर लिखा है वर्ना उन्होंने ‘‘गाॅड’’ शब्द का इस्तेमाल किया था। और गाॅड का तात्पर्य आम तौर पर ईसाईयों के भगवान से माना जाता है। परंतु फ्रांस के समाज या सरकार ने कभी उनके विरूद्ध कोई प्रतिक्रिया नहीं की। विचारों की आजादी की इस सीमा तक वहाँ है। मुझे याद है कि जब जीन पोल साथ ने फ्रांस की व्यवस्था के खिलाफ और वहाँ की सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ तीखे व दार्शनिक सवाल पूँछना शुरू किए थे तो फ्रांस के एक तबके ने उनकी गिरफ्तारी की माँग की थी। परन्तु फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति डिगाल ने सार्वजनिक रूप से उत्तर दिया था कि साथ फ्रांस की आत्मा है, उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
रघु ठाकुर ने आगे कहा कि, अभी फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने बयान देकर कहा कि ‘‘मैं कार्टून का समर्थन नहीं करता परन्तु व्यक्ति आजादी का समर्थन करता हूॅ’’, यह परम्परा दुनिया में पहले भी रही है। जब 'चार्वाक' ने जो की भारतीय था, ईश्वर को मानने से इंकार किया; तब तत्कालीन समाज ने उनकी हत्या नहीं की बल्कि उसे उनके विचार के रूप में स्थान दिया। असहमति दोनों पक्षों का अधिकार होता है और असहमति का सम्मान करना ही लोकतंत्र की आत्मा है। परन्तु पिछले कुछ दिनों से दुनिया में असहमति को अपराध माना जाने लगा है। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में और भारत के बिहार विधानसभा के चुनाव व उप चुनावों में जिस प्रकार की भाषा का इस्तेमाल हुआ है, वह किसी हिंसा से कम नहीं है और भावी पीढ़ी के लिए एक बुरा संदेश है। अमेरिका के राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी श्री ट्रम्प ने तो भाषा की सारी मर्यादा ही लाँघ दी और उन्होंने चुनाव जीतने और परिणामों को प्रभावित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जज की नियुक्ति से लेकर अपने अन्य अधिकारियों को बर्खास्त करना सार्वजनिक रूप से लोगों का धमकाना कोई भी अनैतिक और अलोकतांत्रिक कार्य नहीं छोड़ा। यहाँ तक कि उन्होंने यह भी धमकी दी कि वे चुनाव के बाद शाँतिपूर्ण ढंग से सत्ता हस्तांतरण नहीं करेंगे। अमेरिका, जो दुनिया में एक खुले विचारों का देश माना जाता था, उसकी यह छवि लगभग नष्ट हो चुकी है। अमेरिका का कौन राष्ट्रपति बने, कौन न बने यह मेरा विषय नहीं है। बल्कि यह अमेरिकी मतदाताओं का अपना अधिकार है कि, वे अपने प्रतिनिधि को चुनें, परन्तु बयानों आदि में जो गिरावट आई है, वह अमेरिकी लोकतंत्र के लिए और लोकतांत्रिक दुनिया के लिए चिंता का विषय है। अभी तक यह होता था कि अमूमन लोकतांत्रिक सत्ता की शब्दावली शालीन होती थी, भले ही प्रतिपक्ष कई बार कटु या कठोर होता था। यह इसलिए भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वीकार व अपरिहार्य है कि, प्रतिपक्ष अल्पमत का नुमांयदा होता है, और सत्ता समूचे देश की प्रतिनिधि होती है। परन्तु पिछले कुछ समय से केन्द्र से लेकर राज्यों तक सत्ता और प्रतिपक्ष के बीच भाषा का अंतर समाप्त जैसा हो गया है। म.प्र. के उप चुनावों में भी नालायक-गधा-कुत्ता -कौवा जैसे शब्दों का भरपूर इस्तेमाल हुआ। यद्यपि सत्ता पक्ष, अभी तक भगवान राम की चर्चा (भले ही राजनैतिक औजार के रूप में करता रहा है)। और प्रतिपक्ष के नेता भी अपने आप को हनुमान पूजक शब्द का इस्तेमाल करते है। मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने दुनिया की सभी रामायणें पढ़ी है, परन्तु 2-3 रामायणें तो पढ़ी ही है। मुझे याद नहीं आता कि, श्री राम ने अपने अधिकतम आक्रोश या पीड़ा के क्षण में भी रावण या किसी के विरूद्ध किसी अपशब्द तो दूर कटुशब्द का भी इस्तेमाल किया हो। हनुमान ने रावण की सोने की लंका जलाई-परन्तु कहीं ऐसा उल्लेख नहीं है कि, उन्होंने किसी अपशब्द या गाली का इस्तेमाल किया हो। युद्ध में भी एक शालीनता और मर्यादा होती है, परन्तु अब तो दुनिया में और लोकतंत्र व्यवस्थाओं में भी शालीनता की सारी मर्यादाएं टूट गई हैं।
