
छठ मैया की जय: आज व्रती खरना का प्रसाद ग्रहण कर शुरू किए निर्जला व्रत
गोपालगंज (बिहार): रविवार को नहाय खाय के साथ लोक-आस्था का महापर्व छठ का चार दिवसीय अनुष्ठान शुरू हो चुका है।
सभी छठ घाटों पर व्रतियों की भारी भीड़ उमड़ी हुई है।
ब्रतियो ने आज सोमवार को पूजा के बाद "खरना" का प्रसाद ग्रहण करने के बाद अगले 36 घंटे का निर्जला अनुष्ठान शुरू कर दिया है।
इसी क्रम में हमारे संवाददाता से बात करते हुए बिहार के गोपालगंज की समाजसेवी श्रीमती अरुणा ज्योति ने खरना के महत्व के विषय में पूछने पर बताया कि, "कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि को "छठ पर्व" मनाया जाता है और खरना पंचमी तिथि को किया जाता है जो इस साल आज 12 नवंबर को है। आमतौर पर छठ पर्व बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के इलाकों में मनाया जाने वाला पर्व है, लेकिन अब इस पर्व ने अपनी सीमाओं को लांघकर विदेशों में भी अपनी जगह बना ली है। इन क्षेत्रों के लोग अपने साथ छठ व्रत की आस्था भी अपने साथ लेकर देश के अलग.अलग हिस्सों और विदेशों में भी पहुंच चुके हैं। इसलिए छठ अब केवल क्षेत्रीय पर्व ना होकर देश भर और विपदेशों में मनाया जाने वाला पर्व बन चुका है।"
अरुणा ज्योति ने बताया कि, सूर्य उपासना का यह अनुपम लोक-पर्व चार दिनों तक चलता है, जिसका आरम्भ नहाय-खाय के साथ होता है। अगले दिन खरना किया जाता है। खरना का मतलब है "शुद्धिकरण"। व्रती नहाय खाय के दिन एक समय भोजन करके अपने शरीर और मन को शुद्ध करना आरंभ करते हैं, जिसकी पूर्णता अगले दिन होती है, इसलिए इसे "खरना" कहते हैं। इस दिन व्रती शुद्ध अंतःकरण से "कुलदेवता और सूर्य एवं छठ मैय्या" की पूजा करके गुड़ से बनी खीर का नैवेद्य अर्पित करते हैं। देवता को चढ़ाए जाने वाले खीर को व्रती स्वयं अपने हाथों से पकाते हैं। इसके लिए मिट्टी के नए चूल्हे का प्रयोग किया जाता है। खीर पकाने के लिए शुद्ध अरवा चावल या साठी के चावल का प्रयोग होता है। ईंधन के रूप में सिर्फ लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है। आम की लकड़ी का प्रयोग करना उत्तम माना गया है। खरना पूजन के बाद व्रती पहले स्वयं प्रसाद ग्रहण करते हैं और इसके बाद परिवार के लोग।
खरना पूजन में एक बार भोजन कर लेने के बाद व्रती को कुछ भी खाना-पीना नहीं होता है। संध्या अर्घ्य और सुबह का अर्घ्य देने के बाद ही व्रती व्रत का परायण कर सकते हैं। छठ व्रत की पौराणिक कथाओं और परम्पराओं के अनुसार खरना के बाद व्रती दो दिनों तक साधना में होते हैं, जिसमें उन्हें पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए भूमि पर शयन करना होता है। इसके लिए सोने के स्थान को अच्छे से साफ-सुथरा करके पवित्र किया जाता है और स्वच्छ बिस्तर बिछाया जाता है।"
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