
धारा- 144 का दुरूपयोग बंद हो: रघु ठाकुर
नयी दिल्ली: लोकतान्त्रिक समाजवादी पार्टी ने सरकार से मांग की है कि,"धारा- 144 का दुरूपयोग बंद हो"।
भारत में धारा 144 के दुरुपयोग को बंद करने कि मांग करते हुए राजनैतिक पैगम्बर और लोकतान्त्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक- महान समाजवादी चिंतक व विचारक- रघु ठाकुर ने शुक्रवार को बताया कि, भारत के सर्वाेच्च न्यायालय ने कल जम्मू-कश्मीर में 5 अगस्त 2019 से लगाए गए इन्टरनेट और सभा आदि पर प्रतिबंध के संबंध में याचिकाओं को सुनते हुए निर्णय दिया कि, ‘‘इन्टरनेट पर प्रतिबंध लगाना पूर्णतः गलत है। इन्टरनेट नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है।"
जस्टिस एन बी रमना वाली तीन सदस्यीय बेंच ने अपनी सर्व सम्मत राय देते हुए यह बात कही। उन्होंने यह भी कहा कि, "अनिश्चित काल के लिए इन्टरनेट बंद करना टेम्परेरी सस्पेंसन आफ टेलीकाॅम रूलस् आफ 2017 के तहत भी अस्वीकार्य है। क्योंकि वह कोई स्थाई प्रतिबंध लगाने की अनुमति नहीं देता। इन्टरनेट व्यापार, शिक्षा अजीविका और अभिव्यक्ति के लिए एक अहम साधन है।"
सर्वाेच्च न्यायालय ने इन्हीं याचिकाओं पर निर्णय देते हुए यह भी कहा कि ‘‘बोलने की आजादी दबाने के लिए धारा 144 लगाना सत्ता का दुरूपयोग है, तथा धारा 144 तब लगायी जा सकती है, जब खतरे की आशंका इतनी गम्भीर हो जैसे आपातकाल के वक्त थी। व्यक्तिगत अधिकारों और राज्य के हितों की चिंता में संतुलन बनाना न्यायिक मजिस्ट्रेट का काम है।’’
माननीय न्यायाधीश महोदयों ने संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों पर राज्य के द्वारा अनावश्यक और प्रतिबन्धों के लगाए जाने पर गहरी नाराजगी व्यक्त की।
उन्होंने यह भी कहा कि, "पिछले कुछ समय से यह अकसर देखने में आता है, कि सत्ताधीशों के इशारे पर प्रशासनिक अधिकारी धारा 144 लगाने और इन्टरनेट पर प्रतिबंध लगाने का कदम उठाते है, तथा अतार्किक और गैर जरूरी होते हुए भी वे इन प्रतिबंधों को दीर्घकालिक बनाकर संविधान प्रद्त अभिव्यक्ति के अधिकार को रोकते है, और संविधान विरोधी काम करते है। पिछले कुछ वर्षाें से लोकतंत्र की आत्मा को क्षति पहुँचाने के ऐसे कदम विभिन्न स्वरूपों में लगभग देश के सभी राज्यों में सरकारों के इशारे पर नौकरशाह उठाते है।"
उन्होंने कहा कि, "यह भी अनुभव में आया है कि दल कोई भी क्यों न हो परन्तु संविधान प्रद्त अभिव्यक्ति के अधिकार और मूल अधिकारों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रोक लगाने में कोई पीछे नहीं है। वैसे ही प्रशासन तंत्र और सरकारों ने मिलकर ऐसे तरीके इजाद किए है कि जिससे संविधान प्रद्त मूल अधिकारों का इस्तेमाल ही न हो पाये।"
1. पिछले दो दशकों से जिला दण्डाधिकारियों के कार्यालय/ निवास और अधिकारियों व विशिष्टजनों के लिये बनाये जाने वाले भवन शहरों से इतनी दूर बनाये जाने लगे है, जहाँ सामान्य व्यक्ति को और विशेषतः पैदल चलने वाले व्यक्ति को जाना खर्चीला एवं लाचारीवश होता है। अनेकों जिला मुख्यालयों पर ऐसे भवनों की शहर या कस्बे से दूरी 3 या 4 कि.मी. तक है, और एक प्रकार से ये आमजन से सत्ता तंत्र और जन प्रतिनिधियों को दूर रखने का षड़यंत्र है।
