
विशेष: मंदी का शोर रियायतों की लूट का खेल: रघु ठाकुर
आज "विशेष" में प्रस्तुत है_____
"महान समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक- राजनैतिक पैगम्बर - रघु ठाकुर"
द्वारा
"मंदी का शोर रियायतों की लूट का खेल" शीर्षक से प्रस्तुत लेख.
भोपाल: पिछले कुछ दिनों से देश में ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जैसे भारी मंदी का दौर आ गया है। अर्थ व्यवस्था निरंतर गिरती जा रही है और देश पर भारी आर्थिक संकट खड़ा हो रहा है। कुछ समय पहले ऐसे आंकड़े सामने आए जिसमें बताया गया कि देश की अर्थ व्यवस्था की पूर्व अनुमानित विकास दर 7 प्रतिशत का लक्ष्य पूरा नहीं होने वाला। बल्कि यह घटकर 5 प्रतिशत के आसपास रह जायेगी। नोटबंदी और जी.एस.टी. का रोना पिछले निरंतर 4 वर्षाें से यथावत जारी है। उम्मीद थी कि, 2019 के लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद अब नोटबंदी और जी.एस.टी. के मुद्दे जनमत के निर्णय के आधार पर भूतकालिक हो जाएंगे और नए आर्थिक सवालों पर चर्चा शुरू होगी, परन्तु देश का उद्योग जगत, व्यापार जगत और उनका सोशल मीडिया अभी भी इन मुद्दो को जिंदा रखकर राजनीति और बौद्धिक जगत की चर्चा को केन्द्र बिन्दु में रखना चाहता है।
नोटबंदी और जी.एस.टी. के बाद संघ प्रमुख- श्री मोहन भागवत के द्वारा सत्ताधारियों के मार्गदर्शन में यह कहने के बाद कि सरकार छोटे व्यापारी और किसानों पर विशेष ध्यान दे, उसके बाद केन्द्र और राज्यों की भाजपा सरकारों ने व्यापार जगत को कई रियायतें दी भी थी और व्यापार जगत ने भी लोकसभा के आम चुनाव में श्री नरेन्द्र मोदी का भरपूर समर्थन किया, जबकि किसानों को मात्र 6 हजार रूपया प्रतिवर्ष ही देने की घोषणा की, जो कि नगण्य है परन्तु किसानों ने राष्ट्रीय आधार पर अपने वोट का निर्णय किया।
इसी बीच देश के नीति आयोग के उपाध्यक्ष- श्री राजीव कुमार ने यह बयान देकर बाजार की सनसनी को और तेज कर दिया कि आने वाले समय में आर्थिक संकट और बाजार की मंदी बहुत गहराने वाली है। उन्होंने यहाँ तक कहा कि अगर हालातों को नियंत्रित नहीं किया गया तो स्थिति और बिगड़ सकती है। श्री सुब्रमण्यम स्वामी जो प्रायः हर बात के समर्थक है उन्होंने भी कहा कि केन्द्र सरकार दबाव डालकर जी.डी.पी. के आंकड़े बदलवाती है। नीति आयोग के उपाध्यक्ष श्री राजीव कुमार ने यहाँ तक कहा कि 70 सालों में देश ने कभी इस तरह की नगदी संकट का सामना नहीं किया, पूरा वित्तीय सेक्टर उथल फुथल के दौर में है। कोई एक दूसरे पर न तो भरोसा कर रहा है, न कर्ज देने को तैयार है सब नगद की बात पर कर रहे है। निजी क्षेत्र में कई तरह की अफवायें फैल रही है जिन्हें दूर किया जाना चाहिए।
श्री कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यिम, जो भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार है, के इस कथन पर भी काफी हाय तोबा हुई कि निजी कम्पनियो को अपने पैर पर खड़े होना चाहिए और सदैव राहत पैकेज की उम्मीद नहीं करना चाहिए।
मीडिया के मुताबिक श्री कृष्णमूर्ति के इस बयान के बाद सेंसेक्स में 587 और निफ्टी में 177 अंक की गिरावट हुई, याने बाजार की भाषा के अनुसार यह भारी गिरावट थी और कई कम्पनियों के मार्केट कैप में 12 प्रतिशत तक की गिरावट आई। इन्हीं की रिपोर्ट के आधार पर आर.बी.आई. ब्याज दर कम करे ऐसी कवायत केन्द्र में चल रही है।
