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बेमेल गठबंधन की अकाल मौत: रघु ठाकुर
नई-दिल्ली: महान समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक- राजनैतिक पैगम्बर- रघु ठाकुर ने अपने लेख में लिखा है कि, पिछले दो दिनों के मीडिया में उ.प्र. में बहुजन समाजवादी पार्टी और समाजवादी पार्टी के गठबंधन के समाचार काफी प्रमुखता से आ रहे हैं।
बहुजन समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय बैठक के बाद सुश्री मायावती ने घोषणा की थी कि, बसपा आगामी 11 विधानसभा उप चुनावों में गठबंधन के साथ नहीं लड़ेगी बल्कि अकेले लड़ेगी। उन्होंने जब बैठक के बाद यह बयान दिया, उस समय श्री अखिलेश यादव आजमगढ़ में अपने संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं को धन्यवाद अदा कर रहे थे।
कार्यक्रम के बाद पत्रकारों ने उनसे पूछा तो उन्होंने अपनी अनभिज्ञता जाहिर की। इसका मतलब स्पष्ट है कि सुश्री मायावती ने अलगाव का निर्णय करने से पहले उनसे कोई बात नहीं की और अगले दिन श्री अखिलेश यादव ने कहा कि अब सपा भी सभी 11 सीटों पर चुनाव अलग से लड़ेगी।
बाद में सुश्री मायावती ने अपनी तरफ से एक बयान दिया जिसमें उन्होंने उन कारणों को बताया, जिनके कारण से उन्हें अलग लड़ने का निर्णय करना पड़ा।
मैं मायावती जी की इस बात की तारीफ करूॅगा कि उन्होंने अपने लिखित बयान को शालीनतापूर्वक, तार्किक ढंग से और बहुत ही आत्मीय भाव से लिखा है। उन्होंने श्री अखिलेश यादव उनकी पत्नी श्रीमती डिम्पल यादव की प्रशंसा की कि इन दोनों ने बहुत सम्मान जनक व्यवहार किया है तथा अपनी ओर से यह भी कहा कि व्यक्तिगत तौर पर उनका श्री अखिलेश एवं श्रीमती डिम्पल से पारिवारिक जैसा स्नेह है। आमतौर पर यह परम्परा राजनीति में हैं कि जब लोग मिलते हैं तो अपार आत्मीयता व्यक्त करते हैं और परस्पर तारीफ के कसीदे गढ़ते है। परन्तु अलगाव होने के बाद घटिया से घटिया किस्म के आरोप एक दूसरे पर जड़ते हैं। परन्तु इस प्रकरण में दोनों ने ही बसपा और सपा ने जो शालीनता बरती है वह निसंदेह सराहनीय भी है और अनुकरणीय भी।
सुश्री मायावती का बयान एक परिपक्व राजनेता के रूप में नज़र आया। उन्होंने अपने बयान में निम्न महत्वपूर्ण बातें कहीं:-
1. निजी संबधों के सारे शिष्टाचार के बावजूद राजनीतिक फैसला लेना मेरा दायित्व है और इसलिये मैंने अलग लड़ने का निर्णय किया है। यद्यपि मेरा उन पर स्नेह सदैव बना रहेगा।
2. उन्होंने श्री अखिलेश को याद दिलाया कि उनकी जाति के वोट वे अपने महत्वपूर्ण प्रत्याशियों श्रीमती डिम्पल यादव, श्री धर्मेन्द्र यादव, श्री अक्षय यादव को नहीं दिला सके। इसलिये ये प्रत्याशी हार गये। जब वे अपने जाति का वोट अपने ही प्रत्याशियों को नहीं दिला पाये तो गठबंधन के बसपा प्रत्याशियों को उनके वोट कहा मिले होंगे।
3. श्री अखिलेश को परिपक्वता लाना चाहिये अपने आधार यानि जाति के वोटों को एक जुट करना चाहिये।
4. गठबंधन स्थाई तौर पर नहीं टूटा है अगर स्थितियों में सुधार होता है तो रास्ता खुला हुआ है पुनः हो सकता है।
