
बोलियों व भाषा का फर्क: रघु ठाकुर
राजनैतिक पैगम्बर- महान समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक- रघु ठाकुर की प्रस्तुति:
"एक राष्ट्र भाषा भी होती है जो समूचे देश के लिए होती है, रुस, चीन, ब्रिटेन, अमेरिका, हिन्दी पखवाड़ा के उपलक्ष्य में लेख":
"बोलियों व भाषा का फर्क" शीर्षक से प्रस्तुत अपने लेख में रघु ठाकुर लिखते हैं कि, फिर से एक बार देश में हिन्दी विरोधी अभियान सुरु हुआ है।
कुछ शैक्षणिक संस्थाओं ने शोध कार्य के लिये अंग्रेजी की अनिवार्यता तय की है। निजी शिक्षण संस्थाओं में विषेषतः बाल शिक्षा (के.जी) और प्राथमिक शिक्षा में न केवल अंग्रेजी को अनिवार्य रुप से पढ़ाया जाता है बल्कि स्कूल के अन्दर अंग्रेजी में ही बात-चीत करना अलिखित तौर पर अनिवार्य कर दिया गया है, यानि शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी ज्ञान के साथ-साथ अंग्रेज भी तैयार किये जा रहे है। बच्चों केा स्कूल के अन्दर हिन्दी बोलने पर दण्डित व अपमानित किया जाता हैै। इन शिक्षण संस्थाओं में हिन्दी बोलना असभ्यता का पर्याय माना जाता है।
अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों के माता-पिता भी गर्व के साथ बताते है कि, उनका बच्चा अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ रहा है और वे भी बच्चों से दैनिक जीवन में अंग्रेजी में बातचीत का प्रयास करते है। कुछ अंग्रेजी पढ़े माॅ-बाप तो हिंग्लिश का प्रयोग करते है। यानि कुछ शब्द हिन्दी कुछ अंग्रेजी।
रेल यात्रा में अक्सर इस हिग्लिंश का प्रयोग सुनता हॅू। जहाॅ माता-पिता बच्चे से कहते है बेटे ’’शू पहना दूॅ’’ आदि। और फिर कुछ शान के साथ बताते हैं कि, मेरा बेटा तो अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय मे पढ़ता है। नौजवान जो अंग्रेजी स्कूल में पढ़े लिखे व अंग्रेजी के उच्चारण को कुछ इस प्रकार से अटक-अटक कर करते हैं, जिस प्रकार यूरोप या अमेरिकी लोग करते है। यानि भाषा और उच्चारण दोनो में नकल है। स्थिति यहाॅ तक पहॅुची है कि, महानगरों में अंग्रेजी के अमेरिकी, एंव ब्रिटिश उच्चारणों के तरीको को भी सिखाने वाली संस्थायें शुरू हो गई है।
इन देशों में नौकरी के लिये जाने वाले या नौकरी तलाषने वाले नौजवान इस अटकउल अंग्रेजी सीखने पर पैसा भी खर्च करते है और गौरवान्वित होते है।
पिछला ’’विश्व हिन्दी सम्मेलन’’ म.प्र. की राजधानी भोपाल में हुआ था। जिसका उद्घाटन करने के लिये प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी आये थे। इस सम्मेलन में काफी सरकारी पैसा भी खर्च हुआ था। भले ही यह विश्व हिन्दी सम्मेलन संकीर्ण मानसिकताओं की वजह से भा.ज.पा सत्तापक्षी हिन्दी सम्मेलन या सरकारी सम्मेलन जैसा बन गया था, तथा गाॅधी से लेकर गाॅव तक इस सम्मेलन में उपेक्षित थे। फिर भी यह उम्मीद लोगों के मन में थी कि, इस सम्मेलन के बाद सरकार हिन्दी व राष्ट्रभाषा के लिये कुछ करेगी। परन्तु सदा की तरह लोगो को निराशा ही हाथ लगी और सरकारी तंत्र में हिन्दी का स्थान बढ़ने के बजाय कम ही होता गया।
