
विशेष: कोविड-19: कोरोना भय की पीछे की रणनीत: रघु ठाकुर
"कोरोना वायरस महामारी" को लेकर
ख्यातिनाम गांधीवादी - महान समाजवादी चिंतक व विचारक तथा शहीद-ए-आजम भगत सिंह एवं डॉ. लोहिया के सैद्धांतिक लक्ष्य, जो एक ऐसे 'समतामूलक
समाज' की स्थापना, जिसमें कोई व्यक्ति किसी का शोषण न कर सके और किसी प्रकार का अप्राकृतिक अथवा अमानवीय विभेद न हो, को पूर्ण करने हेतु
समर्पित
लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के संस्थापक व राष्ट्रीय संरक्षक- रघु ठाकुर के विचार-
"कोरोना पर बहस खुल कर हो" शीर्षक से प्रकाशित लेख के प्रकाशन के बाद "विशेष" में प्रस्तुत है उनका आज का लेख -
शीर्षक है - "कोरोना भय की पीछे की रणनीत": रघु ठाकुर
आज के अखवारों की सूचनाओं के मुताबिक कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या 5689 और कुल मृतकों की संख्या 181 हो गई है। इसका अर्थ है कि, देश में घोषित रूप से 21 दिन में लाॅकडाउन व कफ्र्यू से संक्रमण का फैलाव लगभग प्रभावहीन हो रहा है। उसके केवल कुछ खास इलाके बचे हैं जहाॅं ज्यादा संभावनाएं हैं। जैसे मुम्बई की सघन धारावी -हजयोपडपट्टी या दिल्ली, इंदौर, चैन्न्ई, हैदराबाद जैसे बडे शहरों में कुछ क्षेत्र- सरकारें को चाहिए की इन इलाकों में पूर्ण बंदी कर अनिवार्यतः सब की जाॅंच कराए। साथ ही चूँकि आमतौर पर यह गरीब इलाके हैं, अतः इनमें खानपान की व्यवस्था भी कराऐं।
इसमें कोई दो मत नही है कि, समूचे देश में अपवाद छोड दें तो प्रशासन चिकित्सकों और पुलिस ने जान जेाखिम में डालकर परिवार छोड कर संक्रमण की जो खिम के साथ सेवाऐं दी हैं। कहीं कहीं मूर्खों, अंधविष्वासियों और अपराधियों ने इन सेवकों पर पत्थर चलाये, अपमानित किया, इन पर थूका, फिर भी उन्होंने अपनी सेवाऐं जारी रखी। मध्यप्रदेश के कुछ अफसर यथा पल्लवी जैन अपवाद हैं, जिन्होंने अपनी विदेश से लौटी बेटी जो संक्रमित थी, की यात्रा को छुपाया। परिणाम स्वरूप खुद भी संक्रमित हुई तथा स्वास्थ्य विभाग के बडे अमले को भी संक्रमित कराया। इनके खिलाफ सरकार को सख्त कार्यवाही करना चाहिए। ताकि आमजन के मन में कानून के प्रति विश्वास रहे।
पिछले लगभग 13 दिनों के अनुभव से यह स्पष्ट है कि, देश कोरोना के नाम से जितना भयभीत है, उतने की आवश्यकता नही है। हमारे देश में एक वर्ष में लगभग डेढ़ से दो लाख लोग दुर्घटना के शिकार हो जाते है। लगभग 5 लाख लोग टी.बी. के शिकार हो जाते हैं। और इसी प्रकार हृदय,कैंसर आदि से भी बडी संख्या में लोगों की मौत हो जाती है। पर आदमी इतना भयभीत हो गया या कर दिया गया है कि इंसान, इंसान से डरने लगा है।
7 अपैल को जबलपुर में एक हिंदु महिला की मौत हो गयी। उसकी बेटी ने शहर के अपने तमात रिश्तेदारों को फोन किया, परन्तु 9 घंटे के इंतजार के बाद भी कोई नहीं पहुॅंचा। फिर उसने पडोसी- समाजसेवी श्री इनायत अली को फोन किया कि, भईया माॅं की मौत हो गयाी है। श्री इनायत अली अपने साथियों के साथ पॅंहुचे। उन्होंने ना केवल मृत महिला की अर्थी को कंधा दिया बल्कि हिन्दू रीति रिवाज से क्रियाक्रम कराया। ऐसी और भी घटनाऐं मीडिया के माध्यम से सामने आयी है दूसरी तरफ एक और खबर थी कि एक पुरुष का निधन होने के बाद जब उसकी अर्थी जाने लगी, जिसे शायद निगम के लोग ले जा रहे थे तो, उनकी पत्नी ने उन्हें कमरे के अंदर से ही विदाई दे दी। भारतीय समाज के लिए ऐसी घटनाऐं आष्चर्यजनक हैं।
