सांस्कृतिक, पारिवारिक एवं धार्मिक चेतना की ज्योति किरण- 'गणगौर पर्व': सुनील कुमार महला
पटियाला (पंजाब): 'गणगौर' राजस्थान की संस्कृति से जुड़ा प्रसिद्ध त्योहार हैं, जो भगवान शिव व देवी पार्वती को समर्पित है। 'गणगौर' त्योहार को हिंदू कैलेंडर के अनुसार तृतीया तिथि, शुक्ल पक्ष, चैत्र माह में मनाया जाता है।
'गणगौर' महोत्सव-2023, 08 मार्च 2023 - 24 मार्च 2023 को मनाया जा रहा है।
मालवा की शान 'गणगौर' वैसे तो राजस्थानियों का विशुद्ध लोकपर्व है, लेकिन राजस्थान के अलावा भी यह लोकपर्व देश के अनेक भागों में हर्षोल्लास, खुशी के साथ मनाया जाता है। यह लोकपर्व वास्तव में राजस्थान की गौरवशाली संस्कृति में रमा-बसा हुआ लोकपर्व है और खुशहाल दाम्पत्य जीवन से जुड़ा हुआ है।
जानकारी देना चाहूंगा कि, आज देश में राजस्थानियों के अलावा इसे उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बुंदेलखंड और ब्रज, गुजरात, पश्चिमी बंगाल क्षेत्र में भी हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यदि हम इस त्योहार(लोकपर्व) के मनाये जाने की बात करें तो यह होलिका दहन के दूसरे दिन यानी कि चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से यानी कि छरंडी के दिन से या यूं कहें कि रंगों से खेलने के दिन से चैत्र शुक्ल तृतीया तक इसे मनाया जाता है।
बुजुर्ग बताते हैं कि, यह अट्ठारह दिनों तक चलने वाला लोकपर्व है। माना जाता है कि माता गवरजा(पार्वती मां) होली के दूसरे दिन अपने पीहर आती हैं तथा अठारह दिनों के बाद ईसर (भगवान शिव ) उन्हें फिर लेने के लिए आते हैं और चैत्र शुक्ल तृतीया यानी कि 'तीज' को उनकी विदाई होती है।
वैसे तो यह विवाहित महिलाओं का लोकपर्व है लेकिन कुंवारी लड़कियाँ भी इस दिन माता गौरी (पार्वती जी) और भगवान शिव (ईसर) की पूजा-अर्चना करतीं हैं। जिस लड़की की शादी हो जाती है वो शादी के प्रथम वर्ष अपने पीहर जाकर गणगौर की पूजा करती है।
अक्सर यह बात कही जाती है कि, चैत्र शुक्ला तृतीया को राजा हिमाचल की पुत्री गौरी का विवाह शंकर भगवान के साथ हुआ था। उसी की याद में यह त्योहार मनाया जाता है। कामदेव की पत्नी रति ने भगवान शंकर की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया तथा उन्हीं के तीसरे नेत्र से भष्म हुए अपने पति को पुनः जीवन देने की प्रार्थना की। रति की प्रार्थना से प्रसन्न हो भगवान शिव ने कामदेव को पुनः जीवित कर दिया तथा विष्णुलोक जाने का वरदान दिया। उसी की स्मृति में प्रतिवर्ष गणगौर का उत्सव मनाया जाता है।
इस अवसर पर 'नेगचार' की रस्में भी अदा की जाती हैं। कहते हैं कि छरंडी के दिन गणगौर पूजने वाली लड़कियां होलिका दहन की राख लाकर उसके आठ पिण्ड बनाती हैं एवं आठ पिण्ड गोबर के बनाती हैं। उन्हें दूब पर रखकर प्रतिदिन पूजा करती हुई दीवार पर काजल और रोली की टीका लगाती हैं और शीतलाष्टमी के त्योहार तक इन पिण्डों को पूजा जाता है। फिर मिट्टी से ईसर गणगौर की मूर्तियां बनाकर उन्हें पूजती हैं। लड़कियां प्रातः ब्रह्ममुहुर्त में गणगौर पूजते हुए गीत गाती हैं- 'गौर ये गणगौर माता खोल किवाड़ी, छोरी खड़ी है तन पूजण वाली।' गणगौर पर गणगौर की कहानी सुनने की भी परंपरा है। गणगौर को भोग लगाया जाता है।
