20 सितम्बर को राज्यसभा की घटना - 'लोकतंत्र की मौत की घंटी: रघु ठाकुर
"20 सितम्बर भारत संसदीय इतिहास में न केवल भारत में बल्कि समूची दुनिया में काले दिन के रूप में दर्ज होगा, क्योंकि जिस प्रकार सरकार ने ध्वनि मत के नाम पर स्पष्ट अल्पमत को बहुमत में बदलने का नंगा खेल खेला, वह अब छुपा हुआ नहीं है": रघु ठाकुर
नई-दिल्ली: आज के राजनैतिक पैगम्बर - महान समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतान्त्रिक समाजवादी पार्टी के संस्थापक और राष्ट्रीय संरक्षक - रघु ठाकुर ने 20 सितम्बर को राज्यसभा में घटित घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि, "20 सितम्बर 2020 को राज्यसभा में जो घटनाक्रम हुए थे, भारतीय लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौतियां हैं और कई प्रश्न खड़े करती हैं।"
रघु ठाकुर ने कहा कि, यह लगभग स्पष्ट है कि अभी तक राज्यसभा में भाजपा का बहुमत नहीं है और लोकसभा द्वारा पारित कानून के लिए राज्यसभा में पारित करने के दो ही रास्ते है:-
1. सरकार प्रतिपक्षी दलों के अधिकृत नेताओं से बात कर उन्हें समर्थन के लिए सहमत कराएं।
2. राज्यसभा में प्रस्ताव गिरने के बाद उसे पुनः लोकसभा में पारित कराए और एक वैधानिक प्रक्रिया के रूप में राज्यसभा की सहमति लेने से मुक्त हो जाए। क्योंकि अगर लोकसभा पुनः वही प्रस्ताव पारित कर भेजती है तो राज्यसभा की भूमिका नगण्य हो जाती है। यह एक प्रकार से संसदीय प्रक्रिया में लोकसभा की श्रेष्ठता का प्रावधान जैसा है, यह प्रावधान भी जब संविधान बना था तब नहीं था बल्कि इसे बाद में जब सरकारों के राज्यसभा में स्पष्ट बहुमत की बजाय अल्पमत होने लगे तब यह प्रक्रिया बनाई गई।
कृषि व्यापार संबंधी तीन अध्यादेश जो पिछले दिनों भारत सरकार ने जारी किए थे, उन्हें पारित कराने के लिए भारत सरकार ने यह कवायद सुरु की थी।
रघु ठाकुर ने कहा कि, चूँकि संविधानिक प्रावधान यह है कि अध्यादेश को संसद के अगामी सत्र में या 06 माह में जो भी पहले हो अनुमोदन होना चाहिए। वरना अध्यादेश स्वयंमेव निरस्त हो जाएंगे। 12-13 दिन पहले ही लोकसभा ने इन अध्यादेशों को कानून का रूप लेने के प्रस्ताव पर मुहर लगायी थी। इन अध्यादेशों को लेकर देश के उत्तरी भागो में विशेषतः पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में किसानों में बैचेनी है और किसान संगठन जिसमें भाजपा और आर.एस.एस. से संबंध किसान संघ भी शामिल है, धरना, प्रदर्शन आदि आंदोलन पिछले कई दिनों से कर रहे है।
रघु ठाकुर ने कहा कि, किसानों के मन में इन अध्यादेशों से यह आशंका पैदा हुई है, कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को समाप्त करना चाहती है, और किसानों को व्यापारियों के हवाले कर देना चाहती है।
