राफेल डील की जाॅच से परहेज क्यों ?- रघुठाकुर
- यदि सेना की दाड़ में खून लग गया तो भारतीय लोकतंत्र पाक जैसे हालात में पहॅुच जायेगा जहाॅ निर्वाचित लोग केवल कठपुतली होगे और नियंत्रण की डोर सेना के पास होगी।
नई दिल्ली: राफेेल डील और सरकार द्वारा जाँच से परहेेज करनेे को लेकर प्रख्यात समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक- रघु ठाकुर ने अप लेख जारी किया जिसमें उन्होंने बताया कि, "भारत ने रुस के साथ एस-400 हथियार खरीदी का समझौता किया है जो लगभग 39,000 करोड़ रुपया का है। एस-400 भारतीय वायुसेना के लिये विशेष महत्व का है क्योंकि इसमें एक साथ 36 परमाणु मिसाईलो को नष्ट करने की क्षमता है तथा इससे 400 कि.मी. के दायरे में मिसाईलो और विमानो यहाॅ तक की फाइटर एफ जेड 35, को भी मार गिराया जा सकता है। जब यह चर्चा आई तब अमेरिका ने भारत को धमकी देने का प्रयास किया तथा अमेरिका ने काट्सा कानून के आधार पर प्रतिबंध लगाने की चेतावनी दी। अमेरिकी चेतावनी का इस समय कोई विशेष महत्व नही है, क्योंकि ना तो अमेरिका विश्व की एक मात्र सैन्य या आर्थिक शक्ति है और ना ही उसके पास वैष्विक स्तर पर प्रभावी नेतृत्व ही बचा है। अमेरिकी राष्ट्रपति इस समय अमेरिका और अमेरिका के बाहर एक अविश्वसनीय और गैर जिम्मेदार व्यक्ति के रुप में चर्चित है। कुछ समय पूर्व एस. 400 को चीन ने भी रुस से खरीदा था तथा उस समय अमेरिका ने गीदड़ धमकी देकर चुप्पी साध ली थी।
यद्यपि इस करार के बारे में अभी तक सार्वजनिक रुप से कोई विवाद नही आया है। हो सकता है कि, इसके राजनैतिक कारण हो।
जिस प्रकार साझा मोर्चे की सरकार में जब मुलायम सिंह यादव रक्षा-मंत्री थे और सुखोई विमान समझौता हुआ था। इस समझौते का मूल आधार कांग्रेस सरकार के जमाने में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में तैयार किया गया था। साझा मोर्चे के घटक दलों ने पहले उसका विरोध किया था क्योंकि विमान की आपूर्ति के पूर्व ही एक बड़ी राशि अग्रिम के तौर पर दे दी गयी थी। परन्तु साझा मोर्चे की सरकार के समझौते के बाद संसद में भाजपा की ओर से श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने भी समझौते का समर्थन किया था। इससे सुखोई विमान की खरीद शंका के घेरे में आने के बावजूद भी विवादित नही हुई।
इस विमान की गुणवत्ता के बारे कोई विवाद नही है परन्तु एक बात अवश्य मुझे चिंता-जनक लग रही है कि इतनी भारी राशि का समझौता सरकार ने रुस से किया है और उसके बाद भी रुस ने तकनीक देने से इंकार किया है।
इसका मतलब है कि, भारत की स्थाई निर्भरता रुस पर बनी रहेगी। इस खरीद का एक और परिणाम हुआ कि फ्रांस से राफेल विमान खरीद मामले में चल रही बहस पीछे हो गई तथा अखबार की सुर्खियो से भी यह बहस गायब हो गई।
राफेल विमान के सौदे को लेकर जो आरोप भारत सरकार पर लग था कि, सरकार ने उसकी कीमत फ्रांस की कम्पनी को कई गुना ज्यादा दी।
परन्तु सरकार की ओर से कीमत के बारे में कोई तार्किक या विश्वसनीय सफाई देने की बजाय केवल राफेल की गुणवत्ता पर चर्चा की गई या फिर यह कहा गया कि पिछली सरकार ने राफेल का समझौता किया था, वह सिर्फ राफेल विमान के लिये था उस विमान से हथियार आदि ले जाने के लिये जो आधुनिक साधन, तकनीक और कलपुर्जे चाहिये वे शामिल नही थे। परन्तु आश्चर्य की बात है कि सरकार ने अपने पक्ष को संसदीय तरीके से क्यों नही रखा।
बेहतर होता कि -
1. आरोप लगने के बाद सरकार स्वतः जाॅच का प्रस्ताव करती और बेदाग चेहरे के साथ सामने आती।
2. अगर सुरक्षा के दृष्टिकोण से और आयुद्व उपकरणो की गोपनीयता रखने के कारण यदि सरकार सार्वजनिक रुप से संसद में जानकारी देना उपयुक्त नही समझती तो वह संसद के गैर सत्ताधारी दलो के नेताओं को बुलाकर दस्तावेज दिखाकर जानकारी दे सकती थी।
यह लोकतांत्रिक भी होता और राष्ट्रीय हित के लिये भी अनुकूल होता परन्तु सरकार ने यह भी नही किया।