रघु ठाकुर ने कहा कि, फ्रांस के कार्टूनिस्ट के द्वारा कार्टून बनाने के बाद चर्च में तीन हत्याएं की गई । इनमें वह कार्टूनिस्ट नहीं था बल्कि ईसाई समाज के पुरूष और महिला थे, जो निर्दाेष थे। दुनिया का कौन सा मजहब निर्दाेष की हत्या को जायज ठहरा सकता है। यहाँ जम्मू कश्मीर में भारत के आतंकवादियों ने 3 अपने ही मुस्लिम भाईयों की हत्या कर दी। क्या फ्रांस का या कश्मीर का आतंकवाद एक जैसा नहीं है? जहाँ निर्दोष की हत्याएं की जा रही है। अब एक नया घटनाक्रम शुरू हुआ है, जिसमें कुछ मुस्लिम मित्रों ने मथुरा के मंदिर में जाकर नमाज़ पढ़ी। उनके पक्ष के कुछ लोगों का कहना है कि उन्हें नमाज़ पढ़ने की पुजारी ने अनुमति दी थी, परन्तु पुजारी ने अनुमति देने से इंकार किया है, और उनके विरूद्ध रपट दर्ज कराई है। उन दोनों लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ है, और एक व्यक्ति की गिरफ्तारी भी हुई है। परन्तु अब उसके प्रतिवाद स्वरूप 4 हिन्दू भाईयों ने जाकर मस्जिद में पूजा की। उनमें से भी एक की गिरफ्तारी हुई है और अब सार्वजनिक रूप से हमले-बचाव और घात-प्रतिघात का सिलसिला शुरू हो गया है। फ्रांस के कार्टून के विरूद्ध में भारत में भी अनेक स्थानों पर मुस्लिम समाज ने बड़े-बड़े जुलूस निकाले और फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों के पुतले जलाए। परन्तु कितना अच्छा होता कि, अगर उन्होंने इसके साथ ही फ्रांस में की गई निर्दाेषों की हत्यायों और जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों के द्वारा की गई हत्यायों की निंदा भी की होती। इससे संदेश तो यही गया है कि वे मैक्रों के तो खिलाफ है, परन्तु निर्दाेष हत्याओं के समर्थक है।
रघु ठाकुर ने कहा कि, मंदिर और मस्जिद में भगवान या अल्लाह नाम जो भी कहो जो एक ही हैं का स्थान होता है। हालांकि यह एक परम्परागत कल्पना है, क्योंकि अगर भगवान या अल्लाह ने सारी दुनिया को बनाया है, तो फिर सारी दुनिया उनकी है, और मंदिर-मस्जिद के छोटे से इलाके में उन्हें सीमित करना उनसे उनकी बकाया दुनिया को छुड़ाना है। ऐसा लगता है कि हम लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था के मर्म को समझते नहीं है। उदारता या तार्किकता के बजाय ज्यादा कट्टर हो रहे है। गुरू नानक देव ने तो प्रश्न किया था कि किस तरफ पैर करे जहाँ खुदा नही हैं। परन्तु मुस्लिम भाईयों ने उनकी गर्दन नहीं काटी। स्वामी दयानंद ने मूर्ति पूजा को खुली चुनौती दी परन्तु हिन्दू भाईयों ने न उनकी हत्या की ना निंदा की बल्कि एक अच्छे खास हिस्से ने उन्हें स्वीकार किया। मिर्जा गालिब ने तो शेर ही लिख दिया ’’साकी शराब पीने दे मस्जिद मैं बैठकर - या वो जगह बता दे जहाँ खुदा न हों’’। परन्तु किसी मुस्लिम भाई ने उन्हें गैर इस्लामी नहीं माना और न उन पर हमले किए। स्वतः पैगम्बर साहब इस्लाम का प्रचार कर रहे थे तो उन्हें अपने ही समाज में आलोचना और अपमान का शिकार होना पड़ा था। परन्तु उन्होंने उनके मन को बदलने का प्रयास किया न की हिंसा का। ईसामसीह को फाँसी राज शाही का दण्ड था। परन्तु दुनिया के एक बड़े हिस्से ने उन्हें स्वीकारा। याद रखना होगा कि, दुनिया में उदारता ही आदर्श के रूप में याद की जाती है, कट्टरता नहीं।
रघु ठाकुर ने कहा कि, जिन मुस्लिम भाईयों ने मंदिर में नमाज पढ़ी और उसके प्रतिवाद में जिन भाईयों ने मस्जिद में पूजा की मेरी राय में इन दोनों को कानूनी कार्यवाहियों से मुक्त कर देना चाहिए और समझाइश देना चाहिए कि अपनी-अपनी मर्यादाओं का पालन करें। और ऐसा कदम तभी उठाये, जब मंदिर के पुजारी तथा मस्जिद के इमाम साहब की सहमति हो। तभी कोई ऐसा प्रयास करेगा ताकि सामाजिक तनाव, हिंसा, फसाद और दंगे की चिंगारी न बने।
रघु ठाकुर ने अंत में कहा कि, कोरोना की महामारी की वैक्सीन बनना अभी शेष है, परन्तु सामाजिक सदभाव प्रेम, अहिंसा और मर्यादा के लिए दुनिया में एक वैक्सीन पहले से मौजूद है, और वह है, महात्मा गाँधी। आज भी अगर दुनिया गाँधी की वैक्सीन का प्रयोग करेगी तो हिंसा और युद्ध की महामारी से बच सकेगी वरना इतिहास गवाह है कि साम्राज्य और समाज आपसी प्रतिशोध में कैसे नष्ट हो गये?
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