
कार्पोरेट लोकतंत्र की ओर धकेला जा रहा देश. _ रघु ठाकुर
नयी दिल्ली, 16 मई: लोकतंत्र और वर्तमान राजनीति पर गहन चिंतन और विचार करने के बाद इस देश के महान समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक द्धारा प्रस्तुत लेख आज हमें प्राप्त हुआ है, जिसे उन्ही के शब्दों में प्रकाशित किया जा रहा है____
"गुजरात, हिमाचल विधानसभाओं के तथा पंजाब, राजस्थान के नगरी इकाई के चुनाव परिणाम आ चुके हैं। परंतु देश के मीडिया का ध्यान केवल गुजरात चुनाव पर केन्द्रित था वह हिमाचल की विधानसभा से लेकर बकाया सारे चुनाव परिणाम लगभग अचर्चित ही रहे हैं।
पंजाब के नगरी इकाई के चुनाव में कांग्रेस पार्टी अधिकांश सीटों पर जीती और शिरोमणी अकाली दल बुरी तरह हारा है। याने पंजाब में अभी कैप्टन अमरिंदर सिंह के प्रभाव में कमी नहीं आई है।
परंतु राजस्थान में वसुंधरा राजे सरकार के खिलाफ नाराजगी बढ़ी है। यद्यपि हिमाचल प्रदेश में भाजपा को अच्छा खासा बहुमत मिला है परंतु उनके मुख्यमंत्री पद के लिये घोषित प्रत्याशी को मतदाताओं ने नकार दिया है।
श्री प्रेमकुमार धूमल के मुख्यमंत्री पद की दावेदारी की घोषणा स्वतः भाजपा अध्यक्ष श्री अमित शाह ने की थी। जनमत के इस फैसले ने श्री अमित शाह की लोकप्रियता पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया है और श्री अमित शाह के गुटीय कार्य प्रणाली का भी खुलासा किया है।
हिमाचल में बहुमत मिलने के वाबजूद भाजपा को मुख्यमंत्री का चयन कठिन कार्य ही साबित हुआ।
वैसे तो गुजरात का चुनाव भले ही श्री मोदी के नाम पर लड़ा गया हो परंतु चुनाव का सारा प्रबंध श्री अमित शाह के पास ही था। चूंकि अमित शाह स्वतः गुजरात से हैं और भाजपा के अध्यक्ष कम दबंग तानाशाह ज्यादा हैं तथा फिसले कुछ समय से टिकिट वितरण से लेकर सरकार चलाने की रणनीति बनाने संबंधी सभी निर्णय अमित शाह ही कर रहे हैं।
मुख्यमंत्री श्री विजय रूपाणी की स्थिति कुछ-कुछ भरत जैसी थी जो अमित शाह के और नरेन्द्र मोदी की खड़ाऊ रखकर राज कर रहे थे।
चूंकि गुजरात चुनाव श्री नरेन्द्र मोदी बनाम श्री राहुल गांधी बना दिया गया था, अतः अमित शाह की अपनी प्रबंधन और चुनावी कौशल की अक्षमता सिद्ध होने के बाद भी वे घोषित असफलता से बच गये।
गुजरात चुनाव में दरअसल कोई अहम मुद्दा नहीं रहा केवल गालीदान सभाएं और बयान ही चलते रहे।
विकास का अर्थ क्या है? गुजरात का विकास माॅडल क्या है? और उस विकास की मंशा क्या है, इस बारे में भी कोई ठोस बहस इस चुनाव में नहीं हुई।
कांग्रेस ने कह दिया कि, विकास पागल हो गया, तो मोदी ने कह दिया कि मै हूं विकास।
निरर्थक जुमले बाजी, नीच और ऊंच के गैर जरूरी बयान किसने कितने मंदिर दर्शन किये? कौन हिन्दू है, कौन जनेउ पहनता है जैसे सवालों पर बहस चलती रही।
परंतु गुजरात के बंद कपड़ा मिलों, गुजरात के ग्रामीण अंचलों में बढ़ रहे सामाजिक तनाव, बढ़ रही ग्रामीण बेरोजगारी को दूर करने के उपाय जैसे मुद्दे चर्चा से बाहर रहे।
कांग्रेस पार्टी ने तीन जातीय नेता तैयार कर उनके माध्यम से जातीय समर्थन से चुनाव लड़ा। हार्दिक पटेल, पटेलों की आरक्षण की मांग से उभरे पटेल नेता, श्री जिग्नेश मेवाणी दलितों पर हुये गौरक्षकों के हमलों से उभरे दलित नेता और अल्पेश ठाकोर अन्य पिछड़ा वर्ग के नेता के रूप में सामने आये।
दरअसल पटेल समाज की आरक्षण की मांग के पीछे पटेलों की सत्ता राजनीति है। राजस्थान में गुर्जर समाज के लिये अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने के लिये हुये आंदोलन जिसमें पचास से अधिक लोग पुलिस की गोली से मारे गये और तत्कालीन वसुंधरा सरकार चुनाव हारी थी।