सुश्री मायावती के इस बयान की विवेचना आवश्यक है। एक तो उन्होंने यह कहकर कि मुस्लिम मतदाताओं ने बसपा को पूरा साथ दिया है, मुस्लिम मतदाताओं को सपा के खाते में नहीं डाला है बल्कि अपने खेमे में लेने का प्रयास किया है। लोकसभा के गठबंधन से सुश्री मायावती को यह लाभ भी हुआ है कि पिछले दिनों दो बार भाजपा के साथ सरकार बनाने की वजह से मुस्लिम मतदाताओं में जो अविश्वास पनपा था इस बार इस गठबंधन बनने से पुरानी जकड़न ढीली हुई है और जिन मुस्लिम मतदाताओं ने इस लोकसभा चुनाव मेें बसपा को वोट दिया है उनके लिये अब बसपा अछूत नहीं रही। एक प्रकार से पुरानी भूल को उन्होंने सुधारा है। साथ ही यादव मतदाताओं और दलित मतदाताओं के बीच 1995 के गेस्ट हाऊस कांड से जो लाईन खिंच गई थी उस लाईन को मिटाकर या धूमिल कर यादव मतदाताओं में एक अच्छा संदेश देने का प्रयास किया हैं। सुश्री मायावती जी की राजनैतिक परिपक्वता की पैनी दृष्टि का परिणाम यह कदम और बयान है। इस अलग लड़ने के निर्णय के बाद अब यादव व मुस्लिम मतदाता स्थानीय परिस्थिति और प्रत्याशी के आधार पर उनके साथ जा सकते हैं। भाजपा से असंतुष्ट मतदाता भी उनके विजय की संभावना देखते हुये उन्हें समर्थन कर सकते हैं।
दूसरा जो महत्वपूर्ण पक्ष है कि उन्होंने भारतीय राजनीति की जातीय और मजहबी असलियत को खोलकर प्रस्तुत किया है, जिस पर 23 मई के चुनाव परिणाम के बाद श्री मोदी भाजपा, और संघ पर्दा डालने का जो प्रयास करते रहे है और बार-बार यह कह रहे है कि इन चुनाव ने जाति, धर्म, क्षेत्र की दीवारों को गिरा दिया है। उनका दावा तथ्य परक नहीं है बल्कि चतुराई के साथ उन वर्गाें व समूहों को जो उनके साथ रहे हैं, अपने मैले आँचल में लपेटने का प्रयास है।
क्या श्री नरेन्द्र मोदी की स्मृति इतनी कमजोर है कि वे भूल गये कि, 2019 के ही कि चुनाव अभियान में उन्होंने अपनी जाति का उल्लेख कई सभाओं में किया था तथा कहा था कि मैं तेली हूॅ और जाति के नाम पर वोट लेने का खेल खेला था। यह कितना हास्यास्पद है कि 19 मई तक उनके लिये जाति और धर्म सत्य था और 19 मई के बाद असत्य हो गया।
नि:संदेह जातिवाद और क्षेत्रवाद, दृष्टि और दिमाग को बाँधता है और बेहतर निर्णय करने में बाधक बनता है तथा इसे मिटाना चाहिये। देश में जाति मिटे, क्षेत्रवाद मिटे और एक राष्ट्रीय सोच पैदा हो, यह जरूरी है।
परन्तु शब्दों में सबका विकास और आचरण में जातिवाद यह अन्तर विरोधी है। मायावती जी स्वतः भी जातीय नेता है और वे जातीय नेता ही रहना चाहती है। इतना ही नहीं वे अन्यों को भी जातिवाद के चश्में से देखती है और वहीं तक सीमित करना चाहती हैं। यह उनके लिये इसलिये भी जरूरी है कि, उनका उद्देश्य जाति विहीन समाज बनाना नहीं जातीय श्रेष्ठता का समाज बनाना है। जिसमें इतना फर्क हो कि आज जो जातियाँ शीर्ष पर है वे नीचे शूद्र के खाने पर पहुँच जाये और उनकी अपनी जाति शीर्ष पर पहुँच जाये। यानि वे अपनी जाति का ब्राम्हणीकरण करना चाहती है और ब्राम्हण का शुुुुद्रीकरण। यह अपनी और समूह की सत्ता का सोच केवल उनका ही नहीं बल्कि यह सोच उन सभी जातीयें नेताओं का है जो अपनी ताकत का आधार और अपने वितरण का आधार जाति को मानते है। सभी मजहबी समूहों के नेता बनने की भी अकांक्षा किसी मजहब के नाम की राजनीति करने वालो के एजेंडो में नहीं है।
मुझे स्मरण आ रहा है कि, श्री जावेद हबीब, जो बावरी मस्जिद ऐक्सन कमेटी के सदस्य थे, ने एक बार मुझसे कहा कि ‘‘मैं मुस्लिम का नेता हूॅ आप हिन्दू के, अतः मैं आपको हिन्दू नेता मानता हूॅ’’। श्री जावेद हबीब ने जो मुझसे कहा यह इस देश में स्थायी षड़यंत्र है, जो 19वीं सदी के विशेषतः महात्मा गाँधी के भारतीय राजनीति के पटल पर प्रभावी होने से चल रहा है। अंग्रेजो ने महात्मा गाँधी के प्रभाव को कम करने के लिये ऐसे षड़यंत्र रचे थे तथा महात्मा गाँधी के खिलाफ मुसलमान तथा अन्य जातियों के व्यक्तियों को उनका नेता बनाने, उन्हें वर्गीय हितों के नाम पर महात्मा गाँधी के खिलाफ खड़ा करने तथा गाँधी जी को कमजोर करने के लिये किये थे, जिसमेें वे कुछ आंशिक रूप से सफल भी हुये। जिसका परिणाम भारत का विभाजन हुआ। जिन्ना जैसे लोग अंग्रेजो के ऐसे ही तरीको से बनाये गये थे।
