
विशेष: ....कितना ख़ून ख़राबा होगा: अनिल अनूप
पुलवामा आत्मघाती हमले और शहीद हुए 44 जवानों पर सामयिक लेख प्रस्तुत कर रहें हैं लेखक अनिल "अनूप"
पुलवामा में दिल दहला देने वाले आत्मघाती हमले में सीआरपीएफ़ के 44 जवानों की मौत ने एक बार फिर इस सवाल को खड़ा कर दिया है।
जम्मू-कश्मीर के पुलवामा ज़िले के अवंतिपुरा के लेकपुरा इलाके से गुजर रहे सीआरपीएफ़ के काफिले पर चरमपंथी हमले की ज़िम्मेदारी प्रतिबंधित चरमपंथी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने ली है।
जैश-ए-मोहम्मद के प्रवक्ता मोहम्मद हसन ने एक बयान जारी कर कहा है कि आदिल अहमद उर्फ़ वक़ास कमांडो ने इस हमले को अंजाम दिया है। वक़ास कमांडो को पुलवामा ज़िले का नागरिक बताया जा रहा है।
यह पहली बार नहीं है जब जैश ने भारत में इस तरह के हमले किये हैं।
इस सिलसिले की शुरुआत हुई थी जैश के प्रमुख मौलाना अज़हर मसूद की गिरफ़्तारी के बाद 24 दिसंबर 1999 को 180 यात्रियों वाले एक भारतीय विमान को अगवा किये जाने से।
मौलाना मसूद अज़हर को भारतीय अधिकारियों ने 1994 में कश्मीर में सक्रिय चरमपंथी संगठन हरकत-उल-मुजाहिदीन का सदस्य होने के आरोप में श्रीनगर से गिरफ़्तार किया था।
कैसे पड़ी जैश की नींव?-
अपहरणकर्ता इस विमान को कंधार ले गये थे और भारतीय जेलों में बंद मौलाना मसूद अजहर, मुश्ताक ज़रगर और शेख अहमद उमर सईद जैसे चरमपंथी नेताओं की रिहाई की मांग की।
छह दिन बाद 31 दिसंबर को अपहरणकर्ताओं की शर्तों को मानते हुए भारत सरकार ने चरमपंथी नेताओं को रिहा किया और बदले में कंधार एयरपोर्ट पर अगवा रखे गए विमान को बंधकों समेत छोड़ दिया गया।
इसके बाद ही मौलाना मसूद अज़हर ने फ़रवरी 2000 में जैश-ए-मोहम्मद की नींव रखी और उसके बाद से भारत में कई चरमपंथी हमले को अंजाम दिया।
उस वक्त मौजूद हरकत-उल-मुजाहिदीन और हरकत.उल.अंसार के कई चरमपंथी जैश-ए-मोहम्मद में शामिल हुए। ख़ुद मौलाना मसूद अज़हर हरकत-उल-अंसार का महासचिव रह चुके हैं और हरकत-उल-मुजाहिदीन से भी उनके संपर्क रहे हैं।
पठानकोट उड़ी से लेकर पुलवामा के हमले
अपनी स्थापना के दो महीने के भीतर ही जैश-ए-मोहम्मद ने श्रीनगर में बदामी बाग़ स्थित भारतीय सेना के स्थानीय मुख्यालय पर आत्मघाती हमले की ज़िम्मेदारी ली थी।
फिर इस संगठन ने 28 जून 2000 को भी जम्मू कश्मीर सचिवालय की इमारत पर हुए एक हमले की ज़िम्मेदारी ली।
ठीक इसी तर्ज़ पर 24 सितंबर 2001 पर एक युवक ने विस्फोटक पदार्थों से भरी कार श्रीनगर में विधानसभा भवन से टकरा दी। इसी दौरान कुछ दूसरे चरमपंथी विधानसभा की पुरानी इमारत में पीछे से घुस गए और वहां आग लगा दी। इस घटना में 38 लोग मारे गए।
हमले के तुरंत बाद जैश-ए-मोहम्मद ने इसकी ज़िम्मेदारी ली लेकिन अगले ही दिन इससे इंकार कर दिया।
जैश-ए-मोहम्मद पर 13 दिसंबर 2001 को भारतीय संसद पर हुए हमले और जनवरी 2016 में पंजाब के पठानकोट स्थित वायु सेना ठिकाने पर हमले के लिए भी ज़िम्मेदार बताया जाता है।
पठानकोट के पहले भी भारत में हुए कई हमलों के लिए जैश को ज़िम्मेदार ठहराया गया। इसमें सबसे बड़ा 2008 में हुआ मुंबई हमला था।
2001 में संसद पर हुए हमले के दोषी अफ़ज़ल गुरु भी जैश से जुड़े हुए थे और उन्हें 10 फ़रवरी 2013 में सजा-ए-मौत दी गई थी।
दिसंबर 2016 में कश्मीर के उड़ी स्थित सैन्य ठिकाने पर हुए हमले के लिए जैश को ही ज़िम्मेदार बताया गया था। उड़ी हमले में 18 सैनिकों की मौत हुई थी।
इस हमले के कुछ ही दिन बाद भारतीय सेना ने नियंत्रण रेखा पर "सर्जिकल स्ट्राइक" करने का दावा किया।
जैश-ए-मोहम्मद को भारत, ब्रिटेन, अमरीका और संयुक्त राष्ट्र ने "चरमपंथी" संगठनों की सूची में रखा है।
