
*शिक्षक दिवस विशेष*: किताबों से स्क्रीन तक: बदलते समय में गुरु का असली अर्थ
"ज्ञान के साथ संस्कार और संवेदनशीलता ही शिक्षक की सबसे बड़ी पहचान है"
डिजिटल युग में शिक्षा का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। किताब से लेकर स्क्रीन तक की यह यात्रा ज्ञान तो दे रही है, लेकिन संस्कार और मानवीय मूल्य पीछे छूटते जा रहे हैं। ऐसे समय में शिक्षक का महत्व और भी बढ़ जाता है। शिक्षक ही वह पुल हैं जो बच्चों को वर्तमान से जोड़कर सुरक्षित भविष्य तक पहुँचाते हैं।
मशीनें जानकारी दे सकती हैं, परंतु संवेदनशीलता और चरित्र निर्माण केवल गुरु ही कर सकता है।
इस शिक्षक दिवस पर संकल्प यही हो कि तकनीक की दौड़ में संस्कारों की नदियाँ कभी सूखने न पाएं।
-:डॉ. प्रियंका सौरभ:-
हिसार (हरियाणा): आज 'विशेष' में रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार - प्रियंका 'सौरभ' द्वारा *शिक्षक दिवस विशेष*: किताबों से स्क्रीन तक: बदलते समय में गुरु का असली अर्थ" शीर्षक से एक विशेष 'प्रस्तुति' प्रस्तुत है।
शिक्षक दिवस केवल एक औपचारिक अवसर नहीं है, बल्कि यह समाज और राष्ट्र की आत्मा को समझने का दिन है। जब भी हम गुरु या शिक्षक का नाम लेते हैं तो हमारे मन में एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है, जो केवल पढ़ाने वाला नहीं बल्कि जीवन को दिशा देने वाला होता है। भारतीय संस्कृति में शिक्षक को ‘आचार्य’ कहा गया है, जिसका अर्थ है आचरण से शिक्षा देने वाला। इसी दृष्टि से देखा जाए तो आज के दौर में शिक्षकों की जिम्मेदारी पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है, क्योंकि यह वह समय है जब तकनीक और स्क्रीन बच्चों की सोच और संवेदनाओं को प्रभावित कर रही है।
आज से कुछ दशक पहले शिक्षा का स्वरूप केवल पुस्तकों, कक्षा और संवाद तक सीमित था। विद्यार्थी शिक्षक की बातों को ध्यानपूर्वक सुनते थे और वही बातें उनके जीवन का आधार बनती थीं। लेकिन डिजिटल क्रांति ने इस परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया है। मोबाइल फोन, इंटरनेट और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के बढ़ते प्रभाव ने विद्यार्थियों के लिए अनगिनत अवसर तो खोले हैं, परंतु इसके साथ ही कई चुनौतियाँ भी खड़ी की हैं। जानकारी का महासागर अब हर बच्चे की उंगलियों पर उपलब्ध है, परंतु उसी महासागर में गलत जानकारी, भ्रामक सामग्री और असीमित मनोरंजन का जाल भी बिछा है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि इस विशाल और असंतुलित सूचना-संसार में बच्चों को सही मार्ग कौन दिखाएगा? इसका उत्तर है – शिक्षक।
शिक्षक की भूमिका अब केवल पाठ्यपुस्तक तक सीमित नहीं रह गई है। वह एक मार्गदर्शक, मूल्यनिर्माता और व्यक्तित्व निर्माता है। जब बच्चा मोबाइल पर स्क्रीन की दुनिया में खोया रहता है, तब शिक्षक का दायित्व है कि वह उसे वास्तविक जीवन की चुनौतियों से परिचित कराए। शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री पाना या नौकरी करना नहीं होना चाहिए, बल्कि यह भी होना चाहिए कि बच्चा समाज का जिम्मेदार नागरिक बने, उसमें करुणा, संवेदनशीलता और विवेक विकसित हो।
शिक्षक ही वह कड़ी है जो घर और समाज के बीच संतुलन कायम करता है। घर बच्चे को प्यार और संस्कार देता है, लेकिन उन्हें स्थायी बनाने का काम शिक्षक करता है। एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों को केवल गणित या विज्ञान नहीं पढ़ाता, बल्कि यह भी सिखाता है कि कठिनाइयों का सामना कैसे करना है, असफलताओं से कैसे सीखना है और जीवन में ईमानदारी तथा सत्य का महत्व क्या है।
आज की शिक्षा प्रणाली पर विचार करें तो हम पाते हैं कि इसमें प्रतिस्पर्धा और अंकों की दौड़ हावी हो गई है। बच्चे अधिक अंक लाने के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं, अभिभावक भी उन्हें उसी दिशा में धकेलते हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में मानवीय मूल्यों की नींव कमजोर हो रही है। यही कारण है कि समाज में आत्मकेंद्रित प्रवृत्तियाँ, नैतिक पतन और संवेदनहीनता बढ़ रही है। इस कमी को दूर करने वाला कोई है तो वह शिक्षक ही है। शिक्षक यदि चाहे तो बच्चों में सहयोग, सेवा, सहानुभूति और समाज के प्रति जिम्मेदारी की भावना विकसित कर सकता है।