जातिवादी सोच और सत्ता स्थापित करने का विचार केवल अखिलेश या मायावती का हो, ऐसा नहीं है। बल्कि यह सोच उन अनेक दलों का है, जो प्रत्यक्ष तौर पर अपनी जाति को श्रेष्ठता और सत्ता के लिये काम कर रहे है। इनमें से कुछ प्रत्यक्ष तौर पर नज़र आते है जिनमें सपा-बसपा, अपना दल, समानता दल, राजद, लोक दल, शिरोमणी अकाली दल कश्मीर की पीडीपी, एन.सी. आदि इस प्रकार की पार्टियाँ है। कुछ पार्टियाँ व्यक्ति केन्द्रित है, कुछ परिवार केन्द्रित है। वैसे जातिवादी या मजहबी राजनीति अंततः परिवारवाद और व्यक्तिवाद ही पैदा करती है।
दूसरी तरफ कुछ ऐसी भी पाटियाँ है जो जाति विभाजन से बचाव के लिये दूसरे शब्दों के आवरण में अपने आपको ढक कर रखती है और आचरण में उनका छिपा उद्देश्य झलक जाता है। श्री मोदी की सरकार में कैबिनेट मंत्रियों में केवल एक ही मंत्री पिछड़ी जाति का है, वह हैं स्वयं प्रधानमंत्री। इसके पीछे संघ परिवार और सवर्ण जातियों की सत्ता राजनीति छिपी है। कांग्रेस भी एक परिवार की सत्ता की पार्टी है और उसके पीछे भी देश के सवर्ण जातियों का सत्ता प्राप्ति का लक्ष्य छिपा हुआ है। कुल मिलाकर कांग्रेस और भाजपा थोड़े बहुत शाब्दिक भिन्नता या प्रतीकात्मक दिखाऊ भेद, फर्क के अलावा एक ही प्रकार व सोच की वर्गीय पार्टियाँ है, जो बुनियादी सवालों से दूर होकर लड़ते है।
देश को हिन्दू, मुसलमान में बाँट कर सत्ता हासिल करने का प्रयास करते है। वैसे तो भाजपा की सत्ता के पीछे भी हिन्दू वर्चस्व या श्रेष्ठता हासिल करने व कांग्रेस, सपा-बसपा के पीछे भी मुस्लिम श्रेष्ठता और सत्ता आधार है। इसलिये आज भारतीय राजनीति मूल प्रश्नों से कट गई है। कार्पाेरेटीकरण और निजीकरण को समाप्त कर सार्वजनिक क्षेत्र और विकेन्द्रित अर्थ व्यवस्था विदेशी कर्ज से मुक्ति, सार्वजनिक क्षेत्रों को सुधार कर लाभकारी बनाना लोगों को रोजगार देना अब यह सब भारतीय राजनीति के लिये निर्णायक मुद्दे नहीं बचे।
जब लोकसभा चुनाव 2019 की घोषणा के समय सुश्री मायावती एवं अखिलेश यादव का गठबंधन बना था तब इस गठबंधन से उ.प्र. के एक मतदाता समूह, कुछ राजनैतिक दलोें, कुछ मीडिया कर्मियों के मन में बहुत उत्साह आया था। कुछ अच्छे व ईमानदार पत्रकारों व समाजवादी मित्रों ने यहाँ तक लिखना व बोलना शुरू कर दिया था कि ‘‘बुआ और बबुआ’’ के मिलन से भारतीय राजनीति का वह अध्याय जो 06 दिसंबर 1956 की बाबा साहेब की मृत्यु की वजह से अंबेडकर और लोहिया के मिलन के रूप में पूरा होने वाला था, पूरा नहीं हो सका था, उसकी पुनः शुरूआत है। ये मित्र सद्भावना पूर्वक इतने उत्साहित थे कि, इन्हें अखिलेश में लोहिया और मायावती में अम्बेडकर नजर आने लगे थे, तथा वे इस तथ्य को भी भूल गये कि लोहिया और अम्बेडकर दोनों जातिप्रथा को नष्ट करना चाहते तथा जाति-विहीन समाज बनाना चाहते थे। उनके लिये मिलन का अर्थ सत्ता नहीं था बल्कि सामाजिक क्राँति का वृक्षारोपण था। जिस प्रकार दो भिन्न-भिन्न प्रकार के पौधों को परस्पर कलम से