लड़कियां कुंए से ताजा पानी लेकर गीत गाती हुई आती हैं-
'म्हारी गौर तिसाई ओ राज घाट्यारी मुकुट करो, बीरमदासजी रो ईसर ओराज; घाटी री मुकुट करो, म्हारी गौरल न थोड़ो पानी पावो जी राज घाटीरी मुकुट करो।'
गणगौर का 'बिंदौरा' भी निकाला जाता है और गणगौर विसर्जन के पहले दिन गणगौर का 'सिंजारा' किया जाता है। पूजा में दूब, जल कलश, रौली-मौली, सिंदूर, चूड़ियाँ, चन्दन, अक्षत, धूपबत्ती, दीप, नैवेद्य का इस्तेमाल किया जाता है। कुंवारी लड़कियाँ मनपसंद वर प्राप्ति के लिए पूजा अर्चना करतीं हैं।राजस्थान के अधिकतर क्षेत्रों में गणगौर पूजन एक आवश्यक वैवाहिक रीत के रूप में भी प्रचलित है।
गणगौर पूजन में कन्याएँ और महिलाएँ अपने लिए अखण्ड सौभाग्य, अपने पीहर और ससुराल पक्ष की समृद्धि तथा गणगौर से प्रतिवर्ष फिर से आने का आग्रह करती हैं। बताता चलूँ कि जयपुर की 'गणगौर' पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। जयपुर में, घेवर नामक एक मीठा व्यंजन गणगौर उत्सव की विशेषता है। गणगौर लोकपर्व के अवसर पर राजस्थान में जगह-जगह मेले भरते है और पूर्व राजपरिवारों की गणगौर सवारी शाही लवाजमें के साथ बड़े ही धूमधाम के साथ निकलती है। महिलाओं/ कुंवारी लड़कियों द्वारा इस पावन अवसर पर गणगौरी गीत गाये जाते हैं और समूहों में फूल तोड़ने व कुंओं से पानी भरने की भी परंपरा है। महिलाएं इस अवसर पर अपने हाथों और पैरों में मेंहदी लगाती हैं, जैसा कि मेंहदी सुहाग का प्रतीक मानी जाती है। इसीलिए गणगौर को 'सुहाग पर्व' भी कहा जाता है।
इस अवसर पर सभी स्त्रियां गहने-कपड़ों से सजी-धजी रहती हैं। वैसे बीकानेर जिले की गणगौर को राजस्थान की अनूठी गणगौर माना जाता है। बीकानेर के बारह गुवाड़ चौक में भरने वाले दो दिवसीय बारहमासा गणगौर मेले के दौरान पूजन की जाने वाली आलूजी की चटकीले रंग व आकार वाली प्राचीन गणगौरें न केवल प्रदेशभर में अनूठी है बल्कि विशिष्ट बनावट और मिट्टी कुट्टी से बनी होने के कारण अपनी अलग पहचान रखती है।
कहते हैं कि यहाँ करीब डेढ सौ साल पुरानी इन गणगौर प्रतिमाओं में ईसर और गवर के साथ-साथ भगवान कृष्ण, भगवान गणेश और सिर पर कलश धारण किए पणिहारी की प्रतिमाएं भी हैं। बुजुर्ग लोग बताते हैं कि ये प्राचीन गणगौर प्रतिमाएं चिकनी मिट्टी, कागज की लुगदी, दाना मेथी, गोंद, राल आदि सामग्रियों से तैयार की गई है। वैसे, बीकानेर के अलावा जयपुर, किशनगढ़, सूर्य नगरी जोधपुर समेत अन्य स्थानों पर गणगौर की सवारी ऐतिहासिक परम्पराओं के अनुरूप निकाली जाती है इन स्थानों पर अभी भी पूर्व राज परिवारों की गणगौर की सवारी शाही लाव-लश्कर के साथ निकाली जाती है, जिसे विदेशी पर्यटक बहुत चाव और रूचि के साथ देखते हैं और अपनी फोटो,विडियो भी करवाते हैं।
जानकारी देता चलूं कि राजस्थान के मारवाड़ प्रान्त खासकर जोधपुर में मनाए जाने वाले ‘धींगा गवर’ फेस्टिवल में महिलाएं कुंवारे लड़कों को दौड़ा-दौड़ाकर डंडा मारती हैं। ऐसी मान्यता है कि डंडा/बेंत खाने से शादी जल्दी होती है। इसे 'बेंतमार गणगौर' के नाम से भी जाना जाता है।
