विशेष: कोरोना पर बहस खुल कर हो: रघु ठाकुर
भोपाल: कोरोना वायरस महामारी को लेकर आज ख्यातिनाम गांधीवादी - महान समाजवादी चिंतक व विचारक तथा शहीद ए आजम भगत सिंह एवं डॉ लोहिया के सैद्धांतिक लक्ष्य, जो एक ऐसे समतामूलक समाज की स्थापना, जिसमें कोई व्यक्ति किसी का शोषण न कर सके और किसी प्रकार का अप्राकृतिक अथवा अमानवीय विभेद न हो, को पूर्ण करने हेतु समर्पित लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के संस्थापक व राष्ट्रीय संरक्षक- रघु ठाकुर ने कहा कि, "कोरोना पर बहस खुल कर हो"।
रघु ठाकुर ने कहा कि, "इन दिनों देश में दो समूह अत्यधिक प्रताड़ित और लांक्षित हैं- एक पुलिस और दूसरे हम जैसे समाजवादी। अपवाद छोडें।"
रघु ठाकुर ने कहा कि, "यदि पुलिस सख्ती करें तो गाली खाये और ढील दे तो गाली खाये। इसी प्रकार की स्थिति हम समाजवादियों की भी है कि, जहाॅं कुछ शक्तिशाली हैं, वह सिद्वांतहीनता के नाम पर गालियां खाते हैं, जो सही भी है। जहाॅं हम जैसे जनाधार से कमजोर समाजवादी है, वे इसलिये गाली खाते है कि, उन्होंने राजनैतिक पाप नही किये। ऐसे दौर में विचारों की नि-ुनवजयपक्षता, विचारों को जिन्दा रखना, सत्य पर कायम रहना और नये उभरते शाब्दिक और वैचारिक आंतकवाद का मुकाबला करना एक कठिन रास्ता है, जिस पर हम लोग चल रहे है।
छापा व, इलेक्ट्राॅंनिक मीडिया में भी कभी- कभी शब्दों का विचलन दिखता है। परन्तु फेसबुक तो एक जरूरी व गैर जरूरी निर्बाध गालियों का मंच बन गया है। जहाॅं पर तर्क के बजाय कुतर्क के लिए अपार मैदान, समय और असंख्य फौज डटी रहती है। कुछ फौजें तो देश के राजनैतिक गिरोहों की वैतनिक या संचालित है। कुछ जाति और मजहबी फौजे है। जिनका काम अपने पक्ष का समर्थन करना और दूसरे पक्ष को गाली देना होता है। इन गिरोहों के मुखियों की महान सेवा के लिए ये कितने पुरूस्कार पाते हैं, यह तो मैं नही जानता परन्तु ताकतवर गिरोह के मुखिया के विश्वस्त चाटुकार जरूर बन जाते है। यह संकट दिन प्रतिदिन व-सदैव रहा है और सोशल मीडिया संवाद का माध्यम, समन्वय पैदा करने के बजाय कटुता और गाली गलौज का मंच बनता जा रहा है। अगर आप कुतर्क और गाली वालों का उत्तर न दे तो वे ”स्वंयभू विजेता“ घोषित हो जाते है और दूसरे विचार को पराजित घोषित कर देते हैं। और अगर आप उनकी मूर्खतापूर्ण बातों का तार्किक उत्तर देना सुरु करें तो एक कौआ गिरोह सक्रिय हो जायेगा। जिसका उत्तर लिखते, गाली खाते आपका अमूल्य समय बर्बाद होगा।"
रघु ठाकुर ने इसी क्रम में कहा कि, "चूंकि मैं चाहता हॅूं कि, "फेसबुक खुले विचार, संवाद का माध्यम बने, इसलिए मैं इन गिरोहों के फौजियों से भी संवाद करता हॅूं। यह जानते हुए भी कि यह लगभग एक निरर्थक कसरत है। परन्तु लोकतंत्र में कभी न कभी आपको इन लोगों से भी संवाद करना ही होगा। देश को मानसिक रूप से विभाजन से बचाना है तो भी यह जरूरी है। परन्तु इनमें से शायद ही कुछ लोग इस मर्म को समझते हों कि, सोशल मीडिया किसी की जीत - हार का नही, बल्कि विचार और विन्रमता की पाठशाला है।"
रघु ठाकुर ने बताया कि, "हाल ही में एक दिलचस्प संवाद से मेरी मुठभेड हुई। 19 मार्च शाम को प्रधानमंत्री जी ने राष्ट्र को संबोधित किया, जिसमें उन्होंने 22 मार्च के लिए जनता कर्फू का आव्हान किया। मैं स्पष्ट कर दूॅं कि, कोरोना वायरस के फैलाव के खतरों से मैं बखूबी वाखिफ हॅू। मैं भी स्वस्थ रहकर जीना चाहता हूँ। परन्तु मेरी प्रधानमंत्री जी के सन्देश से निम्न मत भिन्नतायें थी:
1) जनता कर्फू एक आन्दोलनात्मक शब्द है। जिसका प्रयोग गुजरात में 1973 के छात्र आन्दोलन व जय प्रकाश के 1974 के आन्दोलन में, जिसमें समाजवादी संगठन, कांग्रेस, संघ और जनसंघ सभी शामिल थे, उनके द्वारा किया गया था। यह एक प्रकार से बंद का ही जनता द्वारा बाध्यकारी रूप है। जिसमें एक जन समूह अपने से भिन्न विचार समूह को रोकता है। अच्छा होता कि, प्रधानमंत्री जी सीधी अपील करते कि दुनिया के वैज्ञानिकों की रपट के आधार पर रविवार 22 तारीख को घरों में ही रहें ताकि वायरस का फैलाव न हो और जन जीवन सुरक्षित रहे, इसके लिए सरकार कर्फू लगा रही है। परन्तु जनता-कर्फू शब्द का इस्तेमाल कर उन्होने और बाद में उनकी मातृ संस्थाओं के लोगों ने एक आक्रामक रूख अख्तयार कर लिया।"
साथ ही सत्ता शीर्ष के इशारों पर सूबे की सरकारों ने उन तरीकों का प्रयोग सुरु कर दिया जो बाघ्यकारी होते है। सारे आयोजनों की अनुमति निरस्त कर दी गयी । रात 12 बजे आजमगढ़ के जिला प्रशासन ने पत्रकारों को बुलाकर उनके राष्ट्रिय कार्यक्रम- “मीडिया समग्र मंथन” की अनुमति निरस्त कर दी। रेलवे ने बहुत सी गाड़ियां वगैर पूर्व घोषणा के रदृ कर दी और जनता कर्फू को अघोषित सरकारी बंद में बदल दिया गया। 21 मार्च की शाम से ही जगह-जगह पुलिस ने दुकाने बंद रखने व २२ मार्च के बंद का अलिखित आदेश जैसे देना सुरु कर दिया।
2) 22 मार्च के जनता कर्फू बन्दी को लेकर लाखों यात्रियों को अपनी आगामी यात्राओं के टिकट कैंसिल करवानी पड़ी और इससे रेलवे को घर बैठे अरबों रूपया मिल गया। जबकि प्रधानमंत्री जी को यह घोषणा करनी थी कि उनकी घोषणा के तत्काल बाद से याने 20 मार्च से टिकिट कैन्सिल कराने वालों को पूरा पैसा दिया जावेगा।
3) कोरोना के बारे में दुनिया में इसे फैलने की खबरें लगभग मीडिया की सुर्खियों में थी तथा भारत में भी जनवरी से ही यह खबरें मिलने लगी थी। परन्तु भारत सरकार ने इन खबरों का समय पर संज्ञान नहीं लिया वरना यह संभव था कि, होली के पहले ही सरकार अपने इस जनता कर्फू का ऐलान कर सकती थी।
यह एक स्थापित तथ्य है कि कोरोना वायरस विदेशी वायरस है। परन्तु विदेशों में वायरस फैलने के बाद जब वहाॅं से देशवासियों ने आना शुरू किया। यानि देश में लगभग 1 लाख लोग जब तक आ चुके थे, तब तक भी सरकार ने कोरोना की जाॅंच व सावधानी के लिए कोई ठोस कदम नही उठाए। क्या यह पहले ही नही हो जाना चाहिए था? विदेशी विमानों से आने वालों की जाॅच कितनी लचर है इसके प्रमाण तो भोपाल जैसे शहरों में एवं सारे देश में मिल चुके है। जहाॅं ऐसे लोग जिन्होंने हवाई अड्डे की जाॅच में संक्रमित नही पाया गया, वहीं लोग बाद में संक्रमित पाये गये। मतलब साफ है कि हवाई अड्डों की जांच में भारी छिद्र है। जैसे दिल्ली में ही विदेशी विमान टर्मिनल 3 पर आते है और यात्रियों को विमान में एरोलिफ्ट लगाकर विमान तल के दरवाजे तक पहुंचाया जाता है। वहाॅ एक-दो डाक्टर जाॅंच के लिए होते हैं और सैकड़ों लोग एक साथ पहुंच कर प्रसाधन व सामान वापसी और जाॅंच का नंबर आने पर समय काटने के लिए हवाई अड्डे के भवन के अंदर विचरण करते रहते है। क्या सरकार को उस भवन के ही एक बडे हाल में उन्हें जाॅंच होने तक बैठाकर नही रखना चाहिए था ? विदेशी देशवासियों के आने के साथ कोरोना के आने की संभावना प्रधानमंत्री व अन्य सभी बेहतर जानते थे इसीलिए इन सभी ने मार्च के प्रथम सप्ताह से ही अपने सारे विदेशी दौरे रदृ कर दिये थे। जब यह बाते मैंने 20 मार्च को फेसबुक पर लिखी तो ”कांव-कांव“ समूह ने ऐसा हमला बोला कि जैसे मैं कोरोना का समर्थन कर रहा हूँ और प्रधानमंत्री का विरोध याने यह राष्ट्र का बिरोध है। कुछ लोगों ने तो झूठ लिख दिया कि रेलवे ने उनकी पैसा वापिसी की। मैंने जब अपने