
विशेष: संसद के दो चेहरे: रघु ठाकुर
लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक- राजनैतिक पैगम्बर- विख्यात समाजवादी चिंतक व विचारक- रघु ठाकुर का "संसद के दो चेहरे" शीर्षक से यह विशेष लेख उन्ही के शब्दों में प्रस्तुत है:
केन्द्र की भाजपा सरकार ने देश के गरीब सवर्णो के लिये 10 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय किया है और आश्चर्यजनक ढंग से केबिनेट का फैसला लोकसभा में भारी बहुमत से पारित हुआ।
इस संविधान संशोधन बिल पारित करने के लिये संसद के 64 प्रतिशत सदस्यो का समर्थन जरुरी था परन्तु 67 प्रतिशत सदस्यो ने इस 124 वे संविधान संशोधन विधेयक का समर्थन किया। राज्य सभा में विधेयक को चुनौती मिलने की संभावना थी परन्तु राज्य सभा में भी 165 मत संशोधन विधेयक के पक्ष में आये और केवल 7 मत विरोध में गये।
कांग्रेस पार्टी के राज्य सभा के नेता श्री आंनद शर्मा ने अंतर विरोधी विचार व्यक्त किया और कहा कि देश की 98 प्रतिशत सवर्ण व गरीब आबादी को 10 प्रतिषत में सीमित कर दिया गया है पर इसके बावजूद भी उन्होंने संविधान संषोधन विधेयक का समर्थन किया। वह आश्चर्यजनक है कि अगर वे इस बिल को सवर्ण के विरोध में मानते थे तो उन्होंने समर्थन क्यों किया? वह अगर 10 प्रतिशत कोटा अपर्याप्त मानते थे तो उन्होंने उसे बढ़ाने के लिये संशोधन प्रस्ताव पेश क्यों नही किया?
यह स्थिति केवल श्री आंनद शर्मा के साथ नही बल्कि अन्य दलो के सांसदो की भी रही है कि उन्होंने एक तरफ तो यह कहा कि 95 प्रतिशत सवर्ण बेरोजगारो को 10 प्रतिशत में बाँध दिया गया और इसके बावजूद भी उन्होंने न तो विरोध किया और न संशोधन बिल लायेे।
इसके कई अर्थ हो सकते है एक तो यह कि उन्होंने गहराई से इस विधेयक के दीर्घकालिक प्रभावो पर विचार नही किया, दूसरा यह कि सवर्णों को नाराज नही करने के दलीय निर्देशों के आदेश का पालन करते हुये उन्होंने इस बिल का समर्थन किया, क्योंकि कांग्रेस पार्टी का शीर्ष नेतृत्व पहले ही लोकसभा में इसका समर्थन कर चुका था।
स.पा. व आप के सांसदों ने विरोध में कहा जरुर परन्तु सपा व आप ने इस बिल के विरोध में वोट नही डाले बल्कि पक्ष में वोट किया। ए.आई.डी.एम.के. व राजद के सांसदो ने विरोध किया और विरोध में वोट भी डाला। परन्तु इस बार उनका विरोध अज्ञात कारणो से काफी शालीन रहा हालांकि अब राजद नेता पूर्व मंत्री श्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने बयान दिया है कि, राजद के सांसदो को बिल के खिलाफ वोट नही देना था।
यह भी आश्चर्यजनक है कि, महिला आरक्षण बिल जो महिलाओं को 30 प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव करता है पिछले लगभग 25 वर्षो से संसद में पारित नही हो सका। जब यू.पी.ए की सरकार थी तब महिला आरक्षण विधेयक का सपा, राजद और जदयू के सांसदो ने विरोध किया था तथा न केवल संसद में इसकी प्रति फाड़ी थी बल्कि लोकसभा अध्यक्ष की आसन के पास पहुुंच गये थे और घोषित रुप से महिला आरक्षण के पक्ष में 80 प्रतिशत सांसदो के समर्थन के बाद भी सरकार ने उसे वापिस ले लिया था। अभी भी भारत की संसद में लोकसभा के 545 सांसदो में से 500 सांसद उन दलों के है जो अपने घोषणा पत्रो में तो घोषित रुप से महिला आरक्षण का समर्थन करते है परन्तु न तो सरकारी पार्टी भाजपा यह प्रस्ताव लाती है और न ही कांग्रेस या वामपंथी दलो ने निजी विधेयक के रुप में इसे कभी पेश किया।
इसका साफ अर्थ यही हुआ कि संसद के दो चेहरे है एक हाथी का दांत दिखाने का और एक खाने का। कई दलबाह्नय तोैर पर महिला आरक्षण का समर्थन तो करते है परन्तु अंतर-मन से उसके समर्थक नही हैं ।
सवर्ण आरक्षण विधेयक को लेकर कुछ विद्वान-जनों ने यह संदेह व्यक्त किया है कि शायद सुप्रीम कोर्ट इसे मंजूर नही करेगा क्योंकि कोर्ट के द्वारा कथित बांधी गई सीमा रेखा 50 प्रतिशत से यह आगे जाता है।
सत्ता पक्ष ने कहा है कि लोकसभा और राज्यसभा दोनो में दो तिहाई बहुमत से पारित विधेयक को अब चार राज्य विधान सभाओं में पारित कराने की कोई आवश्यकता नही है तथा राष्ट्रपति जी ने इस पर हस्ताक्षर कर दिये हैं।