फिर कांग्रेस के अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने। अभी उनके पांच वर्ष के शासनकाल के बाद पुनः भाजपा की वसुंधरा सरकार वापिस आई परंतु गुर्जर आदिवासी नहीं बन सके।
संवैधानिक तौर पर यह संभव नहीं था परंतु सत्ता राजनीति, संभव और असंभव या संवैधानिक और असंवैधानिक जैसे पहलूओं पर विचार नहीं करती बल्कि फौरी तौर पर जनभावनाओं और समूह भावनाओं को उभारकर सत्ता पाने का ही खेल खेलती है।
27 साल से राम मंदिर नहीं बना परंतु भाजपा का सत्तामंदिर बन गया और मामला अभी भी अदालत के फैसले पर निर्भर है। लगभग 12 साल होने को आये गुर्जर अभी पिछड़ा वर्ग में ही है।
परंतु सत्ता समूह का सत्ता रसास्वादन हो गया। जाति नेतृत्व उभारने की कांग्रेस की रणनीति आगे कितनी कारगर होगी, अभी कहना कठिन है।
उत्तर प्रदेश और बिहार के यादव नेता कुर्मी, दलित नेता और लोधी नेता जो सूबाई सत्ताओं के शीर्ष पर रहे और हैं भी। वे अभी तक अपने सूबे से बाहर अपनी जातियों को अपने अनुकूल मतदान कराने में सफल नहीं हो सके।
मायावती गुजरात के दलितों, अखिलेश यादव गुजरात के यादवों का वोट अपने पक्ष में नहीं डला सके।
जातीय अस्मिता के नाम पर चुने गये नेता भी कितनी दूर तक चल पायेगें यह यक्ष प्रश्न है।
परंतु कुछ समय तक अपने बड़बोलेपन और कट्टरपंथी बयानों से चर्चित जरूर रहेगें।
कांग्रेस पार्टी गुजरात में पिछले 22 सालों से दो नंबर की पार्टी है और भाजपा को बदलने वाले मतदाताओं के लिये वही विचारहीन नकारात्मक विकल्प के रूप में दिखाई देती है।
यदि कांग्रेस इन जातीय नेताओं को महत्व देकर तैयार नहीं करती तब भी इन जातीय समूहों के भाजपा विरोध का लाभ कांग्रेस को ही मिलता।
पटेलों व पिछड़ों के बीच भी आरक्षण के सवाल पर वैसा ही टकराव है जैसा हरियाणा में जाट और अतिपिछड़ा वर्ग के बीच। तथा यह जातीय नेतृत्व अपने-अपने समूहों को कितना नजदीक ला पायेगा यह कहना कठिन है।
हालांकि कांग्रेस के नव निर्वाचित अध्यक्ष राहुल गांधी ने गुजरात में अपने गठबंधन को व्यापकता देने के लिये जिस उदारता का परिचय दिया है वह महत्वपूर्ण है। उन्होंने जिग्नेश मेवाण़ी को अपनी उस परंपरागत सीट को छोड़ा जिसपर पिछले तीन बार से कांग्रेस का विधायक चुना जा रहा था और अपने निर्वाचित विधायक को हटाकर उन्होंने यह बढ़ा निर्णय किया था।
श्री शरद यादव जिनके लिये चुनाव आयोग ने जदयू नहीं माना इसके बावजूद उनके गुट के लिये कांग्रेस ने तीन सीटें छोड़ी और डूबते को सहारा दिया।
चूंकि कांग्रेस विरोध में है अतः इन समूहों के बीच और कांग्रेस के बीच कोई स्वार्थी टकराव होने की उम्मीद फिलहाल नहीं है। सत्ता स्वार्थसंघर्ष पैदा करता है और सत्ताआकांक्षा एकता। अतः यह तय है कि आगामी पांच वर्षों में भाजपा सरकार को एक संगठित प्रतिपक्ष का सामना करना होगा।
शहरी मतदाताओं ने न केवल अकेले कांग्रेस को बल्कि आम राजनैतिक विश्लेषकों और मीडिया को एक बार फिर धता बताया है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव पूर्व समूचे देश की मीडिया में नोटबंदी मुख्य मुद्दा था। चुनाव प्रचार में शहरों में लगभग हर शहरी नोटबंदी को लेकर श्री मोदी को कोसता दिखता था परंतु चुनाव में नोटबंदी बेअसर रही तथा भारी बहुमत से भाजपा सरकार बन गई।
अभी गुजरात में जिस सूरत में लाखों की संख्या में व्यापारियों की रैली हुई। जिस अहमदाबाद में पटेलों का भारी आंदोलन हुआ। उन इलाकों के मतदाताओं ने भाजपा को व्यापक समर्थन दिया। जिन इलाकों से कांग्रेस जीती है वहां व्यापारी आंदोलन या पटेल आंदोलन नगण्य था।
उत्तर प्रदेश के समान गुजरात में भी सामाजिक गणित या जातीय गणित निर्णायक रहे हैं।
भाजपा ने 150 सीट जीतने का दावा किया था और केवल आज तक के सर्वेक्षण को छोड़कर बकाया सभी सर्वेक्षण ने 104 से लेकर 150 और आगे तक के बीच जीतना बताया था।