रघु ठाकुर ने कहा कि, अगर भारत सरकार में लोकतांत्रिक भावना होती तो वे किसान संगठनों को बुलाकर खुली चर्चा करते। उनकी आशंकाओं का निराकरण करते और तत्संबंधी आवश्यक प्रावधान भी करते। परन्तु केन्द्र सरकार अपने बहुमत के मद में और प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी अपने जनाधार के मद में इतने मदमस्त हो चुके है कि वे किसी से बात करना, संवाद करना अपनी तौहीन समझते हैं तथा यह चाहते है कि जो वे कहे उसे हर व्यक्ति आँख बंद कर स्वीकार करे। वे भूल जाते है कि भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में ऐसी तानाशाही संभव नहीं है। लोकतांत्रिक मानस कभी भी टकराव के रास्ते पर नहीं जाता बल्कि संवाद से टकराव को टालकर रास्ता निकालने का प्रयास करता है, शायद यह इसलिए भी हो श्री मोदी के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में एक चालकानुवर्तित्व का नियम है याने जिस प्रकार एक चरवाहा भेड़ों के समूह को चराता है और भेड़ें उसका विरोध और टकराव नहीं कर सकती उसी प्रकार संघ की अनुशासन की परंपरा है।
श्री नरेन्द्र मोदी ने तो किसान संगठन तो दूर अपने एन.डी.ए. के घटक दलों को भी विश्वास में नहीं लिया। यहाँ तक की केन्द्र सरकार की मंत्री श्रीमती हरसिमरत कौर बादल ने लगभग 13 दिन पहले केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया, इसके बावजूद भी प्रधानमंत्री ने उनसे या माननीय श्री बादल से कोई चर्चा नहीं की।
रघु ठाकुर ने कहा कि, अकाली दल एन.डी.ए., भाजपा और जनसंघ का सबसे पुराना सहयोगी है, जो 1967 से याने लगभग 53 वर्षों से संघ समूह दलों का सहयोगी रहा है। यह प्रधानमंत्री का 'मद' है या पंजाब चुनाव को लेकर कोई मिली जुली रणनीति यह अभी कहना मुश्किल है और यह हाल का विश्वास भी नही हैं। संसद में इन अध्यादेशों के स्थान पर लाए गए विधेयकों के पक्ष में बोलते हुए श्री मोदी ने जिस अहंकारी भाषा का इस्तेमाल किया वह भी लोकतांत्रिक नहीं है। वे यह भी जानते थे कि, राज्यसभा में एन.डी.ए. का बहुमत नहीं है और अगर उन्होंने लोकसभा के निर्णय के बाद भी विरोधी दलों से चर्चा की होती तथा उन्हें विश्वास मेें लेने का प्रयास किया होता तो शायद 20 सितम्बर की घटना न हुई होती।
रघु ठाकुर ने कहा कि, "20 सितम्बर भारत संसदीय इतिहास में न केवल भारत में बल्कि समूची दुनिया में काले दिन के रूप में दर्ज होगा। क्योंकि जिस प्रकार सरकार ने ध्वनि मत के नाम पर स्पष्ट अल्पमत को बहुमत में बदलने का नंगा खेल खेला वह अब छुपा हुआ नहीं है।"
रघु ठाकुर ने कहा कि, "मुझे आश्चर्य कम पीड़ा ज़्यादा है कि जिस समय यह प्रस्ताव राज्यसभा में आया, उस समय राज्यसभा के उप सभापति श्री हरिबंश जी सदन के अध्यक्ष थे। श्री हरिबंश जी पुराने समाजवादी पृष्ठभूमि के रहे हैं, वे बलिया के सिताब दियारा याने जयप्रकाश जी के गृह-ग्राम के रहने वाले है। समाजवादी आंदोलन में लगातार उनका संबंध लोहिया आंदोलन और बाद में स्व. चन्द्रशेखर जी के साथ रहा है। उन्होनें स्व. चन्द्रशेखर जी के ऊपर जो पुस्तक लिखी है, उसमें भी चन्द्रशेखर की लोकतांत्रिक शैली के कई किस्से दर्ज किए हैं। हमारे वह पुराने मित्र और साथी रहे हैं और हमारे मन में उनके प्रति लोकतांत्रिक प्रणाली के समर्थक होने का गहरा सम्मान का भाव रहा है।
परन्तु उनकी सदारत में राज्यसभा में जिस प्रकार मतदान की माँग को ठुकराया गया और ध्वनि मत कानून पारित कराया गया यह उनके लोकतांत्रिक चेहरे और चरित्र पर स्थाई दाग बन जाएगा।"