अगर श्री राजीव कुमार के कथन के विश्लेषण को, कि नोटबंदी के बाद लोगों ने नोट दबा लिए है तो यह कथन अपने आप में अन्तर विरोधी लगता है। नोटबंदी के बाद तो भयभीत होकर लोग नोट जमा नहीं करना चाहते बल्कि आशंकित रहते है कि कहीं सरकार फिर नोटबंदी लागू न कर दे। घरों में बड़ी-बड़ी रकमों को डम्प रखने की मानसिकता पर नोटबंदी ने गहरी चोट पहुँचायी थी और लोग घरो में पैसा रखने की प्रवृति से विमुख हुए हैं।
परन्तु नीति आयोग के उपाध्यक्ष उसके उलट बोल रहे है। लोग इतने शंकित है कि लोग परस्पर कर्ज नहीं दे रहे है पर उनका यह कथन भी तथ्य परक नहीं लगता।
सच्चाई तो यह है कि, उद्योग जगत के अनेक लोग सरकारी, गैर सरकारी व्यवस्था से अपनी आर्थिक क्षमता से कई गुना ज्यादा कर्ज ले रहे है। श्री व्ही.के. सिद्धार्थ की आत्महत्या इसी का परिणाम है। जहाँ तक उद्योगों द्वारा योग्य सम्पत्तियों को खरीदने का प्रश्न है तो यह सुस्थापित तथ्य है कि कोई भी खरीददार वहीं पूँजी लगायगा जहाँ उसे मुनाफे की उम्मीद होगी। दूसरी ओर काले धन के प्रचलन और चलन की प्रक्रिया में अवरोध व अंकुश के कारण अब सम्पत्तियों को खरीदने के लिए आय व पैसे का वैधानिक स्त्रोत बताना या पूँछे जाने के भय के कारण लोग सम्पत्ति खरीदने में या रीयल एस्टेट आदि में पैसा नहीं फँसाना चाहते।
श्री कृष्णमूर्ति केे बयान को, जिसको आलोचना का विषय बनाया जा रहा है, वह तो कई मायनों में उनकी प्रशंसा का विषय होना चाहिए।
उन्होंने यही तो कहा है कि, उद्योग जगत का मुनाफा खुद का लेकिन घाटा सार्वजनिक क्षेत्र का हो इस नीति को छोड़ना चाहिए। अभी तक यही होता रहा है कि, जो मुनाफा होता है वह उद्योगपति का होता है घाटा बैंकों का याने जनता का होता है।
तब इन उद्योगपतियों को राहत पैकेज क्यों दिया जाए?-
यह सब वही उद्योगपति या बाजार के लोग है जो किसानों या गरीबों के कर्ज माफी पर हाय तौबा मचाते है। कहते है, इससे विकास रूक जाएगा, देश बर्बाद हो जाएगा, बैंक बर्बाद हो जाएंगे और दूसरी तरफ अपने भोग विलास व बर्बाद की गई सम्पत्ति की पूर्ति के नाम पर पैकेज चाहते है।
हमारे देश का प्रतिपक्ष, संसद के प्रतिपक्ष की बड़ी पार्टियाँ या तथाकथित वामपंथी मित्र इन मीडियाजन समाचार और विश्लेषणों, उद्योगपतियों और बहुराष्ट्रीय कम्पनी के प्रचारतंत्र के निष्कर्ष के आधार पर आलोचना शुरू कर देते है। अब अचानक श्री राजीव कुमार भारत के प्रतिपक्ष के हीरो बन गए और कांग्रेस से लेकर वामपंथी मित्र जय-जय राजीव कुमार कहने पर तुले है। जबकि मेरी राय में आर्थिक सलाहकार श्री कृष्णमूर्ति, की तारीफ की जाना चाहिए।
मैं इन मीडिया फैमली व बुद्धिजीवियों को फिर कहना चाहता हूॅ कि, उनके जल्दबाजी के बयानों और प्रचार में फँसने से अंततः उन्हें कोई लाभ नहीं होगा। देश का आम और गरीब आदमी कार्पाेरेट मीडिया के इन विश्लेषणों से सहमत नहीं होगा, बल्कि विपरीत प्रतिक्रिया देगा जैसी कि, उसने नोटबंदी के आधार पर दी थी और जनमत परीक्षण के ये मीडियाजनक बुद्धिजीवी फिर ओंधे मुँह गिरेंगे।
यह आश्चर्यजनक है कि, यह बुद्धिजीवी और मित्र इस बात से सहमत होते है कि आर्थिक मंदी है, पैसा नहीं निकल रहा है, और बड़े लोग परस्पर कर्ज नहीं लेना चाहते तथा उद्योगो में पैसा नहीं लगाना चाहते है और दूसरी तरफ यही लोग इस बात की भी आलाचेना करते है कि, सरकारंे सार्वजनिक क्षेत्र को बेचकर निजी क्षेत्र खड़ा कर रही है और उद्योग जगत के पास पैसा नहीं है तो बैंको के नाम पर, विनिवेश के नाम पर बेचने वाले 80 हजार करोड़ के शेयर्स कौन खरीदेगा। देश के रक्षा उत्पाद करने