हाॅलाकि कर्तव्य पराकाष्ठा की खबरें उत्साहित भी करती है। जैसे उड़ीसा के भुवनेश्वर के कलेक्टर चयनी ने अपने पिता की मृत्यू के बाद और इंदौर के एक डाक्टर ने अपनी माॅं की मृत्यू के बाद काम पर लगें रहने का निर्णय किया और कोरोना प्रभावितों को अपनी संवाऐं देते रहे।
मीडिया को भी अब केवल "भय का वातावरण" बनाने के बजाय "भय मुक्त" बनाने का प्रयास करना चाहिए। संक्रमण न फैले उस सीमा तक तो ठीक है परन्तु "कोरोना के भय का संक्रमण" न फैले यह भी प्रयास करना चाहिए। वरना इसके भी गंभीर परणिाम आना संभावित है। भारत सरकार या राज्य सरकारों ने जिस प्रकार के कदम उठना सुरू किये हैं, उनके परिणाम समाचार पत्रों में यदा-कदा दिखते हैं।
आज जागरण अखबार में खबर छापी है कि, गरीब आदिवासी लोग गेहूॅं पिसाने नही जा पा रहे है। और लाचारी में वे गेहूं उबाल कर खा रहे हैं।
आज भोपाल की खबर है कि, राशन की दुकान बंद रहेगी तथा साॅंची और कुछ दुकानों से होम डिलेवरी की जायेगी। देश में लगभग 2 से 3 करोड छोटे दुकानदार हैं, जो राशन, किराना आदि बेचते हैं। अब अगर महीनों तक उनका काम बंद रहेगा तो क्या उनकी आजीविका ही खत्म नही हो जायेगी ? जो भी सामान उनकी छोटी - मोटी दुकान में पहले से रखा है, कुछ चूहे नष्ट करेंगे कुछ ऐसे ही खराब हो जायेगा। होम डिलेवरी कितनी ही बेहतर बना दें और प्रयास करें परन्तु अभी भी देश में करोडों ऐसे और आम ग्राहक हैं जो इन थोक दुकानों तक फोन या एप से संपर्क नही कर सकते।
फिर ये थोक बिक्रेता 50/= रूपये या 100/= रूपये का सामान नहीं देंगे और वह अगर देने लगे तो स्वाभाविक है कि पहले अपना खर्च भी निकालेंगे। अतः गरीब के लिए सामान बहुत महंगा मिलेगा। संक्रमित प्रभावित इलाकों को छोडकर बकाया इलाकों में किराना दुकानो पर प्रतिबंध लगाना अनुचित भी है और जन विरोधी भी। ऐसे निर्णय से कालांतर में फुटकर व्यापारी स्वतः समाप्त हो जायेगा तथा फ्लिप कार्ट, अमेज़ॉन, डी-मार्ट जैसी विदेशी और देशी- बडी पूॅंजी वाले करोडों रोजगार हजम कर लेंगे। एक वर्ग में यह वास्तविक शक है कि, कहीं सरकार के इस असंतुलित निर्णय के पीछे WTO के समझौते का पालन कराने का, कोरोना को माध्यम बनाकर अपना लक्ष्य पुर्ण कराना तो नहीं हैं।
प्रधानमंत्री जी ने कहा है कि, लॅाकडाउन एक मुस्त समाप्त नही करेंगे। और उनके घोषित-अघोषित संकेत को समझकर नौकरशाह ऐसे निर्णय कर रहे हैं जो अतार्किक और आम आदमी के खिलाफ है। जैसे भारतीय रेलवे ने लाॅकडाउन के बाद की योजना बनाई है:
1- यात्री को चार घंटे पहले पहुॅचना होगा।
2- प्लेटफार्म टिकट 50/= रुपये का होगा।
3- परीक्षण उपरांत रेले में बैठेगें, परन्तु टीटीई महोदय को यह अधिकार होगा कि, अगर उन्हें किसी यात्री के संक्रमित होने का शक है तो उसे रास्ते में कही भी उतार सकेंगे।
4- जरनल क्लास और वातानुकूलित क्लास बंद कर दी जाऐगी तथा डिब्बे में चार- चार सीटें छोडकर स्लीपर में आरक्षण दिया जायेगा।
5- वरिष्ठ नागरिकों को यात्रा की अनुमति नहीं होगी। आप कल्पना कीजिए कि, रेलवे जो पहले से ही यात्रा सेवा को रेल के लिए घाटे का कारण बताती रही है, अब क्या और घाटे में नहीं जायेगी?