रघु ठाकुर ने बताया कि, "अगर राजनैतिक दल मतदान की माँग करते हैं, जो उनका अधिकार है तो इसमें सदन के अध्यक्ष को बाधा बनने के बजाय नियमानुसार मतदान कराना चाहिए। संसद की कार्यविधि के अनुसार भी यह उनके लिए बाध्यकारी था कि, वे मतदान की माँग को स्वीकार करते। या फिर कुछ समय के लिए संसद की कार्यवाही को स्थगित कर संसद के नेताओं को आमंत्रित करते और सामूहिक सर्व सम्मत नियमानुसार हल निकालते। सरकार चाहती तो वह भी अपने प्रस्ताव वापिस ले सकती थी और अध्यक्ष से समय माँग सकती थी। तथा विधायकों के बारे में प्रतिपक्षी दलों से चर्चा कर सकती थी। परन्तु तानाशाह सरकार के आगे उपसभापति श्री हरिबंश जी ने जिस प्रकार घुटने टेक कर निर्णय किया, उसने भारतीय लोकतंत्र को कलंकित किया। हो सकता है कि, उस दिन किसी योजना के तहत नियमित अध्यक्षता करने वाले उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू न पहुंचे हो और श्री हरिबंश जी से अध्यक्षता कराई गई हो।"
रघु ठाकुर ने कहा कि, "मैं मानता हूॅ कि, माननीय सांसदों को अपना विरोध मर्यादित -ढंग से रखना चाहिए, माइक तोड़ना, अपशब्द कहना या कागज फाड़कर फेंकना आदि लोकतांत्रिक तरीका नहीं है। इससे बचा जा सकता था।
प्रतिपक्षी दलों के सभी राज्यसभा सदस्य सदन का बहिष्कार कर बाहर मीडिया के समक्ष अपनी संख्या बताते, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति को जाकर अपनी संख्या बताते, सुप्रीम कोर्ट में जाकर याचिका देते तो न केवल उनका बहुमत प्रमाणित होता बल्कि सभापति का निर्णय वैधानिक और अमान्य भी सिद्ध होता। उनके थोड़े से अमर्यादित आचरण ने सत्ता-पक्ष को एक बहाना और कमजोर तर्क दे दिया इस आधार पर उन्होंने 7-8सदस्यों को निलंबित किया है, तथा के मीडिया के एक हिस्से के अनुसार सारे विपक्षी सदस्यों को ही इस सत्र तक निलंबित कर दिया है।"
रघु ठाकुर ने कहा कि, "मैं ऐसी घटनाओं का समर्थक नहीं हॅू, हालांकि भारतीय लोकतंत्र में ऐसी घटनाएं पहले भी हुई है। उ.प्र. की विधानसभा में तो तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष का सिर ही फूट गया था। भारत में ही नहीं दुनिया के अनेको लोकतंत्र वाले देशों में सदनों में कुर्सी या मल्ल युद्ध हो रहे हैं। इसके बावजूद भी वहाँ सदन की सदस्यता से सदस्यों को निलंबित नहीं किया गया।"
मैं प्रधानमंत्री जी से माँग करूॅगा कि:-
1. सभी निलंबित सदस्यों की बहाली का प्रस्ताव लाए।
2. मतदान की तारीख तय कर सदन के सभापति जी से अनुरोध करें कि, राज्यसभा में विधेयकों पर मतदान हो।
3. प्रतिपक्षी दलों से बात करें।
4. किसान संगठनों से चर्चा करें।
5. अपने एन.डी.ए. के घटक दलों से बात करें।
6. उन्होंने संसद में जो कहा है कि एम.एस.पी. (न्यूनतम समर्थन मूल्य) खत्म नहीं किया जाएगा, यह प्रावधान विधेयक में शामिल करें।
7. अच्छा हो कि, सरकार इन प्रस्तावों को अभी लागू करने के बजाय 3 या 6 माह को स्थगित करे तथा इन प्रस्तावों पर समूचे देश में जनता के बीच चर्चा करायी जाए। और प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर कानूनों को संशोधित कर सर्वसम्मति से लाने की पहल करे। अगर अभी भी प्रधानमंत्री जी ये कदम उठाएंगे तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छी परंपरा होगी वरना जिस रास्ते वो बढ़ रहे हैं, वह खतरनाक तंग गली है और जिसका अंत लोकतांत्रिक प्रणाली को दुखद हो सकता है।
swatantrabharatnews.com