अमरीका के दबाव में आकर पाकिस्तान ने साल 2002 में इस संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया था लेकिन रिपोर्ट्स के मुताबिक जैश प्रमुख मौलाना मसूद अज़हर पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के बहावलपुर में रहते हैं।
पठानकोट पर हुए हमले के बाद पाकिस्तान ने जैश-ए- मोहम्मद के बहावलपुर और मुल्तान स्थित दफ़्तरों पर छापे की कार्रवाई की। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक अज़हर और उनके भाई को हिरासत में भी लिया गया था।
भारत अज़हर मसूद के प्रत्यर्पण की पाकिस्तान से कई बार मांग कर चुका है लेकिन पाकिस्तान सबूतों के अभाव का हवाला देते हुए अब तक इस मांग को नामंजूर करता रहा है।
पठानकोट हमले के बाद जैश-ए- मोहम्मद ने अल-कलाम पर एक ऑडियो क्लिप जारी किया, जिसमें अपने "जिहादियों" को काबू करने में भारतीय एजेंसियों की नाकामी का माखौल उड़ाया गया था।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक जैश-ए-मोहम्मद भारत में कथित गौरक्षकों के मुसलमान युवकों पर हमले और कश्मीर मुद्दे को लेकर मुसलमानों को "उकसा" रहा है।
पिछले कई वर्षों से कश्मीर में कई चरमपंथी हमले हुए लेकिन पुलवामा में हुआ यह हमला अब तक का सबसे बड़ा हमला बताया जा रहा है।
जैश-ए-मोहम्मद के चरमपंथियों के लिए आत्मघाती हमला पसंदीदा तरीक़ा है। पुलवामा में भी इसी आत्मघाती तरीके का इस्तेमाल किया गया।
यह हमला कैसे हुआ, इसे लेकर सटीक जानकारियां अभी जुटाई ही जा रही हैं। शुरुआती रिपोर्टों के अनुसार जैश-ए-मोहम्मद के लिए काम करने वाले आदिल अहमद ने पुलवामा में विस्फोटकों से लदी गाड़ी सीआरपीएफ़ के 70 बसों के काफ़िले में चल रही एक बस से भिड़ा दी।
कुछ ही मिनटों में घटनास्थल ऐसा नज़र आने लगा मानो युद्धग्रस्त इलाक़ा हो - तबाह हो चुकी गाड़ियां, मलबा और अधजले शरीर के हिस्से। इस क्रूर तरीके से इंसानी जान की क्षति ने दहशत पैदा कर दी।
सितंबर 2016 में उड़ी में सेना के कैंप पर "फिदायीनों" के हमले के बाद यह प्रमुख चरमपंथी हमला है। यह अक्तूबर 2001 में श्रीनगर में विधानसभा पर हुए भीषण हमले की याद दिलाता है जिसमें विस्फोटकों से लदी कार जम्मू और कश्मीर सचिवालय के गेट से टकराई थी। मगर पैमाने, आकार और तरीके के आधार पर यह हमला अनोखा है।
हमले के तुरंत बाद राजनेताओं, अधिकारियों और लोगों ने इसकी निंदा की जिसमें प्रतिशोध की मांग के स्वर भी सुनाई दे रहे थे। केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली और जनरल वी•के• सिंह ने इस हमले का बदला लेने की हिमायत की और कहा कि, "आतंकवादियों को ऐसा सबक सिखाया जाए जिसे वे कभी न भूलें।
सत्ता में बैठे लोगों की ओर से ऐसी टिप्पणियां कश्मीर को लेकर ग़लत समझ और दोषपूर्ण उपाय सुझाने की प्रवृति को दिखाती हैं। इन टिप्पणियों से सरकार की "सैनिकों की वीरता" का महिमामंडन करके अपनी ज़िम्मेदारी से भागने की प्रवृति भी पता चलती है।
अगर सीमा पर लड़ने और उपद्रवियों से संघर्ष करने की ज़िम्मेदारी सैनिकों की है तो राजनीतिक शक्ति की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह ऐसा माहौल बनाने की कोशिश करे, जहां इस तरह की हिंसक परिस्थिति पैदा होने से टाली जा सके। साफ़ है, ज़मीन पर उठाए जा रहे क़दमों से न तो ज़िम्मेदारी भरी भूमिका का प्रदर्शन हो रहा है और न ही व्यावहारिकता का।
इस मामले में जांच बेहद ज़रूरी है, बिना ढिलाई बरते इस हमले से जुड़े सभी सवालों की पड़ताल होनी चाहिए। मास्टरमाइंड का पता लगाया जाना चाहिए, यह भी देखना चाहिए कि कड़ी सुरक्षा वाली इस सड़क में चूक आख़िर कहां हुई।
ज़िम्मेदार और उदार लोकतांत्रिक देशों से यह उम्मीद नहीं की जाती कि उनकी नीतियां और उनके काम प्रतिशोध की भावना से प्रेरित हों। वैसे भी, तुरंत दी गई प्रतिक्रिया शांति स्थापित होने की गारंटी नहीं देती। इस तरह की प्रतिक्रियाएं सिर्फ़ और ख़ून-ख़राबे को प्रोत्साहित ही कर सकती हैं जो घाटी और भारत दोनों के लिए नुक़सानदेह होगा।