2. जहाँ-जहाँ नये विधानसभा भवन या सचिवालय बन रहे हैं, वे भी शहरों से दूर बनाये जा रहे हैं, जहाँ आम आदमी का पहुँचना मुश्किल है। इस प्रकार सत्ता और प्रशासन, धरना प्रदर्शन, और जनमत के दबाव से दूर हो जाते है। छ.ग. की राजधानी रायपुर में नया विधानसभा का भवन और मंत्रालय इतना दूर है कि सामान्य व्यक्ति का वहाँ पहुँचना कठिन है। जिनके पास अपनी कार या गाड़ियाँ है वे ही वहाँ पहुँच सकते है, यहाँ तक की बसों की सुविधा भी नहीं है। कुल मिलाकर यह एक अलोकतांत्रिक षड़यंत्र है। जो मतदाता सरकार बनाते है, जन प्रतिनिधियों को चुनते है, उनके प्रतिनिधियों को जनता से दूर कर दिया जायें।
3. धारा 144 को प्रशासन तंत्र ने एक सर्वकालिक घटना बना दिया है, और शहरों में विशेषतः राजधानियों में वर्ष में 5-6 माह तो सामान्य तौर पर धारा 144 लगी रहती हैं। अब धीरे-धीरे शहरों के बीच के स्थानों पर भी भले ही छोटे ही क्यों न हो धरना, प्रदर्शन को प्रतिबंधित किया जा रहा है, और इतने दूरस्थ स्थान इस उद्देश्य हेतु चयनित किये जा रहे हैं, कि जहाँ पहुँचना ही सामान्य नागरिक के पहुँच के बाहर हो। यानि भारतीय संविधान द्वारा प्रद्त शाँतिपूर्ण धरना प्रदर्शन का या शाँतिपूर्ण विरोध का अधिकार बगैर घोषित प्रत्यक्ष रोक के अपने आप थम जाये। नियमों को और प्रशासनिक आदेशों को इतना जटिल और कठिन बना दिया जाये ताकि विरोध का कोई अर्थ न रहे। धरना प्रदर्शन में आमतौर पर जो लोग शामिल होते है, वे पीड़ित या प्रभावित पक्ष के थोड़े बहुत हिस्से होते है, परन्तु आम-जन जो भले ही सीधे पीड़ित न हो कई बार वह भी इन प्रश्नों व मुद्दों के पक्ष में मानसिक तौर पर खड़े होते हैं। पर जब वह किसी घटना को न देख सकेगा, न सुन सकेगा, न पढ़ सकेगा तो उससे किसी प्रतिक्रिया की आशा नहीं की जा सकती।
4. शहरों और राजधानियों में तो सभा, धरना, प्रदर्शन की अनुमति लेना इतना जटिल हो गया है कि वह भी एक अवरोध जैसा ही है। धरना प्रदर्शन या सत्याग्रह करना चाहने वाला पहले डी।एम। को या सक्षम अधिकारी को आवेदन पत्र देगा फिर उसका कार्यालय रपट हेतु पुलिस अधीक्षक को संदर्भित करेगा। फिर आवेदनकर्ता पुलिस अधीक्षक के पास जायेगा, फिर पुुलिस अधीक्षक की टीप लेकर आवेदनकर्ता पुलिस थानेदार के पास जायेगा, फिर उन सबकी संस्तुति डी।एम। कार्यालय में जमा करायेगा। और कुछ दिन सक्षम अधिकारी के हस्ताक्षर का इंतजार करेगा, तब कहीं अनुमति मिलेगी या अनुमति नहीं मिलने की सूचना मिलेगी। बिना अनुमति के प्रतिरोध-प्रदर्शन करना दो कारणों से कठिन होता है, एक-इसलिये कि स्पीकर टेन्ट आदि लगाने वाले पुलिस से भयभीत होते है कि उनका सामान जब्त न हो जाये। इसलिये वे बगैर अनुमति के स्पीकर, टेन्ट उपलब्ध नहीं कराते। फिर बगैर स्पीकर के आप आपस में बात तो कर सकते है, परन्तु अपनी बात आम जनता को नहीं सुना सकते। तीसरे अगर आप एक दो दिन से अधिक धरना प्रदर्शन करना चाहे और अगर उसके लिये अनुमति नहीं है, तो टेन्ट वाला अपना सामान लेकर चला जायेगा, या फिर पुलिस उसे जब्त कर लेगी। यह स्थिति सामान्य काल की है, और एक प्रकार से अघोषित आपातकाल की है। यह चलन केवल एक सूबे या राजनैतिक दल की सरकार का नहीं है बल्कि सभी राज्यों और सभी दलों की सरकारों का है। सत्ताधारी दल के लोगों को अपने आयोजन करने की प्रशासन तंत्र अमूमन अघोषित छूट दे देता है। वे सड़कों पर भी आयोजन करें, यातायात बंद कर दे तो भी प्रशासन आँख बन्द किये रहता है, परन्तु विपक्ष के लिये सारे प्रतिबंध सामने आ जाते है।
