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पुण्यतिथि विशेष: आज अगर लोहिया होते तो गैर-भाजपावाद का आह्वान करते क्योंकि....
लखनऊ: डा• लोहिया ने पंडित नेहरू जैसे प्रधानमंत्री को यह कहकर निरुत्तर कर दिया था कि आम आदमी तीन आने रोज़ पर गुज़र करता है, जबकि प्रधानमंत्री पर रोज़ाना 25 हज़ार रुपये ख़र्च होते हैं।
‘जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं हैं।"
गैर-कांग्रेसवाद के जनक और समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया का यह कथन आज की सरकारों के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना 1960 के दशक में पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी की सरकारों के लिए था।
डा• लोहिया युग पुरुष थे और ऐसे लोगों का चिंतन किसी एक काल और स्थान के लिए नहीं बल्कि हर युग और पूरी मानवता के लिए प्रासंगिक होता है।
उनकी व्याख्या भी शाब्दिक नहीं भावार्थ के साथ होनी चाहिए।
डा• लोहिया ने उस समय की कांग्रेस पार्टी का एकाधिकार समाप्त करने और उसके कारण समाज में फैल रही बुराइयों को खत्म करने के लिए गैर-कांग्रेसवाद का आह्वान किया था और आज डा• लोहिया होते तो निश्चित तौर पर गैर-भाजपावाद का आह्वान करते क्योंकि स्वदेशी का अलाप करने वाली भाजपा का भी सत्ता में आते ही कांग्रेसीकरण हो गया है।
आज यह सौभाग्य की बात है कि डा• लोहिया के प्रतिरूप प्रख्यात समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक- रघु ठाकुर पूरी दृढ़ता से सत्ता को ठोकर मारते हुए उनके सिद्धांतों पर आगे बढ़ते जा रहे हैं और वर्तमान समाज में व्याप्त अंधविश्वासों, कुरीतियों, अशिक्षा, गरीबी, दवित व असहायों के असह्य शोषण, राजनैतिक व मानवीय मूल्यों में हो रहे निरंतर ह्रास जैसी ज्वलंत समस्याओं के सकारात्मक समाधान को लेकर आगे बढ़ते जा रहे हैं जो उनके बहुमूल्य सोच को भी सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान करती है। हम सभी को उनके मार्गदर्शन में कुछ करने और सीखने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है जिससे हम सब स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं। उन्ही से हम खासकर मैं डाक्टर लोहिया को पढ़ पा रहा हूँ समझने का प्रयास कर पा रहा हूँ।
डाक्टर लोहिया की 51वीं पुण्य तिथि पर उन्हें स्मरण करने का सबसे बड़ा उद्देश्य यह होना चाहिए कि उनके चिंतन, साहस, कल्पनाशीलता और रणकौशल को आज के संदर्भ में विख्यात समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक- रघु ठाकुर के नेतृत्व में लागू किया जाए।
डा• राम मनोहर लोहिया के संपूर्ण राजनैतिक जीवन का संदेश है कि, "व्यक्ति और समाज की स्वतंत्रता और तरक्की के लिए विवेकपूर्ण संघर्ष और रचना"।
उन्होंने 1963 के उपचुनाव में लोकसभा पहुंच कर जब धूम मचा दी थी तो उनके साथ संख्या बल नहीं थी।
उनका साथ देने के लिए पार्टी के कुल दो और सांसद थे, किशन पटनायक और मनीराम बागड़ी, लेकिन जिसके पास नैतिक बल होता है उसे संख्या बल की चिंता नहीं रहती है।
डा• लोहिया ने तीन आने बनाम पंद्रह आने की बहस के माध्यम से पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे शक्तिशाली और विद्वान प्रधानमंत्री को निरुत्तर कर दिया था और उनकी बात का जवाब देने के लिए योजना आयोग के उपाध्यक्ष महालनोबिस समेत कई अर्थशास्त्रियों को लगना पड़ा था।
डा• लोहिया अपने इस दावे को वापस लेने को तैयार नहीं थे कि किस तरह इस देश का आम आदमी आमदनी तीन आने रोज पर गुजर करता है, जबकि प्रधानमंत्री के कुत्ते पर तीन आने रोज खर्च होता है और प्रधानमंत्री पर रोजाना पच्चीस हजार रुपए खर्च होता है।
सरकार दावा कर रही थी कि आम आदमी का खर्च तीन आने नहीं पंद्रह आने है।