अगर सरकार ने थोड़ा भी प्रयास किया होता तो, कम से कम सरकारी सूचनाओं में तथा सूचना तकनीक में हिन्दी का स्थान बन सकता था। परन्तु पिछले लगभग 06 वर्षो में जितनी भी सरकारी योजनाओं की चर्चा हुई है, उनके तो नाम तक हिन्दी में नही है। वे चाहे ’’मेक इन इंडिया’’ हो, कैशलेश, डिजिटिलाईजेशन हो, इत्यादि-इत्यादि।
न्यायपालिका में भी अगर सरकार ने पहले चरण में अंग्रेजी के साथ हिन्दी भाषा की अनिवार्यता को लागू कर दिया होता तो भी हिन्दी का मार्ग प्रशस्त होता तथा व्यक्ति अपनी इच्छा से अपनी भाषा का चयन कर सकता था। देश के अंग्रेजी समर्थकों ने संभव है कि वैष्वीकरण की ताकतों और कारपोरेट के इशारों पर हिन्दी के खिलाफ अंग्रेजी के पक्ष में सुनियोजित अभियान चलाया हैै। कांग्र्रेस पार्टी के तिरुवन्तपुरम के सांसद व पूर्व मंत्री श्री शशि थरुर जो देश में सुंनदा पुष्कर कांड से ज्यादा चर्चित है, ने हिन्दी के विरुद्व एक नई बहस एक लेख के माध्यम से शुरू की थी। उन्होंने अपने लेख में चार बिन्दु उठाये हैं:
1. हिन्दी भाषा जाति का रुप ले रही है और हिन्दी जाति बन रही है।
2. राष्ट्र भाषा या हिन्दी की चर्चा करना, यह हिन्दी के द्वारा दूसरी भाषाओं का दमन करना है।
3. हिन्दी देश के मात्र 50 प्रतिशत की भाषा है वह भी तब जब 47 बोलियाॅ को जैसे कि भोजपुरी, मगधी, बुंदेली आदि को इसमें शामिल माना जाये। हिन्दी बोलियों को पीछे कर रही है।
4. तमिलनाडु या कलकत्ता में कोई हिन्दी बोलने वाला या समझने वाला नही हैै । तथा हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने से एक नई भाषा का बोझ बढ़ेगा।
5. एक राज्य दूसरे राज्य के लिये अगर अपनी भाषा में पत्र लिखेगा तो वह दूसरे राज्य के लिय कठिन होगा। उन्होंने तमिलनाडु के द्वारा उड़ीसा राज्य को पत्र लिखने तथा स्व.ज्योति बसु के द्वारा प.बंगाल की ओर से तत्कालीन रक्षामंत्री श्री मुलायम सिंह यादव को बंगला भाषा में पत्र लिखने का उल्लेख किया है।
उनके निराकरण के लिये निम्न पर ध्यान देना जरुरी है:-
(अ.) हिन्दी किसी एक प्रेदश की भाषा नही है और न जाति की बल्कि हिन्दी देश के बड़े इलाके में गुजरात, महाराष्ट्र, जैसे की गैर हिन्दी भाषी प्रदेश में भी अगर जाति की भाषा होती हो तो समूचे यूरोप की भाषा अंग्रेजी होती, परंतु फांस, जर्मनी, तुर्की, स्पेन आदि कितने ही देशों की भाषा अंग्रेजी नही है वरन उनकी अपनी केन्द्रीय भाषायें है और देश की बड़ी आबादी के द्वारा बोली व समझी जाने वाली भाषा है।
श्री थरुर को क्या इतना भी ज्ञान नही है कि, भाषा जातियों की नही होती बल्कि क्षेत्रों की होती है। गुरुवर रविन्द्र नाथ टैगोर और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने भी हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने का समर्थन किया था। बंगला भाषा का अधिकांश साहित्य हिन्दी में अनुवादित भी है और पढ़ा जाता है। बंगाल के काफी बड़ी संख्या में लोग छत्तीसगढ़, बिहार, उ.प्र. के इलाकों में और विशेषतः बनारस, इलाहावाद आदि में भी बसे है।
