विशेष: टैक्स वसूली टैक्स-टेरर नहीं: रघु ठाकुर
विशेष में प्रस्तुत है:
राजनैतिक पैैैैगम्बर- महान समाजवादी चिंंतक व विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संंरक्षक- रघु ठाकुर के लेेख- उन्हीं के शब्दों में:
भोपाल: बंगलोर के काफी चेन (कैफे काँफी डे) के मालिक वी जी सिद्धार्थ की आत्महत्या के बाद देश में एक नये शब्द को गढ़ा गया है जिसका नाम ‘‘टेक्स टेरर’’ दिया गया है।
चूंकि श्री सिद्धार्थ खरबपति थे और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री श्री कृष्णा के दामाद थे। अतः श्री सिद्धार्थ की आत्महत्या की चर्चा मीडिया ने बहुत ही संवेेदनशील ढंग से की।
कहा जाता है कि, उनके ऊपर 21 सौ करोड़ रूपया की देनदारी बची थी। जिससे वे परेशान थे और अपनी रियल स्टेट प्रापर्टी को बेचना चाह रहे थे। 29 जुलाई को वे अचानक लापता हो गए थे और 31 जुलाई को उनका शव मिला।
किसी भी व्यक्ति का आत्महत्या या मृत्यु इस आधार पर दु:खद है कि, अंततः एक इंसान की मृत्यु है। श्री कृष्णा के प्रति और स्व. सिद्धार्थ के परिवार के प्रति मेरी पूर्ण संवेदना है। परन्तु मैं इस घटना को एक भिन्न रूप में देखता हूॅ। उन्हें कर्ज चुकाने के लिए सम्पत्ति बेचने का अवसर नहीं मिला। उन्हें इस प्रक्रिया में वैधानिक दिक्कते आई आदि-आदि तर्क देश में बहुत तेजी के साथ परोसे गए हैं। यह हमारे देश की और वैसे तो दुनिया की दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति है कि जब व्यवस्था से पीड़ित कोई गरीब मर जाता है तो मीडिया के लिए वह केवल एक सूचना मात्र होती है परन्तु जब कोई पैसे वाले की मृत्यु होती है तो उसकी सारी कमी अवगुणों को पीछे कर मीडिया उन मामलों में अति मानवीय और संवेदनशील बन जाता है। यही श्री सिद्धार्थ के मामले में हुआ है।
किसी भी कोने से यह सवाल नहीं उठाया गया कि आखिर उन्होंने इतना भारी कर्ज क्यों लिया?
आज उद्योग जगत में आम चलन है कि उद्योगपति अनेकों वित्तीय संस्थाओं से भिन्न भिन्न कम्पनियां बना कर कर्ज लेते है और बाद में या तो उसे चुकाते नहीं है या अपने राजनैतिक रसूखों कर इस्तेमाल कर या तो इन हजारों करोड़ों की कर्ज की राशि को एन.पी.ए. में डलवा देते है या फिर कोर्ट कचहरी में लटकाए रखते हैं। और अगर किसी कारणवश कुछ ज्यादा वसूली का दबाव बना तो विदेषों में सम्पत्तियां खरीद कर बेनामी सम्पत्ति तैयार करते है तथा जाकर विदेशों में बस जाते है।
विजय माल्या, नीरव मोदी, कुछ अनेकों वर्षाें से आराम से विदेषों में रह रहे है और भारतीय कानून और सत्ता उन्हें वापिस लाने में लगभग थककर हार चुकी है।