कुछ सर्वेक्षणों ने कांग्रेस को भी बहुमत मिलना बताया था हालांकि आज तक ने कांग्रेस के बारे में जो अनुमान दिया था लगभग वही ठीक साबित हुआ है।
चुनाव के बाद अब बहस इस पर हो रही है कि मोदी या भाजपा ने 150 सीट का दावा किया था जबकि उन्हें केवल 99 सीट मिली। भाजपा समर्थक तबका या मीडिया ऐसी ही बात कांग्रेस के बारे में कह रहा है कि कांग्रेस ने सरकार बनाने का दावा किया था परंतु भले ही कुछ सीटें बढ़ गई हों पर वह चुनाव हार गई।
कांग्रेस तो भाजपा को हारा हुआ और स्वतः को जीता हुआ बता रही है।
स्वाभाविक ही है कि जब पार्टियां चुनाव मैदान में जाती है तो भारी बहुमत या सरकार बनाने का दावा करतीं हैं और इसलिये भाजपा और कांग्रेस दोनों के झूठे दावे का अपराध क्षम्य है। क्योंकि कोई भी पार्टी भले ही वह कितनी छोटी क्यों न हो वह यह नहीं कहेगी कि वह हार रही है।
जनता भी अब किसी सिद्धांत या विचार के लिये नहीं बल्कि कुर्सी के लिये और सत्ता के लिये वोट करती है।
यह आश्चर्यकजनक तथ्य है कि भाजपा का 1.8 प्रतिशत वोट बढ़ा और कांग्रेस का 2.4 प्रतिशत वोट बढ़ा। यानि कि जनता ने कांग्रेस की पीठ ठोकी और भाजपा को सरकार बनाने का अवसर दिया है।
कांग्रेस को शाबासी और भाजपा को सत्ता यही जनमत का निष्कर्ष है। इसलिये मै कहता हूं कि गुजरात में कोई दल नहीं हारा अगर कोई हारा है तो वह जनता है जिसे जुमलों, कटु शब्दों, निरर्थक आरोप प्रत्यारोपों को चुनाव में सुनने का और उसका रस लेने का आनंद तो मिला है परंतु बदलाव व कार्यक्रमों के नाम पर कुछ भी नहीं मिला।
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि गुजरात में भाजपा-कांग्रेस समूह के अलावा किसी तीसरे पक्ष को मत लगभग नहीं मिले हैं।
कुल मतों को जोड़ा जाये तो भाजपा-कांग्रेस के बाद तीसरे नंबर पर सर्वाधिक वोट नोटा के हैं जिसे लगभग पांच लाख वोट मिले हैं।
यानि गुजरात में कोई तीसरा पक्ष उभरा है तो वह कोई राजनैतिक दल नहीं बल्कि दलों को नकारने वाला नोटा है।
नोटा का प्रयोग नकारात्मक पक्ष तो बता सकता है परंतु फिलहाल बदलाव के लिये कारगर उपाय नहीं है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया है कि अगर प्रत्याशियों के मतों से ज्यादा मत नोटा के होगें तब भी चुनाव रद्द नहीं होगें।
यही बात चुनाव आयोग ने भी कही है कि नोटा से कम मत पाने वाले प्रत्याशी जिसे अन्य प्रत्याशियों से ज्यादा वोट मिले हो जीता हुआ माना जायेगा।
यह वर्तमान कानून के अनुसार सही है।
परंतु लोकतंत्र का तकाजा है कि सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग को सरकार से जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन कर बदलाव के लिये कहना चाहिये ताकि यह कानून बने कि अगर नोटा के वोट सबसे ज्यादा है तो वहां पुनः चुनाव हों।
सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के कथन के बाद ऐसा लग रहा है कि “न्याय और चुनाव की ये संवैधानिक संस्थायें देश को दो दलीय प्रणाली की ओर जाने के लिये लाचार कर रही हैं। देश में विधि स्थापित दो दलीय प्रणाली भयावह होगी, जहां दो कार्पोरेट समूह वैश्वीकरण के समर्थक समूह परिवारों में शासन प्रणाली बंट जायेगी।“
वह लोकतंत्र नहीं होगा बल्कि कार्पोरेट लोकतंत्र होगा जिसमें अल्पमत की आवाज घुटकर मर जायेगी। लोकतंत्र का मतलब अल्पमत की आवाज को जिंदा रखना होता है न कि उसे समाप्त करना। भले ही वह कानून और न्याय के बल प्रयोग से किया गया हो। दो दलीय प्रणाली की ओर अग्रसर इस लोकतंत्र से देश के वास्तविक लोकतंत्र प्रेमियों को सावधान हो जाना चाहिये।"
(रघु ठाकुर)
लोहिया सदन भोपाल.
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