वाले कारखानों में पिछले दिनों इस बात को लेकर हड़ताल चल रही थी कि रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में निजी कारखानों को अनुमति नहीं दी जाए और रक्षा उत्पादन के काम को ठेकेदारों को देकर अप्रत्यक्ष निजीकरण पर रोक लगाई जाए। उत्पादन कारखानों के कर्मचारी संगठनों ने लगातार 30 दिन की हड़ताल की है। याने वस्तु स्थिति यह है कि, निजीकरण बढ़ रहा है, मशीनीकरण बढ़ रहा है, उद्योगपतियों का मुनाफा भी बढ़ रहा है, और कर्ज भी बढ़ रहा है। क्योंकि उद्योगपति कर्ज नहीं चुकाना चाहते? पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों से और कुछ उद्योगपतियों को जेल में रखे जाने की वजह से एन.पी.ए. थोड़ा सा कम हुआ तथा उद्योग जगत की मनमानी पर यद्यपि अंकुश नहीं लगा परन्तु उस दिशा में मामूली सी पहल हुई। इसे अप्रभावी बनाने के लिए और सार्वजनिक धन और बैंको की सम्पत्ति की लूट को जारी रखने के लिए उद्योग जगत मीडिया को माध्यम बना रहा है जैसे बड़ी भारी मंदी आई है। किसान और मजदूरों के मुद्दे दृष्टि ओझल कर दिए गए है और राहत पैकेज के नाम पर जनता के पैसे को लूटने के लिए यह मीडियाजनक मंदी का कृत्रिम वातावरण तैयार किया जा रहा है।
देश में बढ़ती हुई बेरोजगारी, ठेकेदारी प्रथा, आउट सोर्सिंग के नाम पर हो रहे शोषण के मुद्दों को मीडिया में स्थान नहीं मिलता। आज देश के करोड़ों मजदूर ठेकेदारी पर आउट सोर्सिंग के कारण वमुश्किल शासन द्वारा निर्धारित दैनिक मजदूरी का आधा ही पा रहे है परन्तु इनकी पीड़ा ना मीडिया की पीड़ा है और न ही भारत के प्रतिपक्ष और राजनीति की। अभी दुनिया मंे और वैश्वीकरण के दौर शुरू होने के बाद जो नई तकनीक ए.आई. के नाम पर आ रही है उससे कितनी बेरोजगारी पैदा होगी इसके खतरों के बारे में भारतीय राजनीति, संसद या राजनेताओं को चिंता नहीं है। तथाकथित उदारवाद जो पूँजीवाद के मानवीय चहरे की आड़ में अवतरित हुआ था ने अपने आप को उदारवादी कहना शुरू किया था। दुनिया के मीडिया और पूँजीवाद शोषित अर्थशास्त्रियों ने इसे जेनटलमेनली कैपिटलिज्म याने सज्जन पूँजीवाद का तर्क दिया था परन्तु इस सज्जन पूँजीवाद की परतों को अगर उखाड़ा जाए तो दुनिया के करोड़ों लोग इस सज्जन पूँजीवाद की भेंट चढ़ चुके है। वो एक प्रकार से इस पूँजीवादी व्यवस्था की छिपी मौतों के शिकार हुए है। अब पूँजीवाद बाजारवाद से एक कदम आगे बढ़ रहा है। उन्हें लगता है कि, इस उदारवादी चहरे की या नकाब की अब उन्हें कोई आवश्यकता नहीं है। अब वे सीधे-सीधे अपने राजनैतिक सहयोगियों, उनकी सत्ता के निर्माण और मीडिया के प्रयोग के माध्यम से जिस दिशा में कदम बढ़ा रहे है उसे बौद्धिक सर्विलेन्स कैपिटलिज्म कहा जा रहा है। तकनीक आधारित उद्योग क्राँति इसी का हिस्सा है जिसमें पूँजी भी कम लगती है और इसमें श्रमिकों की संख्या भी कम रहती है जो केवल उद्योग जगत को मुनाफा कमा कर देती है। इस पूँजीवाद के नए स्वरूप के शिकार पिछले सज्जन पूँजीवाद की तुलना में कई गुना लोग ज्यादा होंगे। क्योंकि अब उसे उदारवादी चेहेरे की आवश्यकता नहीं है। अब तो वह सीधे सत्ता और शक्ति के आधार पर क्रूर ढंग से काम करेगा। मैं देश को इस संभावित खतरे के प्रति सावधान करना चाहता हूॅ।
[नोट:- यह लेख मेरे द्वारा 21/08/2018 को लिखा गया था।सरकार के द्वारा दिनांक 23/08/2019 को आर्थिक उदारीकरण के नाम पर 32 रियायतों की घोषणा कर दी गई।]
(रघु ठाकुर)
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