आजादी के बाद राजधानी दिल्ली में बड़ी संख्या में बंगाली परिवार आ कर बसे है। ये सब हिन्दी समझते है और हिन्दी में बात करते है। महात्मा गांधी ने जो स्वतः गुजराती भाषी थे, हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने का प्रस्ताव किया था। हिन्दी एक बड़ी आबादी व क्षेत्र की बोली और समझी जाने वाली भाषा है।
(ब.) दुनिया में सभी जगह क्षेत्रीय भाषायें तो होती है परन्तु आदि कितने ही उदाहरण दिये जा सकते है। हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने की माॅग करने से दूसरी भाषाओं का दमन कैसे होता है?- अंग्रेजी कोई तमिलनाडु, केरल, या दक्षिण के प्रदेषो की क्षेत्रीय भाषा नही है बल्कि अंग्रेेजी यहाॅ ब्रिटिश हुकुमत के बाद ही आई। आदि-शंकराचार्य व तमिल तेलगू, मलयाली, कन्नड़ भाषी लोगो का आना-जाना उत्तर भारत में हजारो साल से होता रहा है। जब राम लंका गये थे तब क्या वे अंग्रेजी में संवाद करते थे? क्या रावण व लक्ष्मण का संवाद, विभीषण और राम का संवाद अंग्रेजी में हुआ था?
देश की सभी प्रादेशिक भाषाओं व हिन्दी के ज्यादातर शब्द एक जैसे हैं। बंगाल का जल या हिन्दी का पानी समझने में किसी को दिक्कत नही होती। केरल, तमिलनाडु, या आंध्रप्रदेष कर्नाटक के ग्रामीण अचंलो के लोग हिन्दी की फिल्मे देखते है, हिन्दी के गाने सुनते है और इन प्रदेशों के ग्रामीण-जनों को आज भी अंग्रेजी सीखना पढ़ती है।
दमन तो सही अर्थो मे अंग्रेजी कर रही है, जो देशज योग्यता और उसके अवसरों को भाषा की कसौटी के आधार पर अवसर पाने के पूर्व ही प्रतिभा को नष्ट कर देता है। अगर अंग्रेजी हुकुमत आने के बाद लोगो ने अंग्रेजी सीख ली तो वे हिन्दी भी सीख सकते है। अंग्रेजी भाषा देश के 80-90 करोड़ लोगो की योग्यता व अवसरों का दमन है। दरअसल प्रतिभा, क्षमता और योग्यता से आम भारतीय को पृथक करने वाली ताकतें अंग्रेजी भाषा की तलवार का इस्तेमाल कर रही है।
(स.) हिन्दी राष्ट्र भाषा बनाने का मतलब एक राष्ट्रीयता के भाव को पोषित व पल्लवित करना भी है। 1930 के दशक में जब स्व.राजगोपालाचार्य ने तमिलनाडु में हिन्दी शुरू की थी, तब भी कुछ अंग्रेजी समर्थकों ने प्रान्तीय भाषा और प्रान्तीयता का सवाल उठाया था। तब महात्मा गाॅधी ने स्व.राजगोपालाचार्य का समर्थन करते हुये कहा था कि ’’राष्ट्रीयता के प्रसार के लिये प्रान्तीयता को भेदना आवश्यक है और हिन्दी और प्रान्तीय भाषाएँ या तमिल आदि एक साथ चलकर राष्ट्र को मजबूत करेेगी।’’
(द.) श्री शशि थरुर देश की 47 उन बोलियों का समर्थक बनने का छदम प्रयास कर रहे है जो हिन्दी की शक्ति व जान है वे हिन्दी का अंग ही नहीं हिन्दी ही है। भाषा और बोली का फर्क क्षेत्रीय शब्दावली से नही होता है बल्कि लिपि के आधार पर होता है।