डा• लोहिया का कहना था कि अगर सरकार मेरे आंकड़ों को गलत साबित कर दे तो मैं सदन छोड़कर चला जाऊंगा।
इस दौरान पंडित नेहरू से उनकी काफी नोंकझोंक हुई और पंडित नेहरू ने कहा कि डॉ. लोहिया का दिमाग सड़ गया है। इस पर उन्होंने उनसे माफी मांगने की अपील की।
यहाँ प्रश्न कांग्रेस या पंडित जवाहर लाल नेहरू को चुनौती देने का नहीं, बल्कि प्रश्न व्यवस्था को चुनौती देने का है और डाक्टर लोहिया में उसका अदम्य साहस था। ऐसा इसलिए भी था कि वे साधारण व्यक्ति की तरह रहते थे और उनकी कोई निजी संपत्ति थी ही नहीं थी।
एक बार जब डा• लोहिया से किसी ने यह सवाल किया कि उनके भीतर जवाहर लाल नेहरू के प्रति ऐसा रोष क्यों है तो उनका कहना था कि उनका उनसे निजी कोई राग द्वेष नहीं है। वे उनकी उतनी ही इज्जत अभी भी करते हैं जितनी पहले करते थे, परन्तु यह सारा विरोध वे सिद्धांत के लिए कर रहे हैं और देश में मरे हुए विपक्ष को खड़ा करने के लिए कर रहे हैं।
वे जानते थे कि नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस एक चट्टान की तरह है अतैव उससे टकराना ही होगा तभी उसमें दरार पड़ेगी।
डा• लोहिया का यह अदम्य साहस उनके पूरे जीवन मे दिखाई पड़ता है। चाहे जर्मनी में पढ़ाई के दौरान लीग आफ नेशन्स में भारत के प्रतिनिधि बनकर बीकानेर रियासत के राजा गंगा सिंह के भाषण के दौरान विरोध प्रदर्शन का मामला हो या भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भूमिगत जीवन और लाहौर किले की जेल में कठिन यातना सहने का सवाल हो या गोवा मुक्ति के लिए वहां की जेल में कष्ट सहने का सवाल हो, लोहिया की निर्भीकता किसी भी निराश हताश कौम में बिजली की तरह हिम्मत पैदा करने की क्षमता रखती थी।
उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में न सिर्फ नेपाल में जय प्रकाश नारायण के साथ सशस्त्र शिविरों का आयोजन किया।
डा• लोहिया ने बंबई में भूमिगत रेडियो का संचालन किया और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सभी नेताओं की गिरफ्तारी हो जाने के बाद कांग्रेस की तरफ से वे जनता को निर्देश देते थे कि कैसे आंदोलन का संचालन किया जाए और क्या कार्यक्रम लिए जाएं।
गिरफ्तारी के बाद उन्हें लाहौर किले की जेल में उसी कोठरी में रखा गया जिसमें सरदार भगत सिंह को रखा गया था। उसी किले में बंद जयप्रकाश नारायण को भीषण यातना दी जा रही थी तो दूसरी तरफ डाक्टर लोहिया को।
उन्हें बर्फ की सिल्लियों पर नंगा करके लिटाया जाता था और कई दिन रात जगाकर रखा जाता था। इससे उनकी आंखें खराब हो गईं और दांत वगैरह भी क्षतिग्रस्त हो गये।
डाक्टर लोहिया बताते हैं कि उन्होंने मृत्यु के समान इस यातना को योग और आत्मबल के सहारे सह गये।
यहाँ एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि डा• लोहिया, महात्मा गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने के बावजूद भगत सिंह के प्रति असाधारण सम्मान रखते थे।
संयोग से जिस 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी हुई उसी दिन डा• लोहिया का जन्मदिन पड़ता था।
इसी कारण डाक्टर लोहिया अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे।
लेकिन लाहौर जेल से छूटने के बाद वे खामोश नहीं बैठे।
वे गोवा मुक्ति के संग्राम में लग गए और आश्चर्य की बात यह है कि गोवा मुक्ति के संग्राम में उनके साथ न तो नेहरू थे और न ही पटेल। सिर्फ गांधी जी उनके साथ थे। उन्होंने गोवा के पुर्तगाली शासन का अत्याचार झेला लेकिन जनता को मुक्ति आंदोलन के लिए खड़ा कर दिया।
समाज को बदलने और समता व समृद्धि पर आधारित समाज निर्मित करने के लिए डा• लोहिया निरंतर संघर्षशील रहे और अगर गुलाम भारत में अंग्रेजों ने उन्हें एक दर्जन बार गिरफ्तार किया तो आजाद भारत की सरकार ने उन्हें उससे भी ज्यादा बार।.