3. मैं मानता हॅू कि संसदीय समितियाॅ, दलीय दृष्टिकोण से बॅटी रहती है। यह एक लोकतांत्रिक प्रणाली का हिस्सा है। जब संसद में बकायादार प्रस्ताव पर संसदीय समितियो को विभागो की निगरानी करने का अधिकार दिया है तब सिंद्वात से यह स्वीकार किया गया है, कि संसदीय समितियाॅ, नीतियो और निर्णयो की निगरानी के लिये बेहतर मंच है। क्योंकि 545 सदस्यों की संसद गंभीर सवालो पर पर्याप्त समय और तार्किक चर्चा नही कर सकती, तब संसदीय समितियो के समक्ष गोपनीयता के नाम पर जानकारी न देना लोकतांत्रिक पंरपरा का हिस्सा नही है और यह एक प्रकार से संसद की उपेक्षा और अवमानना जैसा है।
रक्षा क्षेत्र के इन बड़े सौदे के बारे में संसद या संसदीय समिति आम लोगो में संशय पैदा करती है और यह स्थिति सरकार की साख के साथ-साथ देश के विश्वास को भी प्रभावित करती है। वैसे भी अब इंटरनेट और गूगल की पहॅुच इतनी बढ़ चुकी है कि किसी भी प्रकार की जानकारियाॅ दुनिया से छिपी हुई नही है। हथियारो के सौदे परंपरानुसार बिचैलियो के माध्यम से होते है और जो जानकारी बिचैलियो को पता है वह संसद से छिपाना उचित नही कहा जा सकता। सरकार ने राफेल डील को लेकर दो तर्क और दिये -
1.फ्रांस द्वारा इस समझौते की शर्त में यह लिखित में दर्ज है कि विमान से सम्बन्धित जानकारियाॅ सार्वजनिक नही की जायेगी।
2.राफेल की निर्माण करने वाली कम्पनी को सहयोगी कम्पनी के रुप में किसे चुनना है यह फ्रांस या भारत की सरकार तय नही करेगी बल्कि राफेल निर्माता कम्पनी स्वतः तय करेगी। तकनीकी रुप से तर्क सही हो सकते है परन्तु व्यवहारिक चलन भिन्न प्रकार का होता है। ठेका पाने की इच्छुक कम्पनियाॅ अंततः सरकार के दबाव व प्रभाव में होती है। इसलिये सरकारो के अनुकूल सहयोगी कम्पनियाॅ चुनना उनकी व्यवसायिक लाचारी होती है। दूसरे एच.ए.एल. जो विमान निर्माण के सम्बध में ज्यादा अनुभवी और सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी थी उसे दर किनार कर अंबानी निंयत्रित ग्रुप की नवजात कम्पनी को सहयोगी बनाना आश्चर्यजनक और शंका पैदा करने वाला है। इस मामले में फ्रांस की सरकार की सफाई ने देश को संतुष्ट नही किया।
एक नई घटना देश में सुरु हुई है कि देश के सेनाध्यक्ष सरकारो की सफाई में खड़े होने लगे। कुछ दिनो से सेनाध्यक्षों की बयानवाजी लोकतांत्रिक सीमाओं को लांघ रही है जो चिंता का विषय है। अभी हाल में सेना प्रमुख जनरल रावत ने रुस से लौटकर एक बयान में कहा कि भारत स्वतंत्र नीति पर चलता है। क्या भारत की रक्षा नीति भी अब सेना के जनरल तय करेगें?- कुछ दिनो पूर्व वायु सेनाध्यक्ष ने भी राफेल विमान की खरीदी को लेकर बयान दिया था और राफेल विमान की श्रेष्ठता का वर्णन किया था।
मुद्दा राफेल की गुणवत्ता का नही है बल्कि कीमत का है। और वायु सेना प्रमुख या सेना प्रमुख का काम सरकार की सफाई देना नही है।
सरकार को भी यह सोचना चाहिये कि अगर राजनैतिक बचाव के लिये सैन्य आधिकारियो का इस्तेमाल करेगी तो सेना की महत्वाकांक्षा बढ़ेेगी और सैन्य अधिकारी सत्ता के भागीदार और सत्ता लोलुप बनेगे। जैसे जनरल वी.के.सिंह सेना प्रमुख के रुप में बयान देते थे कि सेना के पास हथियार पुराने पड़ चुके है और लड़ाई के योग्य नही है। अब वे भारत सरकार में एक राज्यमंत्री के रुप में विराजमान है तथा सेना प्रमुख के रुप में जिस चिंता को उन्होंने सार्वजनिक रुप से कहा था अब वे उसकी चर्चा तक नही करते।
भारतीय सेना ने आजादी के बाद से एक अद्भुद संयम बरता हेै तथा उसकी दाड़ में खून नही लगा है। सत्ताधारियो को सावधान हो जाना चाहिए। यदि सेना की दाड़ में खून लग गया तो भारतीय लोकतंत्र पाक जैसे हालात में पहॅुच जायेगा जहाॅ निर्वाचित लोग केवल कठपुतली होगे और नियंत्रण की डोर सेना के पास होगी।
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