यह कानूनन आवश्यकता हो न हो इस तकनीकी प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट अपनी राय अगर आवश्यक हुआ तो देगा परन्तु सुप्रीम कोर्ट की सामाजिक संरचना के आधार पर मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट भी इस संविधान संशोधन-विधेयक के साथ ही खड़ा होगा।
इस विधेयक को मेरी राय में निम्न कसौटियों पर देखना चाहिये:-
1. भारतीय संविधान में जो आरक्षण का प्रावधान किया गया था, उसकी भावना, उन जातियो या वर्गाे को हिस्सेदारी देने की थी जो देश के पुरानी व्यवस्था के कारण सामाजिक और शैक्षिणिक रुप से पीछे छूट गये थे।
संविधान के अनुसार ’’सरकार उन जातियो या वर्गो की पहचान करेगी जो सामाजिक और शैक्षिणिक रुप से पिछडे है’’ और इसीलिये अनुसूचित जाति, व अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के लिये एस.सी/एस.टी कमीशन तथा अन्य पिछड़ी जातियों के लिये ओ.बी.सी. कमीशन समय पर बनाये गये। ओ.बी.सी जातियो के सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन की जांच के आधार पर रपट देने के लिये आजादी के बाद प्रथम आयोेग "काका कालेलकर आयोग" बना था फिर बाद में 1979 में मंडल आयोग बना।
मंडल आयोग ने "टाटा इस्टिटयूट" के माध्यम से पिछड़ी जातियो की संख्या एंव विवरण एकत्रित किया, जिसके आधार पर भारत सरकार ने 1990 में मंडल आयोग की सिफारिश लागू की।
राज्यो में भी अलग-अलग कमीशन बनाये गये जैसे उ.प्र. में "छेदीलाल कमीशन", जिसमे अन्य पिछड़ी जातियो को दो हिस्सो में बांटने और पिछड़े अति पिछड़े का प्रथक कोटा तय करने की सिफारिश की गई थी।
हालाकि इन सिफारिशोंं को अभी तक लागू नही किया जा सका।
श्री राजनाथ सिंह ने उ.प्र. के मुख्यमंत्री रहते हुये ओबीसी की जातियो को पिछड़ा व अतिपिछड़ा में बांटकर पिछड़ा और अतिपिछड़ा को पृथक कोटा तय किया था, जिसे बाद की मुलायम सरकार ने समाप्त कर दिया ।
वैसे तो राजनाथ सिंह जी से बहुत पहले 1978 में समाजवादी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री स्व.कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में "मुंगेरीलाल कमीशन" की सिफारिश के आधार पर पिछड़ी जातियों को सूची एक और सूची दो में बाॅटकर पृथक-पृथक आरक्षण दिया था। साथ ही सवर्णो के लिये और महिलाओं के लिये क्रमश: 5 प्रतिशत और 3 प्रतिशत आरक्षण का पृथक प्रावधान किया था। कर्पूरी जी की इस आरक्षण योजना को बाद में लालू प्रसाद की सरकार ने समाप्त कर दिया।
2. अभी भारत सरकार ने जो सवर्णो को 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया है उसे चुनाव के पूर्व का राजनैतिक कदम माना जा रहा है और वह है भी।
स्वतः भारत सरकार के मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद ने राज्य सभा में कहा कि यह बिल मैच जिताने वाल छक्का है।
अगर श्री प्रसाद, जो कानून मंत्री भी है, की बात को मान लिया जाये तो इसका अर्थ होता है कि यह कानून किसी अन्य भावना से नही केवल चुनाव की जीत के लिये लाया गया है। चुनावी जीत के लिये भी सरकारे और राजनैतिक लोग कदम उठाते है तथा इस पर कोई आपत्ति भी नही है। पर दो मूल अन्य प्रश्न भी है:
(अ) "संविधान" आरक्षण के लिये जाति और वर्गो की पहचान के लिये कहता है। गरीबी के आधार पर आरक्षण के लिये पहचान का कोई प्रावधान नही है। इसके बावजूद क्या सरकार ने इस उद्देश्य से कोई सवर्ण गरीब पहचान आयोग या ऐसे किसी आयोग का गठन किया?-
(ब.) सवर्णो को जाति के आधार पर पिछड़ा या एक वर्ग जैसा कैसे माना जा सकता है?-
3. अगर आरक्षण को संविधान की भावना के अनुसार भागीदारी माना जाये तो उस कसौटी पर सवर्ण आरक्षण खरा नही है। आरक्षण रोजगार का विकल्प नही है और न ही गरीबी को मिटाने वाला अस्त्र है।
हमारे देश में आज लगभग 15 से 20 करोड़ लोग शिक्षित बेरोजगार है और अब क्या केन्द्र सरकार की लाख दो लाख नौकरियो से उनके 10 प्रतिशत याने 10-20 हजार नौकरियोे से क्या सवर्ण की बेरोजगारी दूर हो जाऐगी?