जोड़कर एक नया पौधा तैयार किया जाता है, उसी प्रकार बुआ और बबुआ का मिलन जातियों के बचाव और जातीय सत्ता की स्थापना के लिये था। क्या हम इस सामाजिक क्रान्ति, विरोधी सत्ता केन्द्रित विचारहीन गठबन्धन की तुलना उस महान घटना से जो, नहीं हो सकी से करके लोहिया और बाबा साहब को अपमानित और अवनत नहीं करते हैं। मैं उन समाजवादी मित्रों, पत्रकारों की नीयत में कोई खोट नहीं देखता हूॅ परन्तु उनकी भावुकता और सत्ता बदल के अति उत्साह से कुछ परेशान जरूर हूॅ। 2019 का गठबन्धन विशुद्ध सत्ता के लिये और जातीय सत्ताओं की स्थापना और सुरक्षा के लिये था। अतः उसका अल्पकाल में ही धराशायी होना स्वाभाविक था। वैचारिक और क्रान्ति के लिये किये गये गठजोड़ दीर्घकालिक होते है और सत्ता के लिए होने वाले समझौते अल्पजीवी होते हैं और यही उ.प्र. के इस सत्ता गठबंधन का हुआ।
मैं उम्मीद करता हूॅ कि, गठबंधनों के सभी संबंधित पक्ष इससे सबक सीखेंगे और भविष्य की रणनीति को केवल सत्ता केन्द्रित, जाति सत्ता की स्थापना के प्रयोग से हटकर सामाजिक, आर्थिक बदलाव के नजरियें से देखेंगे। विचारों की कलम को जोड़कर बाबा साहब और लोहिया एक नई क्रान्ति की शुरूआत करना चाहते थे।
डाॅ. लोहिया ने अचानक उनकी मृत्यु के बाद उनसे हुये पत्राचार को स्व. मधु लिमये के पास एक पत्र लिखकर भेजा था इस पत्र की पंक्तियों से ही लोहिया और अम्बेडकर के मिलन, कल्पना और उद्देश्य को समझा जा सकता है। जब लोहिया ने लिखा कि ‘‘तुम समझ सकते हो कि डाॅ. अम्बेडकर की मौत का दुखः थोड़ा बहुत व्यक्तिगत रहा है वह अब भी है। मेरी बराबर आकांक्षा रही कि वे मेरे साथ आये केवल संगठन में नहीं बल्कि पूरी तौर से सिद्धांत में भी और यह मौका करीब मालूम होता था। मैं एक पल के लिये भी नहीं चाहूॅगा कि तुम इस पत्र व्यवहार को हम लोगो के व्यक्तिगत नुकसान की नजर से देखो। मेरे लिये डाॅ. अम्बेडकर हिन्दुस्तान की राजनीति के एक महान व्यक्ति थे। और गाँधी जी को छोड़कर वे बड़े से बड़े सवर्ण हिन्दुओं के बराबर थे। इससे मुझे संतोष और विश्वास मिला है कि हिन्दू धर्म की जातिप्रथा एक ना एक दिन समाप्त की जा सकती है।
लोहिया और बाबा साहब का मिलन जाति के विनाश के लिये होने वाला था तभी ठीक मार्ग को अनुसरण कर सकेगे। वरना लोहिया की मौत के बाद न केवल लोहिया की पार्टी, कांग्रेस, भाजपा वामपंथी, बसपा, अन्य पाटियाँ भी जो मिलन व टूटन का स्वार्थ आधारित खेल करती रही है और अपनी शाख व ताकत को स्वतः मिटाती रही है जैसे ही हर्ष की पुर्नावृति होगी।
अब आवश्यकता है कि जाति, परिवार आधारित दल अपने आप को सुधारें। जाति विहीन बराबर का समाज-धर्म सत्ता के बजाय जन सत्ता बनाने का सपना लेकर लोग आये। तभी इन दलों का अस्तित्व बचेगा तभी देश सामप्रदायिक्ता, पूंजीवाद से मुक्त हो सकेगा। काँटे से काँटा निकालने का जुमला अब पुराना भी हो चुका है और खतरनाक भी हो गया है। अब तो महात्मा गाँधी के साधनों की पवित्रता के मार्ग से ही मुक्ति मिल सकती है। काँटे से काँटा निकालते अब घाव गैंगरीन बन चुका है और बदबूदार सड़न पैदा कर रहा है।
अगर देश अब भी नहीं जागा तो परिणाम किस दूर तक जा कर दुष्प्रभावी होंगे, कल्पना करना भी कठिन है। अधूरे सपनों से बड़े सपनो में रंग नहीं भरे जा सकते है, बड़े लक्ष्यो के लिये बड़े सपने, बड़ा मन, बड़ी उदारता और व्यापकता का सोच चाहिये।
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