एक तो इसके पीछे का लक्ष्य रेल यात्रा को इतना सुविधाजनक बनाना है ताकि आदमी चलना ही बंद कर दें। ताकि फिर रेलवे का निजीकरण हो सके।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री जी ने इंदौर और भोपाल के उन अपराधियों पर रासुका लगाई है, जिन्होंने काम करने वाले कर्मचारी भाईयों और पुलिस के ऊपर हमले किये थे। मैं उनके इस निर्णय का सर्मथन करता हूॅ और उनकी प्रशंसा करता हॅूं। परन्तु एस्मा लगाने का उनका निर्णय मेरी समझ के परे है।
जब अधिकांश सरकारी कर्मचारी अपने कर्तव्य का निर्वहन जान जोखिम में डाल कर घरों को छोड कर होटलों- दफ्तरों- धर्मशाला में रहकर निभा रहे हैं तो एस्मा की आवस्यकता क्यों पड़ी?
कहीं ऐसा तो नहीं कि, सरकार को अपनी बिगडी वित्तीय व्यवस्था के कारण कर्मचारियों को वेतन आदि देने में कठनाई हो रही और उसमें खासी कटौती करना चाहती हो तथा इसका कोई विरोध न हो इसलिए पहले से ही कोरोना के आतंक का माहौल बनाकर लाभ उठाया जाए तथा एस्मा के माध्यम से संभावित हडताल को ना होने दिया जाए।
अगर ऐसा है तो यह एक खतरनाक कदम होगा। इससे लोकत्रंत को खतरा और यह एक प्रकार का अघोषित आपातकाल जैसा होगा।
मैं इस महामारी के संकट में काम कर रहे कर्मचारी भाईयों का अभिवादन करता हूँ। यह सही अर्थों में कोरोना सेवियर्स नहीं बल्कि भारत को बचाने वाले सेवियर्स (रक्षक) हैं।
प्रिंट मीडिया ने इस संकट में अपनी साख पुनः स्थापित की है और खबरों को प्रमाणिक -ढंग से प्रस्तुत किया है। उनके नजरिये पर मत भिन्नता हो सकती है परन्तु उन्होंने इन खबरों को तथ्यात्मक -ढंग से सिद्व किया है। मैं सरकारों से अपील करूंगा कि, उन्हें भी आवश्यक सहयोग करें और खडे रहने में मदद करें।
अंत में मैं सभी नागरिकों से अपील करूंगा कि स्वेच्छा से सरकार के नियमों का पालन करें। कानून या पुलिस को कार्यवाही करने का अवसर न दें। व्यक्ति के पास अपनी रचनात्मकता व्यक्त करने के बहुत तरीके है। संगीत, गायन, लेखन, योग, व्यायाम, बागवानी, घरों की सफाई, महापुरुषों की किताबें पढ़ने जैसे अनेंकों काम हैं, जिनमें बगैर बोरियत के समय निकल जाएगा तथा सड़कों पर गैर जरूरी घूमने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
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