पत्थर होती मानवीय संवेदना: प्रियंका 'सौरभ'
वह मानव जिसकी पहचान ही उसके मानवीय गुणों, जैसे कि सहानुभूति, संवेदना, दुःख आदि होती है और यही गुण, मनुष्य में न रहेंगे तो मानव और पशु में अंतर करना ही असंभव हो जायेगा।
हमारे समाज में आये दिन जिस प्रकार की मानवता को शर्मसार करने वाली घटनाएं घटित हो रही है, वह वास्तव में हमारे संवेदनहीन हो रहे समाज की छवि को प्रदर्शित करती है।
हाल के वर्षों में ऐसी असंख्य दुखद घटनाएं घटित हुई, जिसमें मानवता भी शर्मसार हुई।
आश्चर्य तो तब होता है, जब हमारा सभ्य समाज मूक दर्शक बना घटना की वीडियो बनाता रहता है और सोशल मीडिया पर अपलोड करता रहता है।
यह वास्तविकता हमारे मानव होने पर प्रश्न चिन्ह लगाती है।
ऐसी दुःखद घटनाओं के पीछे चाहे कैसी भी परिस्थितियां या कुछ भी कारण रहे हो लेकिन इतनी निर्दयता और इतनी नृशंसता से किसी के प्राण ले लेना, कौन सी बहादुरी है ?-
-:प्रियंका 'सौरभ':-
हिंसार (हरियाणा): रिसर्च स्कॉलर, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. प्रियंका सौरभ अपनी विशेष प्रस्तुति में "पत्थर होती मानवीय संवेदना" शीर्षक से प्रस्तुत अपनी प्रस्तुति में लिखती हैं कि, आज समाज में व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना का जिस तीव्रता से मुंह खोलती जा रही है, वह बहुत शर्मनाक और चिन्ता का विषय है। बदलते दौर में भौतिकवाद के बढ़ते प्रभाव ने मनुष्य को स्वयं तक सीमित कर दिया है। आज का आदमी केवल अपने लिए जीता है और अपने लिए सोचता है। यही कारण है कि, आज समाज में घटने वाली रोडरेज घटनाएं हो या रोड पर घटने वाली दुर्घटनाएं हो जिसमें आंखों के आगे लोग तड़प तड़प कर दम तोड देते है या वे दुर्घटनाएं जिसमें तमाशबीनो की भीड़ होने के उपरान्त भी असंख्य व्यक्ति सही समय पर सहायता न मिल पाने के कारण बेमौत मर जाते हैं। महाकाल की नगरी उज्जैन में वह लगभग निर्वस्त्र नाबालिग बेटी घंटों पनाह मांगती रही। पचासों मकानों के दरवाज़े खटखटाये थे उसने, पर हर जगह से दुत्कारी गयी वह। ऐसी दुखद घटनाओं के पीछे लोगों में मानवीय संवेदना का पूर्ण अभाव देखने को मिलता है।
संवेदना हृदय की अतल गहराई से आवाज देती प्रतीत होती है। संवेदना को किसी नियम अथवा उपनियम में बांधकर नहीं देखा जा सकता है। संवेदना की न तो कोई जाति होती है और न ही कोई धर्म। संवेदना मानवीय व्यवहार की सर्वोत्कृष्ट अनुभूति है। किसी को कष्ट हो और दूसरा आनंद ले, ऐसा संवेदनहीन व्यक्ति ही कर सकता है। खुद खाए और उसके सामने वाला व्यक्ति भूखा बैठा टुकर टुकर देखता रहे, यह कोई संवेदनशील व्यक्ति नहीं सह सकता। स्वयं भूखा रहकर दूसरों को खिलाने की हमारी परंपरा संवेदनशीलता की पराकाष्ठा है। संवेदना दिखावे की वस्तु नहीं बल्कि अंतर्मन में उपजी एक टीस है, जो आह के साथ बाहर आती है। संवेदना मस्तिष्क नहीं बल्कि दिल में उत्पन्न होती है। यही संवेदना मनुष्य को महान और अमर बना देती है।
आज प्रतिस्पर्धा के दौर में मानवीय संवेदना पूरी तरह से मृत हो गई है। कुछ ही अर्सा पहले हमने मीडिया में मणिपुर की उन दो महिलाओं की शर्मनाक खबर देखी-सुनी थी, जिन्हें निर्वस्त्र करके सड़कों पर घुमाया गया था। निर्वस्त्र कहने से शायद बात की गंभीरता उतनी उजागर नहीं होती जितनी ‘नंगा’ कहने से होती है। सैकड़ों लोग थे मणिपुर की सड़कों पर निकाले गये मनुष्यता को शर्मसार करने वाले उसे जुलूस में। कहां चली गयी थी उनकी आंखों की शर्म? क्यों उस भीड़ में किसी को इस बात पर शर्म नहीं आयी कि महिलाओं के साथ यह व्यवहार समूची मानवीय संवेदनाओं के पत्थर होते जाने की कहानी कह रहा है? मणिपुर की उस भीड़ में शामिल हर व्यक्ति वहशी नहीं हो सकता, तो फिर उस भीड़ में से किसी ने यह आवाज़ क्यों नहीं उठायी कि यह अत्याचार असह्य है?=