ऐसा नहीं है कि, यह केवल कानून की खामी है। बल्कि कहीं न कहीं सत्ता तंत्र की मिली-भगत भी इसका कारण है। वर्ना सरकार उन देशों से कूटनीतिक समझौते करती, द्विपक्षीय संधिया करती तथा अपने देश के कानून के तहत घोषित अपराधियों को वापिस देने का द्विपक्षीय समझौता करती। विदेशी-अदालते भी कभी-कभी मानव अधिकार के नाम पर या कभी किसी अन्य बहाने के नाम पर अनुचित संरक्षण देती है। उनका बचाव करती है। जैसे श्री नीरव मोदी ने लंदन की अदालत में तर्क दिया कि भारत के जेलों तथा मुंबई की जेलों में बंदियों के रहने लायक सुविधा नहीं है तथा लंदन की अदालत ने सरकारी वकील से भारत की जेलों के ब्यौरा मांगे। मेरी राय मेें यह देशी या विदेेेशी अदालतों का अवैधानिक कार्य है।
भारत में जो जेल मेनुअल लागू है, वह सभी के लिए समान है और कैसे कमरे में अपराधी रहेगा उसे ए.सी. मिलेगा या नहीं मिलेगा, कैसा खाना मिलेगा, यह विदेशी न्याय पालिका का अधिकार नहीं है, बल्कि भारतीय कानून तय करेगा।
यह तो भारत के सर्वाेच्च न्यायालय का साहसिक कदम है कि उन्होंने भारत के कुछ आर्थिक अपराध क्षेत्र के बड़े मगरमच्छो को जेल पहुंचाया और उन आर्थिक अपराधियों में थोड़ा सा भय पैदा हुआ, जो दशकों से आर्थिक अपराध कर रहे थे, अपने आप को भारत का सुपर सत्ताधीश मानते थे तथा अपने सामने सरकार या न्यायपालिका को महत्वहीन मानते थे।
हांलाकि ऐसी घटनाएं अभी तक गिनती की हुई है। भारत सरकार ने अगर आर्थिक अपराधियों के विरूद्ध बड़े पैमाने पर कार्यावाही की होती तो स्व. सिद्धार्थ जैसे लोग भारी कर्ज लेने से बचते, अपना टेक्स समय पर चुकाते और शायद उन्हें आत्महत्या करने की लाचारी नहीं होती।
उद्योग जगत की ओर से यह तर्क दिया जा रहा है कि टेक्स दर अधिक है और इसलिये उद्योग घाटे में चले जाते हैं। वे टेक्स, कर्ज अदा करने की स्थिति में नहीं होते। अतः उन्हें कानून से रियायत देनी चाहिए। याने कर्ज व टेक्स की माफी हो या वसूली की कार्यावाही न हो और उन्हें शान से खाता-पीता छोड़ दिया जाए।
मेरी राय में यह देश में दो प्रकार के कानूनों का चलन हो जाएगा। जिस प्रकार "मनु स्मृति" में एक ही अपराध के लिए शूद्र को सजा की अलग व्यवस्था थी और सवर्ण को अलग। उसी प्रकार नई मनु-स्मृति बनाने का प्रयास उद्योग जगत कर रहा है।
वैसे तो नैतिक आधार पर उद्योग जगत को चाहिये था कि वह स्वतः इन टेक्स अदा न करने वालों, कर चोरों के खिलाफ या जन-धन डुबाने वाले लोगों के खिलाफ कार्यावाही की माँग करता।
अगर उन्हें ज्यादा ही भाईचारा था तो जिन के उद्योग मुनाफे में चल रहे है इन सबको मिल कर बकाया दरों के टेक्स और कर्ज की बकाया रकम जमा करने की पहल करना चाहिये थी।
पर इसके बजाय उन्होंने टेक्स और कर्ज वसूली के विरूद्ध "टैक्स-टेरर" के नाम से मीडिया अभियान शुरू कर दिया और सत्ताधीशों को मानसिक दबाव में लेने तथा आम आदमी को गुमराह करने का तरीका अपनाया।
क्या टेक्स वसूली आतंक है?-
क्या टेक्स वसूली को आतंकी कहने वाले लोग अपराधी नहीं है?-
अब इन सवालों पर विचार करना होगा। दर-असल समय पर टेक्स अदा करना या कर्ज अदा करना यह वैधानिक और राष्ट्रीय दायित्व है।