राज्यो के भी सरकारी नौकरियो के रिक्त पद मुश्किल से 30 लाख के आसपास है तो क्या 30 हजार नौकरियो से सवर्ण जातियों की बेरोजगारी या गरीबी दूर हो जायेगी?
4. अगर सरकार गरीबो को नौकरी देना चाहती है तो उसमे मुझे कोई आपत्ति नही है। सरकार को एक समान क्रीमीलेयर की सीमा तय कर देना चाहिये जो एससी/एसटी /ओबीसी या अन्य आरक्षित वर्गो की नौकरियों पर तथा गैर आरक्षित पदों याने शेष 50 प्रतिषत पदो पर भी समान रुप से लागू हो। सभी सरकारी नौकरियां केवल गरीबो को ही क्यों न दी जायें?
अमीर और सम्पन्न लोगो के बेटो को सरकारी नौकरी की क्या आवश्यकता है? उनके पास रोजगार के नाम पर बड़े-बड़े उद्योग धन्धे और व्यापार के विकल्प है। परन्तु न केवल सरकार ने बल्कि भारत की संसद के किसी भी दल ने इस सवाल को इस दृष्टिकोण से नही उठाया।
चूंकि सत्ता पक्ष ने अपने कदम से प्रतिपक्ष को सवर्ण मतो के नाम पर भयभीत कर दिया है और शायद इसलिये भी कि भारत का हर तंत्र चाहे वह नौकरशाही हो, अफसरशाही का हो, राजसत्ता को हो या विधायिका का हो, पूंजी का हो या धन्धो का हो, वह मोटा-मोटी तौर पर सवर्ण जातियो के ही कब्जे में है और इसलिये अपने ही लोगो को मिलने वाले छोटे मोटे लाभ का भी वे न विरोध कर सकते है न उसमें तार्किकता खोज सकते है।
मेरा यह आरोप नही है बल्कि भारतीय समाज और जाति व्यवस्था का कटु और रोचक तथ्य है।
5. भारत सरकार के कर्ता-धर्ता अपने निर्णयो में अतिरेकी कार्य कर रहे है। किसी भी कदम को उठाने के पूर्व उसके बारीकी और दीर्घ-कालिक प्रभावो की संभावनायें नही तलाशते। जब सुप्रीम कोर्ट ने एसटी/एससी एक्ट में जाॅच के पूर्व अनिवार्य गिरफ्तारी पर रोक लगाई थी तो सरकार ने मीडिया और अपने दल के कुछ सांसद व विपक्ष के दबाव में कोर्ट के फैसले को बदलने का निर्णय किया।
अगर गंभीरता से सोच विचार कर निर्णय किया होता तो हमने जो सुझाव दिया था कि,
1. दो सदस्यीय जाॅच समिति के द्वारा 30 दिन में जाॅच अनिवार्य हो एंव 2. जाॅच समिति का एक सदस्य अनिवार्य रुप से एससी/एसटी का हो।
अगर यह मान लिया गया होता तो शायद सरकार को सवर्ण विरोध का सामना नही करना पड़ता और अब उसे शांत करने के लिये इस सवर्ण आरक्षण का ड्रामा भी सरकार को नही करना पड़ता।
परन्तु सरकार का तरीका है ’’पहले दुखाओ फिर रिझाओ’’और सवर्ण आरक्षण विधेयक इसी रणनीति का हिस्सा है।
6. कुछ सांसदो ने और यहाॅ तक कि सत्ताधारी दल के सांसदो ने भी निजी क्षेत्र में आरक्षण की बात इस समय कही है। परन्तु न श्री पासवान और न ही श्री रामदास अठवाले ने इस आशय का प्रस्ताव विधिवत रखा। उनके दल के सांसद चाहते तो निजी बिल के तौर पर भी इसे पेश कर सकते थे पर किसी ने भी नही किया।
हांलाकि मंडल कमीशन ने अपनी सिफारिशों में निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की सिफारिश की थी पर अब यह और भी आवश्यक है क्योंकि वैश्वीकरण के दौर में सरकारी क्षेत्र बहुत सिकुड़ा है।
सरकारी क्षेत्र की लगभग दो करोड़ नौकरियाॅ "मशीनीकरण व निजीकरण" के कारण समाप्त हो गई है और दूसरी तरफ निजी क्षेत्र का दानवी फैलाव हुआ है।
आज स्थिति यह है कि देश की सरकारी और गैर सरकारी कुल नौकरियो का 98 प्रतिशत निजी क्षेत्र में है।