अन्याय चाहे जर्मनी में हो, अमेरिका में हो या नेपाल में उनके रक्त में उसे सहने की फितरत नहीं थी।
वे पूरे साहस के साथ उसका प्रतिकार करते थे फिर कीमत चाहे जो चुकानी पड़े।
वे कीमत की परवाह नहीं करते थे और अकेले ही बड़ी से बड़ी ताकतों से टकरा जाते थे।
उनका संघर्ष सिर्फ टकराने के लिए नहीं बल्कि नई रचना करने और उनका व्याख्यान नया विमर्श खड़ा करने के लिए होता था।
इसीलिए उन्होंने अपने साथियों को राजनीति के लिए जेल, फावड़ा और वोट जैसे प्रतीक दिए थे।
इसमें जेल संघर्ष का प्रतीक थी तो फावड़ा रचना और वोट लोकतांत्रिक तरीके से व्यवस्था परिवर्तन का।
डाक्टर लोहिया किसानों और मजदूरों से तो प्रेम करते ही थे लेकिन युवाओं से उनको विशेष अनुराग था।
उन्होंने 1960 के दशक के आरंभ (संभवतः 1964) में समाजवादी युवजन सभा के नेता ब्रजभूषण तिवारी को एक पत्र लिखा था जो देश के युवाओं के नाम संबोधित था।
इस पत्र में उन्होंने ‘परमार्थिक अनुशासनहीनता’ शब्द का प्रयोग किया था और इस सिद्धांत के माध्यम से वे युवाओं का आह्वान करना चाहते थे कि जहां भी जरूरत पड़े वे सरकार के कानूनों को मानने से इनकार कर दें।
अन्यायपूर्ण कानूनों और सरकारी आदेशों का यही प्रतिकार गांधी के चंपारण सत्याग्रह में दिखाई पड़ता है तो जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के आह्वान में।
डा• लोहिया स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि वे न तो मार्क्सवादी हैं और न ही मार्क्सविरोधी। उन्हें मार्क्स से प्रेरणा पाने लायक बहुत सारी बातें लगती हैं और उनसे मतभेद भी हैं।
इसी तरह वे गांधी के समर्थक होते हुए भी पूरी तरह से अपने को गांधीवादी नहीं कहते।
वे गांधी के सत्याग्रह के सिद्धांत से तो सहमत हैं और अहिंसा के पक्ष में हैं, लेकिन वे अनशन करने के पक्षधर नहीं हैं।
हालांकि महात्मा गांधी को वे समाजवादी नहीं मानते लेकिन उनके रास्ते को समाजवाद लाने के लिए अपनाने के हिमायती हैं।
‘धर्म और राजनीति का रिश्ता बिगड़ गया है।
धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म।
धर्म श्रेयस की उपलब्धि का प्रयत्न करता है और राजनीति बुराई से लड़ती है।
हम आज दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में हैं जिसमें बुराई से विरोध की लड़ाई में धर्म का कोई वास्ता नहीं रह गया है वह निर्जीव हो गया है, जबकि राजनीति अत्यधिक कलही हो गई और बेकार हो गई है।
इसीलिए वे धर्म और राजनीति को अलग अलग रखने के हिमायती थे।
लेकिन उनकी इस बात को न समझने वाले कह देते हैं कि उनकी सांस्कृतिक नीति जनसंघ के नजदीक थी।
डाक्टर लोहिया, राम, कृष्ण और शिव की जिस तरह से व्याख्या करते हैं, संभव है वह बात जनसंघ को अनुकूल लगे।
लेकिन डा• लोहिया द्रौपदी बनाम सावित्री की जिस तरह से व्याख्या करते हैं वह बात जनसंघ और कट्टर हिंदुओं को कतई अच्छी नहीं लगेगी।
वे स्त्री स्वाधीनता के अनन्य उपासक थे और इसीलिए रामचरित मानस की वह पंक्ति उन्हें बहुत प्रिय थी जिसमें कहा गया था कि ‘कत विधि सृजी नारि जग माहीं, पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं"।
इसीलिए उनके लिए पांच पतियों की पत्नी और प्रश्नाकुल और बड़े से बड़े से शास्त्रार्थ करने वाली द्रौपदी आदर्श नारी थी न कि पति के हर आदेश का पालन करने वाली सावित्री या सीता।
उनकी नजर में भारत गुलाम ही इसीलिए हुआ क्योंकि यहां का समाज जाति और यौनि के कटघरे में फंसा हुआ था।
यही कारण है कि डाक्टर लोहिया जाति व्यवस्था को तोड़ने और स्त्रियों को आजाद करने की बात करते हैं।
उनके लिए वर्ण, स्त्री, संपत्ति और सहनशीलता के सवालों को हल किए बिना इस देश का कल्याण नहीं है।