हिन्दी भाषा की इन बोलियो की लिपि देवनागरी है। दरअसल बोलियों के पक्षधर बनकर श्री थरुर अंग्रेजी का बहुमत बनाना चाहते है। अगर बोलियो को भाषा मान लिया जायेगा तो हिन्दी खण्ड-खण्ड हो जायेगी और अंग्रेजी देश की सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा बन जायेगी और फिर अगले चरण में बहुत संभव है कि ये अंग्रेजी समर्थक लोग अंग्रेजी को भारत की राष्ट्र भाषा बनाने की मुहिम चलायें। नई शिक्षा नीति के दस्तावेज़ में, प्राथमिक शिक्षा या बच्चों की शिक्षा का प्रावधान उनकी मातृ भाषा में सुझाया है परंतु उच्च शिक्षा के लिये, राष्ट्र भाषा के रूप में हिन्दी को लाने का प्रारूप सीधा नहीं है।
मैं भारत की क्षेत्रीय व प्रान्तीय भाषा वालो से कहना चाहॅूगा, कि अंग्रेजी समर्थको के इस कपट व षडंयत्र को समझें व सावधान हो जाएँ। बोलियो को अगर भाषायें मान लिया जायेगा तो प्रान्तीय भाषायें भी टूट कर बिखरेगी। विदर्भ की मराठी, व पुणे की मराठी, कोकणी, आंध्र की तेलगू छ.ग. में बस्तर की गौडी व हल्वी आदि के उच्चारणों के आधार पर वहाॅ के लोगो को भड़काया जायेेगा तथा फूट डालो राज करेा जो आजादी के पहले अंग्रेजी सिद्वांत था वह फिर सफल हो जायेेगा। बोली 'भाषा' नही है बल्कि एक भाषा का क्षेत्रीय प्रयोग उसके शब्द व उच्चारण हैं। बोलियों को भी सरकार को संरक्षण देना चाहिये परन्तु बोलियो के रुप में, न की भाषा के रुप में तथा इसके लिये संविधान में एक पृथक प्रावधान जोड़ना चाहिये ताकि बोलियो के साहित्य व संस्कृति को सुरक्षित रख जा सके।
मैं भारत सरकार से अपील करुॅगा:-
1. भारतीय संविधान में संशोधन कर बोलियो के संरक्षण के लिये पृथक प्रावधान जोड़ा जाये।
2. व्यक्ति विवरण में भाषा का काॅलम रहे जो लिपि आधारित हो और बोली के लिये पृथक काॅलम बनाया जा सकता है।
3. सरकार शिक्षण संस्थाओं में हिन्दी और एक अन्य प्रादेशिक भाषा का ज्ञान अनिवार्य करें तथा अंग्रेजी ऐच्छिक भाषा रहें।
4. न्यायपालिका की भाषा फिलहाल कुछ समय के लिये प्रायोगिक व प्राथमिक तौर पर हिन्दी व अंग्रेजी दोनो रखी जा सकती है। याने, यह व्यक्ति व वकील पर निर्भर हो कि वह कौन सी भाषा चुनते हैं।
हालांकि अब सर्वाेच्च न्यायालय ने हिन्दी के प्रयोग की कुछ शुरूआत की है, परन्तु यह अभी मकान की एकाद खिड़की खोलने जैसा है, हिन्दी व क्षेत्रीय भाषायें न्यायपालिका की भाषा तभी बनेगी जब शीर्ष अदालतें उनके लिये सभी दरवाजे व खिड़कियां खोल देगी।
5. राज्य व केन्द्र का व्यवहार हिन्दी व प्रान्तीय भाषा में आरंभ करे तथा अखिल भारतीय सेवाओं के लिये हिन्दी को अनिवार्य करें।
राष्ट्रीय एकता के लिये एक राष्ट्र-भाषा जरुरी है और उसका स्थान लेने की क्षमता सारे संकटो के बावजूद अभी भी केवल हिन्दी के पास ही है।
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