और अनेक लोगों के टिकट की फोटो डाली जिस पर पैसा काटा गया था तब वह चुप हो गये। रेलवे ने तो 21 मार्च को 4 हजार गाडियां स्वतः कैन्सिल की, जिनका पैसा पूर्व नियम के अनुसार वापिस मिलना ही था। परन्तु जिन्हें अपनी यात्रा को प्रधानमंत्री के आव्हान के कारण बदलना पड़ा, उसकी चर्चा छोड दी। मैंने दिल्ली के बाजार में बिक रहे 250/-ंरुपये से 850/- रूपये तक के मास्क और मंहगें सैनेटाईजर के बारे में लिखा तो काॅव-कॅाव समूह ने बजाय इसके कि वह इस तथ्य को सरकार तक पहुंचते और जनता को लुटने से बचाते, मुझे ही गालियां देना सुरु कर दिया। बहुत से लोगों ने मुझे “सोनिया गिरोह” का आदमी बताना सुरु किया व इन्हें इटली भेजा जाना चाहिए, कोरोना से मरो जैसी शुभकामनाऐं भी दी। कुछ ने तो मुझे मास्क के बजाय रूमाल बेचने की सलाह दी। कुछ ने राष्ट्र संकट के समय सत्य लिखने को मेरी राजनीति घोषित कर दिया और मुझे सरकार का समर्थन करने के लिए प्रेरित किया। कुछ शुभचिंतकों ने मुझे गालियों, बद्दुआवों और अलोकप्रियता से बचने की सलाह दी। मैने हॅंसकर सब गालियों और बद्दुआवों को पचा लिया और पुनः लिखा कि, मुददों पर चर्चा करो। क्या रेलवे से पैसा वापिसी की अपेक्षा, मास्क सैनेटाईजर के दामों को नियंत्रण की मांग, महामारी का समर्थन है? या राष्ट्रद्रोह है? कुछ मित्रों ने प्रधानमंत्री को ही राष्ट्र बता दिया। बरहाल लगभग 60 - ७० घंटे की चर्चा में गालियों और बद्दुआवों का वरदान अवशस्त है। चर्चा में भाग लेने वाले 25 - 30 प्रतिशत प्रबुद्व मित्रों ने मेरी बात का समर्थन भी किया और प्रमाण भी डाले। परन्तु गैंग तथ्य नही पहचानती, तर्क नही करती, वह तो केवल कांव- कांव करती। एक बात अवश्य पीड़ा दायक है कि फेसबुक के हजारों मित्रों में से अधिकाँश जन्म दिन, शादी-विवाह, बच्चों के फोटो आदि डालने में व्यस्त रहते हैं। इन मुद्दों पर बहस नही करते या बहस से बचते हैं।
रघु ठाकुर ने बताया कि, "एक राजनैतिक पदाधिकारी मित्र ने मुझसे कहा कि उनके चौदह हजार मित्र हैं, वह गैंग से बहस करने से डरने लगे है। उनने यह भी बताया कि, गाली और झूठे आरोपों के लिए बहुत सारे फेंक आईडी तैयार कराई गई है। चूंकि वह कम्प्यूटर विधा के जानकार हैं, अतः मेैं मानता हूॅं कि उनकी बात सही होगी। परन्तु जो भी चिंता है, वह इस बात को लेकर है कि हजारों पढ़े-लिखे लोग सच लिखने, बोलने से कतराते क्यों हैं ? क्या विरोधियों के हमलों के डर से या स्वार्थ में डूबेे रहने के कारण से?-"
रघु ठाकुर ने कहा कि, मुझे अलोकप्रिय होने का कोई भय नही है। मैं गाँधी - लोहिया का अनुयायी हूँ, जिन्होंने सदैव अलोकप्रिय होने का जोखिम उठाया था। 1946 में बापू को ऐसे हमलो का सामना करना पड़ा था। 1950 के दशक में भारत-चीन के बीच पंचशील समझौता हुआ था। सारा देश सरकार के गुण गा रहा था तब डा लोहिया मात्र 4 - 5 लोगों के साथ इंडिया गेट दिल्ली पर पंचशील समझौते का विरोध कर कहा था कि, चीन भारत को जाल में फांसकर हमला करेगा। 1962 में जब चीनी, हमला हुआ तब वही लोग (सरकार के साथ नाचने वाले) डा लोहिया का जय - जयकार करने लगे। कमजोर समाज का स्वभाव ही ऐसा होता है। इसलिए मैं न जेल से, न अलोकप्रियता से, न गालियों से और न हमलों से, किसी से भी भयभीत नही हॅू। परन्तु अपने प्रबुद्व और सभ्य समाज के मित्रों से जरूर कहना चाहता हॅू कि सत्य से बचना न बौद्विकता है, न राष्ट्रवाद। यह विशुद्ध कायरता है। अगर वह लोकतंत्र को कायम रखना चाहते है तो उन्हें इससे बचना होगा और सत्य तथा न्याय के साथ खडा होना होगा।"
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