7. एक अलिखित आरक्षण देश में जारी है और जो एससी/एसटी के लिये शत-प्रतिशत है। क्योकि सवर्ण व पिछड़ा वर्ग इसमें जाना नही चाहता। सफाई कर्मी, चर्मकारी, जमादारी, संडास सफाई आदि के कामो में कोई सवर्ण और पिछड़ा वर्ग नही जायेगा।
अच्छा होता कि सरकार कुछ जाति-तोड़क क्रांतिकारी कदम उठाती और इन कामो में भी पिछड़ी जातियों और सवर्णो के लिये आरक्षण करती परन्तु यह साहस भारतीय राजनीति में नही है।
यह साहस तो केवल गांधी और लोहिया के पास ही था जो यह कह भी सकते थे व ताकत होने पर कर भी सकते थे।
अंत में इतना ही कहॅूगा कि सूक्ष्म विश्लेषण चाहे जो हो परन्तु सत्ता पक्ष को इस आरक्षण का लाभ आगामी चुनाव में मिलेगा और वह इसलिये भी क्योंकि भारतीय राजनीति में सच कहने का साहस खत्म हो चुका है, और इसलिये भी कि हमारी समाज व्यवस्था में जाति भाव कूट-कूट कर भरा है और विषाक्त मन, कर्म सात्विक चिंतन नही कर सकते, इसलिये भी कि आज भी प्रचार की ताकत और प्रचार तंत्र सवर्णो के हाथ में है। पिछड़े निष्क्रिय और मूक दर्शश बने रहते है और अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के तबके भी समाज से कटे हुये है तथा उनके संगठन या नेता न दूर-दृष्टि से सोच रहे है और न सच को स्वीकार करने या कहने का साहस रखते है।
आज भी वे केवल गांधी विरोध और अपने मन में सवर्ण बनने की आंकाक्षा में जी रहे है।
अगर लम्बान की दृष्टि से सोचा जायेगा तो यह कदम संविधान प्रदत्त उस आरक्षण प्रावधान के मूल आधार को समाप्त करने लिये है जो सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर पिछड़ो की पहचान करने को है। उसके लिये खतरे की घंटी बज चुकी है। पहला निशाना पिछड़ो पर होेगा दूसरा अनूसूचित जाति जनजाति पर। इसलिये कि संविधान प्रदत आरक्षण हिस्सेदारी के लिये था और सवर्ण आरक्षण विधेयक हिस्सेदारी के सिद्वांत को खत्म करके रोजगार और गरीबी के सिंद्वात में तब्दील हो रहा है।
अंत मेैं फिर एक बार गांधी लोहिया और कर्पूरी जी का स्मरण करुॅगा। गांधी ने देश में छुआ-छूत को मिटाने के लिये स्वतः अछूतों वाले काम सुरु कर कर्म, क्रांति सुरु की थी। लोहिया ने सवर्ण जातियो में जन्मे समाजवादी नेताओं को पिछड़ों और दलितो के लिये खाद बनने की सलाह दी थी। जिस खाद से पिछड़े और दलितो का नेतृत्व उभर सके और 50 से 60 के दशक के बीच बहुतेरे जन्मना सवर्ण समाजवादी नेताओं ने अपने आप को पीछे कर पिछड़े दलितो को आगे किया। उनकी यह कुबार्नी मामूली नही थी। बिहार के स्व.रामानंद तिवारी शिवचंद झा ,मधुलिमये, राजनारायण , मामावालेष्वर दयाल लाडली मोहन निगम, दिनेश दास गुप्ता जैसे कितने ही जन्मना सवर्ण जाति के नेता थे, जिन्होंने अपने आप को सामाजिक क्राति के लिये कुर्बान कर दिया।
अगर पिछड़े और दलित इस बात को समझेगे तभी भविष्य की योजना ठीक बना पायेगे और श्री नरेन्द्र मोदी जी भी स्मरण रखें कि सवर्णो को आरक्षण की शुरुआत कर्पूरी ठाकुर ने 1978 में की थी।
आज से 40 वर्ष पहले लोहिया और समाजवादियो का विचार समाज से 40 वर्ष आगे पहले भी चलता था और आज भी चल रहा है।
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