स्क्रीन का प्रभाव इतना गहरा हो गया है कि बच्चे वास्तविक संवाद से दूर होते जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर वे हजारों मित्र बना लेते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं। इस स्थिति से बाहर निकालने का काम केवल शिक्षक कर सकता है। कक्षा में जब शिक्षक बच्चों से संवाद करता है, तो वह केवल पढ़ाने का कार्य नहीं करता, बल्कि बच्चों की भावनाओं को भी छूता है। एक सच्चा शिक्षक वही है जो विद्यार्थियों को यह महसूस कराए कि वे महत्वपूर्ण हैं, उनकी समस्याएँ सुनी जाती हैं और उनका मार्गदर्शन किया जाएगा।
शिक्षक का महत्व केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं है। राष्ट्रनिर्माण में शिक्षक की भूमिका अत्यंत निर्णायक होती है। यह कहावत बार-बार दोहराई जाती है कि किसी देश का भविष्य उसके कक्षाओं में गढ़ा जाता है। यह कथन केवल आदर्श नहीं है, बल्कि कठोर सत्य है। यदि कक्षाओं में अच्छे शिक्षक होंगे, जो बच्चों को नैतिकता, ज्ञान और आत्मविश्वास से भरेंगे, तो वही बच्चे आगे चलकर अच्छे नागरिक, नेता, वैज्ञानिक और प्रशासक बनेंगे। लेकिन यदि शिक्षक केवल परीक्षा पास कराने तक सीमित रह गया, तो समाज का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।
आज आवश्यकता है कि शिक्षक स्वयं को भी समयानुकूल बनाएं। तकनीक से भागना समाधान नहीं है, बल्कि उसे सकारात्मक ढंग से अपनाना जरूरी है। शिक्षक यदि चाहे तो स्क्रीन और डिजिटल माध्यमों को शिक्षा के सहयोगी बना सकता है। ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म, शैक्षिक वीडियो, वर्चुअल प्रयोगशालाएँ और कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसी तकनीकें बच्चों की जिज्ञासा को बढ़ा सकती हैं। लेकिन इन सबके बीच मानवीय संवाद की जगह कोई नहीं ले सकता। मशीनें ज्ञान दे सकती हैं, परंतु संस्कार और संवेदनशीलता केवल शिक्षक ही दे सकता है।
शिक्षक दिवस पर हमें यह भी याद रखना चाहिए कि शिक्षक का सम्मान केवल औपचारिक कार्यक्रमों तक सीमित न रहे। यह सम्मान तभी सार्थक होगा जब हम उन्हें उचित सुविधाएँ, प्रशिक्षण और प्रेरणादायक वातावरण दें। आज भी कई शिक्षक सीमित संसाधनों में चमत्कार कर रहे हैं। वे अपने विद्यार्थियों के लिए अतिरिक्त समय निकालते हैं, नई विधियाँ खोजते हैं और बच्चों के जीवन को संवारते हैं। ऐसे शिक्षकों को न केवल प्रणाम करना चाहिए, बल्कि उनकी मेहनत को राष्ट्र की सबसे बड़ी संपत्ति मानना चाहिए।
महान दार्शनिक और शिक्षक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि शिक्षक ही समाज की आत्मा होते हैं। उनकी शिक्षाएँ पीढ़ियों को प्रभावित करती हैं और उनके व्यक्तित्व से आने वाली रोशनी दूर-दूर तक फैलती है। आज जब हम शिक्षक दिवस मना रहे हैं, तो हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपने शिक्षकों का सम्मान करेंगे, उनकी भूमिका को और सशक्त बनाएंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि आने वाली पीढ़ियाँ केवल जानकारी ही नहीं, बल्कि विवेक, संवेदनशीलता और संस्कार भी हासिल करें।
अंततः, स्क्रीन और तकनीक की इस तेज़ रफ्तार दुनिया में शिक्षक ही वह संतुलन हैं, जो ज्ञान और संस्कार की नदियों को सूखने नहीं देंगे। वे ही वह पुल हैं जो बच्चे को आज से जोड़कर भविष्य तक पहुँचाते हैं। इसलिए इस अवसर पर हमें केवल शिक्षक का सम्मान ही नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके संदेश को जीवन में उतारना भी चाहिए। यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी उस गुरु परंपरा को, जिसने हमें सिखाया है कि शिक्षा केवल रोजगार का साधन नहीं, बल्कि जीवन को सार्थक और समाज को उज्ज्वल बनाने का माध्यम है।
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