जो बड़े-बड़े मगरमच्छ सरकारी बैंको का याने जनता का पैसा खा जाते हैए टेक्स अदा नहीं करते हैं, सही मायने में उनका अपराध राष्ट्रद्रोह जैसा है और यह कानून बनना चाहिये कि निश्चित समय सीमा के अंदर इनकी सम्पत्ति जप्त की जानी चाहिये। "नामी-बेनामी" दोनों सम्पत्ति जप्त होना चाहिये तथा इनके पासपोर्ट और वीजा रद्द कर इन्हें जेल में बंद कर इन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाना चाहिये।
परन्तु इसके उलट ऐसा वातावरण बनाया गया जैसे टेक्स की माँग करना कोई अपराध है। टेक्स की राशि से ही प्रषासन तंत्र को वेतन भत्ते पेन्शन इत्यादि मिलते है। टेक्स की राशि से ही देश में विकास के काम सड़क, पानी, बिजली, के काम चलते है। केवल सरकारी या गैरसरकारी कर्मचारी ही ईमानदारी से टेक्स अदा करते हैं। शायद इसलिये भी की यह उनकी लाचारी है। उनके टेक्स की राशि भी पहले ही वेतन से कट जाती है। यहाँ तक की जो लोग अपनी बचत के रूपये बैंकों में रखते है, (किसान भी) भले ही उन्हें टेक्स (आयकर) देने की अनिवार्यता नहीं हो इसके बावजूद भी उनके टेक्स की राशि पहले ही काट ली जाती है जिसे बाद में वापिस किया जाता है। परन्तु उद्योगपतियों के लिये टेक्स देना, वह अपने द्वारा किये जा रहे ऐहसान जैसा मानते हैं। भारत की संसद ने बहुमत से जो टेक्स की दरें तय की है उन्हें "टैक्स टेरर" कहना संसद की अवमानना है, परन्तु दुखद है कि देश के मीडिया की प्रथम निष्ठा अपने मालिकों याने उद्योग जगत के प्रति रहती है। श्री व्ही• जी• सिद्धार्थ की आत्महत्या और आये दिन इसी प्रकार घटित हो रही घटनाओं, अपराधों का कारण मूलतः भोग व लालच हैं। उद्योगपति अपने क्षमता से अधिक कर्ज लालच में ही लेते है और आजकल लालच में कितनी अमानवीय घटनायें घट रही है, इसकी कल्पना भी कठिन है। पिछले दिनों समाचार पत्रों में इस प्रकार के समाचार भरे पड़े है जिनमें भोग और लालच के लिए बच्चे अपने माता- पिता तक की हत्यायें कर रहे है। यहाँ तक कि यह शराब पीने के लिए माता-पिता की हत्या करने लगे और अभी तो हाल ही में ऐसी घटना हुई जसमें लड़की दामाद ने संपत्ति की लालच में अपनी माँ की हत्या कर दी। अब कल अगर कोई कहे कि यह घटनायें या ऐसे व्यक्तियों के ऊपर अपराधिक मुकदमें, राजकीय आतंक हैं तो क्या सही होगा?-
अब हालात को सुधारने के लिए सरकार और समाज दोनों को आगे आना होगा। में श्री एस• एम• कृष्णा (स्व• व्ही• जी• सिद्धार्थ के ससुर और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री) की तारीफ करूॅगा कि उन्होंने एक बार भी टेक्स आतंक जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया बल्कि वह शांत रहे। शायद वे अपने मन में सच्चाई को समझ रहे थे। अगर देश के सभी माता-पिता और परिजन अपने परिवार के लोगों के आर्थिक या गैर आर्थिक अपराधों पर पर्दा डालना व उनका वचाव बंद कर दें तभी देश में सुधार हो सकेगा।
(लेखक: रघु ठाकुर)
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