मानवीय संवेदनों के पत्थर होने की टीस के पीछे बहुत से कारण है जो हमने खुद पैदा किये है जैसे-तीव्र गति से बढ़ती नगरीय जनसंख्या, तीव्र गति से बढ़ती शिक्षित बेरोजगारी, नैतिक मूल्क प्रेरक शिक्षा का अभाव, प्रतिस्पर्धा का दौर, संयुक्त परिवार का विघटन, एकाकी परिवार में वृद्धि, बच्चों के सामुहिक खेलों का अभाव, मोबाइल का अत्यधिक बढ़ता उपयोग, दूरदर्शन पर भ्रमित करते धारावाहिक, मीडिया द्वारा छोटे-छोटे घटनाओं की अधिक बढ़ाकर बताना, घट रहा आपसी भाईचारा, स्वयं की अधिक से अधिक घर की चार दीवारी में समेटना, व्यक्तिगत वाहनों की संख्या में वृद्धि, लूटपाट की वारदातों में वृद्धि, भावुकता का नजायज लाभ उठाना, दूषित पर्यावरण, बच्चे का घर में अकेले रहना, बच्चों को संवेदनाओं वाली कहानी व दुनाना, गाँव में ही रोजगार के अवसर उपलब्ध न कराना। हम गाँव से शहर की ओर तो बढ़ रहे है, और पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण कर रहे है, लेकिन हम अपनी विंब प्रसिद्ध संस्कृति कोे खो रहे है।
वह मानव जिसकी पहचान ही उसके मानवीय गुणों जैसे कि सहानुभूति, संवेदना, दुःख आदि होती है और यही गुण मनुष्य में न रहेंगे तो मानव और पशु में अंतर करना ही असंभव हो जायेगा। हमारे समाज में आये दिन जिस प्रकार की मानवता को शर्मसार करने वाली घटनाएं घटित हो रही है वह वास्तव में हमारे संवेदनहीन हो रहे समाज की छवि को प्रदर्शित करती है। हाल के वर्षों में ऐसी असंख्य दुखद घटनाएं घटित हुई जिसमें मानवता भी शर्मसार हुई। यह हमारे समाज के लोगों की कैसी मानसिकता है कि वह मनुष्य होकर भी असभ्यों जैसी क्रियाएं करने लगा है ? अभी कुछ दिनों पूर्व मैंने सोशल मीडिया पर वीडियो देखा जिसमें एक लड़की को पहले पब्लिक द्वारा बड़ी ही निर्दयता से मारा मीटा गया और फिर पेट्रोल छिड़ककर उसे जिन्दा जला दिया गया और कोई भी उस असहाय लड़की की सहायता के लिए आगे नहीं आया। यह समाज में घटने वाली मात्र एक घटना नहीं है। डायन बनाकर कभी बदला लेने के लिए बर्बरता पूर्ण ढंग से मार दी जाने वाली नारियां एक दो नहीं हजारों में होती है, इससे पूर्व भी एक प्रेमी जोड़े को पूरे गांव के समक्ष जिन्दा जला दिया गया और तो और दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को भी लोग मरता हुआ छोड़कर आगे निकल जाते हैं लेकिन घायल व्यक्ति की सहायता के लिए आगे कोई नहीं आता।
आश्चर्य तो तब होता है जब हमारा सभ्य समाज मूक दर्शक बना घटना की वीडियो बनाता रहता है और सोशल मीडिया पर अपलोड करता रहता है। यह वास्तविकता हमारे मानव होने पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। ऐसी दुःखद घटनाओं के पीछे चाहे कैसी भी परिस्थितियां या कुछ भी कारण रहे हो लेकिन इतनी निर्दयता और इतनी नृशंसता से किसी के प्राण ले लेना, कौन सी बहादुरी है? क्या है ये सब? हमें कुछ तो विचार करना ही पड़ेगा। हम एक संवेदनहीन समाज में बदलते जा रहे हैं। यह संवेदनहीनता मनुष्यता का नकार है, इस बात को समझना होगा। संवेदनहीनता के खिलाफ कोई पुलिस या कोई कानून लड़ाई नहीं लड़ सकता। अपने भीतर के मनुष्य को ज़िंदा रखने की यह लड़ाई हम में से हर एक को लड़नी है और जीतनी है। संवेदनहीन समाज को मनुष्य-समाज नहीं कहा जा सकता। ऐसी उन्नति ऐसी उपलब्धियां, ऐसा विकास आखिर किस काम का, जो नैतिकता को ही समाप्त कर दे। समाज की उन्नति, उसका विकास तभी संभव है जब इंसान दूसरे इंसान से प्यार करना सीखेगा, अपने लिए ही नहीं बल्कि दूसरों के लिए भी जीना सीखेगा, सामाजिक सद्भाव को बनाये रखने के लिए बहुत आवश्यक है कि मनुष्य अपने अन्दर मानवीय संवेदनाओं के भाव को जागृत करें।
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