रघु ठाकुर ने कहा कि, "अभी दिसम्बर माह में म.प्र. सरकार ने राजधानी, भोपाल सहित सारे प्रदेश में धारा 144 लगा दी थी परन्तु 21 या 22 दिसम्बर को प्रदेश के सरकार के मुखिया ने राजधानी में शान्ति मार्च का सम्मेलन किया। उसके बाद आनन-फानन में 25 दिसम्बर को पूरे प्रदेश में लगायी गयी धारा 144 घोषणा के बाद ही हटा ली गयी क्योंकि मुख्यमंत्री की रैली होना थी। न 144 लगाने का कोई कारण था न हटाने का। केवल सत्ता की आवश्यकता ही घोषणा बन जाती हैं, और सत्ता के ईशारे पर चलने वाला प्रशासन तंत्र जहाँ एक तरफ जन विरोधी कदम उठाकर सत्ता की चाटुकारिता करता है, वहीं दूसरी ओर जनता के लिये निरंकुश असंवैधानिक तानाशाह जैसा बन जाता है। यह कितना विचित्र है कि उद्योगपतियों के लिए तो सिंगल विन्डो सिस्टम है और सारी अनुमतियाँ एक खिड़की पर मिल जायेगी पर आम जनता, संगठनों, राजनैतिक दलों के लिये ‘‘सैवन विन्डो’’ सिस्टम है। क्या यह लोकतंत्र का क्षय और संविधान की भावना पर आघात नहीं है? परन्तु इन मामलों पर सारे वे राजनैतिक दल जो सत्ता में है सत्ता में रहें हैं, एकमत है कि आमजन को अधिकार माँगने शाँतिपूर्ण सिविल नाफरमानी धरना आदि से विमुख किया जाये।"
उन्होंने कहा कि, "यह कितना हास्यास्पद है कि 11 जनवरी 2020 के समाचार पत्रों में मुख्य पृष्ठ पर सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णय का अंश समाचार पत्रों में छपा है कि ‘‘अभिव्यक्ति या बोलने की आजादी पर रोक लगाने के लिये धारा 144 लगाना सत्ता का दुरूपयोग है, और धारा 144 तभी लगाई जाना चाहिये जब आपातकाल जैसी स्थिति हो और 11 जनवरी के ही समाचार पत्रों में अगले पेज पर खबर है, कि म।प्र। प्रदेश की राजधानी में, भोपाल कलेक्टर ने धारा 144 लगाकर आगामी 2 माह के लिये धरना प्रदर्शनों पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। यानि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का महत्व एक जिले के कलेक्टर के लिये भी नहीं है, उसके लिये तो केवल सत्ता का ईशारा चाहिये क्यों ‘‘कलेक्टरी सरकार देती है, सुप्रीम कोर्ट नहीं देता।’’ प्रथम द्रष्टया सरकारी आदेश में कहा गया है कि एन.आर.सी. और सी.ए.बी. के पक्ष और विपक्ष में होने वाले धरना प्रदर्शन को रोकने वाले के लिये यह आदेश दिया गया है। हालांकि अब स्थिति उलट गयी है कि एन.आर.सी. और सी.ए.बी. के विरोध के धरना प्रदर्शन लगभग थक कर समाप्त हो चुके हैं। और विशेषतः उन राज्यों में जहाँ गैर भाजपा की सरकारें हैं वहाँ विरोध प्रदर्शन पहले ही कम थे, और थे भी तो शाँतिपूर्ण थे। एन.आर.सी. और सी.ए.बी. के समर्थन में होने वाले प्रदर्शनों का दौर शुरू हुआ था जिनमें भीड़ हो सकती थी परन्तु उम्माद या हिंसा की संभावना नहीं ही थी।"
रघु ठाकुर ने कहा कि, "सर्वाेच्च न्यायालय की भावनाओं के आदेश को क्रियान्वयन कराना सरकारों और प्रशासन तंत्र का दायित्व है। अगर लोकतंत्र को केवल वोट और शाब्दिक रूप में नहीं बल्कि संवैधानिक दायित्व के रूप में सुरक्षित रखना है, तो सरकारों को विरोध प्रदर्शनों को दबाने या प्रतिबंधित करने के लिये धारा 144 जैसी धाराओं का दुरूपयोग बन्द करना चाहिये और यह समझना चाहिये कि इन पर रोक लगाने का प्रयास मकड़ी के द्वारा मकड़जाल बुनने जैसा है, जिसमें फँस कर ही मकड़ी की मौत होती है।"
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