इसके बजाय भारत सरकार को महत्वपूर्ण सवाल पूछने चाहिए कि हिंसा की सनक क्यों सैनिकों, सशस्त्र प्रभावशाली समूहों के सदस्यों और नागरिकों की जान ले रही है, क्यों यह सिलसिला घाटी में चल रहा है?- साथ ही यह विचार भी करना चाहिए कि इन हालात से कैसे निपटा जा सकता है।
यह घटना कश्मीर संघर्ष से निपटने के लिए बनाई गईं त्रुटिपूर्ण नीतियों और कार्रवाइयों की असफलता का परिणाम है।
चरमपंथ को ख़त्म करने की कोशिश करने के बजाए सुरक्षा बलों द्वारा चरमपंथियों को मारे जाने को ही सैन्य नीति की सफलता मान लिया गया था (सैनिकों और पुलिसकर्मियों को बड़ी संख्या में खोते हुए), जिसके कारण और नौजवानों ने हथियार उठा लिए और भारतीय सुरक्षा बलों के साथ लड़ाई में जुट गए। साथ ही इसने कश्मीर के लोगों और केंद्र सरकार के बीच की दूरी को भी और बड़ा दिया।
चरमपंथ लोगों में पनप रही बेचैनी का ही परिणाम है। ये बेचैनी अनसुलझे राजनीतिक विवाद, लोकतंत्र और लोगों के लोकतांत्रित अधिकारों का हनन और मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की अनदेखी करने से पैदा हुई है। सैन्य प्रयासों और राजनीतिक कोशिशों को साथ लिए बिना भारत सरकार गलत रास्ते पर जा रही है।
पिछले सात दशकों में और विशेष रूप से 1990 में विद्रोह की शुरुआत के बाद से लगातार आईं सरकारें विवाद को हल करने से कतराती रही हैं। सरकारें समस्या सुलझाने के लिए राजनीतिक कौशल या सैन्य तरीके अपनाने की बजाए सरकार से मोहभंग कर चुकी जनता को लुभाने के लिए बाहरी सजावटी उपाय करती आई है।
वर्तमान भाजपा सरकार संघर्ष को संभालने से लेकर उसके समाधान तक पहुंचने के रास्ते से बहुत दूर है बल्कि यह बेरोक-टोक सैन्य नीति अपनाकर संघर्ष को बढ़ा रही है।
यहां तक कि साल 2016 में भी कश्मीर के लोगों से निपटने के लिए बुलेटे, पैलेट और गिरफ़्तारी का तरीका अपनाया गया था। यह नीति हिंसा के रास्ते और चरमपंथ को ख़त्म नहीं कर सकती।
अगर 2018 में 250 चरमपंथी मारे गए तो उतनी संख्या में युवाओं ने हथियार भी उठाए हैं और कई हैं जो इसके लिए तैयार भी बैठे हैं।
जब तक इस समस्या के जड़ से समाधान के लिए शांतिपूर्ण तरीकों से पूर्ण गंभीरता के साथ प्रयास नहीं किए जाते तब तक घाटी में खून बहना बंद नहीं होगा।
भारत सरकार ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान से बातचीत के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाए गए कदम का समर्थन किया है। तो भारत सरकार कश्मीर पर बात करने से क्यों घबराती है ?-
जबकि यहां पर हथियार उठाए चरमपंथियों के अलावा हुर्रियत जैसा राजनीतिक समूह और मजबूत सिविल सोसाइटी के लोग भी हैं जिन्होंने इस विवाद पर शांतिपूर्ण पहल की है।
कश्मीर आज राजनीतिक समाधान के लिए चिल्ला रहा है। इस समाधान के लिए कुछ अलग तरह की सोच और कड़े कदम उठाने की जरूरत है जिसमें पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारना और जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ संवाद शुरू करना शामिल है।
भारत सरकार को उत्तरी आयरलैंड से प्रेरणा लेनी चाहिए जिसके हिंसक हो जाने पर ब्रिटिश सरकार ने मसलों को सौहार्दपूर्ण तरीके से हल करने के लिए मजबूर किया।
पुलवामा का हमला एक चेतावनी है, यह चरमपंथ में एक नए ट्रेंड को दिखाता है जिस तरीके से हमला किया गया है उसकी भायवहता उसे पिछले कई हमलों से अलग करती है।
यह हमला एक सबक देता है कि कश्मीर पर दोषपूर्ण नीतियां हमें एक खतरनाक भंवर की ओर धकेल रही हैं और इंसान इसका शिकार हो रहे हैं चाहे वो किसी भी क्षेत्र के हों।
swatantrabharatnews.com