अपने हिंदू बनाम हिंदू वाले प्रसिद्ध व्याख्यान में वे कहते भी हैं कि यह लड़ाई पांच हजार साल से चल रही है और अभी तक खत्म नहीं हुई है।
वे देखते हैं कि दुनिया के अन्य देशों में खून खराबे के साथ यह लड़ाई खत्म हो गई लेकिन भारत में कई मत हो गए और पूरी तरह से कुछ भी खत्म नहीं हुआ।
लेकिन वे सबसे बड़ा खतरा कट्टरता को मानते हैं और कहते हैं कि अगर कट्टरता बढ़ेगी तो न सिर्फ यह स्त्रियों और शूद्रों और अछूतों और आदिवासियों के लिए खतरा पैदा करेगी बल्कि इससे अल्पसंख्यकों के साथ भी रिश्ते बिगड़ेंगे।
यही वजह है कि वे भारत की जाति व्यवस्था को हर कीमत पर तोड़ने के हिमायती थे।
वे इसके लिए डा• आंबेडकर से हाथ मिला रहे थे लेकिन दुर्भाग्य से बाबा साहेब का 1956 में निधन हो गया।
वे दक्षिण में रामास्वामी नाइकर से से उस समय मिलने गए जब आंदोलन के दौरान वे गिरफ्तार थे और अस्पताल में थे।
भारत की जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए उन्होंने ब्राह्मण बनिया राजनीति की कड़ी आलोचना की तो उन शूद्र जातियों की भी आलोचना की जो आगे बढ़ने के बाद ऊंची जातियों की ही नकल करने लगती हैं।
शूद्रों की राजनीति को बढ़ावा देने पर डाक्टर लोहिया की आलोचना करने वालों को यह समझना चाहिए कि उन्होंने उन तमाम कमियों की ओर बहुत पहले सचेत किया था जो शूद्र जातियों के शासन में आ सकती हैं।
आज के दौर में मंडल राजनीति से निकले जातिवादी और सांप्रदायिक राजनेताओं में उनकी चेतावनी की छाया देखी जा सकती है।
डाक्टर लोहिया के संदर्भ में एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि उन्होंने जाति तोड़ो के लिए न तो जलन की राजनीति का समर्थन किया था और न ही सत्ता पाने के लिए चापलूसी की राजनीति की।
वे डा• आंबेडकर की राजनीति को जलन की राजनीति बताते हैं तो जगजीवन राम की राजनीति को सत्ता के लिए झुकने वाली राजनीति।
लेकिन जाति विमर्श में डाक्टर लोहिया यह मानने को तैयार नहीं हैं कि अंग्रेजों की गुलामी अच्छी थी और इससे जातियां कमजोर हुई हैं।
वे डाक्टर आंबेडकर और फुले से अलग अंग्रेजों की गुलामी को भारत के सांप्रदायिक और जातिगत विभाजन के लिए पूरा दोष देते हैं और उससे लड़ने के लिए आह्वान करते हैं।
एक तरह से डाक्टर लोहिया, महात्मा गाँधी और डाक्टर आंबेडकर के बीच सेतु हैं।
वे स्वाधीनता संग्राम को भी उतना ही जरूरी मानते हैं जितना जाति व्यवस्था के विरुद्ध संग्राम को।
वे देशभक्त तो हैं ही सामाजिक न्याय के भी जबरदस्त समर्थक हैं।
यहाँ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि डा• लोहिया जातियों को तोड़ने का आह्वान करने के बाद वर्ग संघर्ष की बात भी करते हैं और चाहते हैं कि आखिर में वर्ग विहीन समाज का निर्माण हो।
वे यह भी चाहते हैं कि मनुष्य इतिहास के उत्थान और पतन के चक्र से मुक्त हो और एक विश्व सरकार का गठन करके दुनिया में जाति, लिंग, राष्ट्र की गैर बराबरी मिटाकर लोकतंत्र कायम किया जाए।
आज जरूरत डा• लोहिया के रस्मी स्मरण की नहीं उनके विचारों की रोशनी में उनके एकमात्र सच्चे अनुयायी- प्रख्यात समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक- रघु ठाकुर के मार्गदर्शन में नई लोकतांत्रिक राजनीति को गढ़ने की है, इसे मजबूती से आगे बढ़ाने की है और यही इस युग पुरुष डा• लोहिया के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
आज डाक्टर लोहिया की 51वीं पुण्यतिथि पर इस विशेष प्रस्तुति के माध्यम से स्वतंत्र भारत न्यूज डाट काम श्रद्धा सुमन अर्पित करती है।
डा• लोोहिया- अमर रहें।
(साभार: मल्टी मीडिया & सम्पादित)
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