मारवाड़ में सालों पुरानी यह मान्यता थी कि, धींगा गवर के दर्शन पुरुष नहीं करते थे क्योंकि उस समय में ऐसा माना जाता था कि जो भी पुरुष धींगा गवर के दर्शन कर लेता था उसकी मृत्यु हो जाती थी लेकिन यह मान्यता धीरे-धीरे बदल गई। वैसे नाथद्धारा में चैत्र शुक्ल पंचमी के अवसर पर 'गुलाबी गणगौर' भी मनाते हैं। गणगौर के दौरान भक्ति, श्रंगार व वीर रस के गीत गाये जाते हैं।
राजस्थान की स्वर्ण नगरी कहलाने वाले जैसलमेर जिले में बिना ईसर की गणगौर पूजी जाती है। बताता चलूं कि उदयपुर में गणगौर नाव प्रसिद्ध है। पारंपरिक परिधानों के साथ गहनों से सजी महिलाएं शहर के मुख्य मार्गों से होते हुए पिछौला झील के गणगौर घाट पर देवी पार्वती की मूर्तियों की पूजा-अर्चना करती हैं। वैसे उदयपुर और जोधपुर की 'धींगा गणगौर' काफी प्रसिद्ध है। वैसे,राजस्थान की महिलाएं चाहे दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न हों, वे गणगौर के पर्व को पूरी उत्साह के साथ मनाती हैं।
राजस्थानी में गणगौर पर एक कहावत भी है जो बहुत प्रसिद्ध है- ‘तीज तींवारा बावड़ी ले डूबी गणगौर‘ इसका मतलब यह है कि, सावनी तीज से त्योहारों का आगमन शुरू हो जाता है और गणगौर के विसर्जन के साथ ही त्योहारों पर काफी समय तक(तीन-चार महीनों तक) विराम आ जाता है। आज हाइटेक युग में गणगौर लोकपर्व का स्वरूप काफी हद तक बदल चुका है। आज पूजा के लिए कुएं बचे नहीं है। सादगी से मनाये जाने वाले इस त्योहार को समय का जंग लग चुका है। बुजुर्ग महिलाओं को ही गणगौर के लोकगीत याद हैं। युवा पीढ़ी को इस त्योहार के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। आज बढ़ती आबादी, आधुनिकता, पाश्चात्य संस्कृति, टेक्नोलॉजी के बीच अब गणगौर माता के विसर्जन के स्थान नहीं रहे हैं। आज लोकगीतों का स्थान आधुनिक गीतों ने लिया है। पाश्चात्य संस्कृति ने फूहड़पन को जन्म दिया है।
आज लोकपर्व में दिखावा व लोभ,स्वार्थ की भरमार देखने को मिलती है। वह अपनत्व, स्नेह, प्यार अब मौजूद नहीं दिखता जो आज से पच्चीस तीस बरस पहले गणगौर पर्व के दौरान दिखता था। गणगौर का पर्व हमें इस बात का संदेश देता है कि हमें अपने जीवन में धन-संपदा, प्रदर्शन, दिखावा, ईर्ष्या, छल-कपट, अहम् भावना से दूर रहना चाहिए। आज लोग इस पर्व पर नशे की हालत में डीजे पर फूहड़ नृत्य करते हैं जो हमारी संस्कृति और गौरवशाली परंपरा के लिए अभिशाप बन रहा है। आज शहरीकरण के कारण चिकनी मिट्टी नहीं है, काग़ज़ की लुगदी नहीं है। है तो भी बहुत ही कम। प्रतिमाओं को तैयार करने वाले कलाकारों का भी अभाव है।
जमाना आधुनिकता की आड़ में इस त्योहार की परंपराओं को भुलाता चला जा रहा है। इस त्योहार की गौरवशाली परंपरा धीरे-धीरे विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई है। गणगौर हमारे जीवन मूल्यों, हमारे आदर्शों, हमारे प्रतिमानों की सुरक्षा एवं वैवाहिक जीवन की सुदृढ़ता में एक सार्थक प्रेरणा बना है। लेकिन आज समय के साथ पारिवारिक मूल्यों, नैतिक मूल्यों में ह्वास हो गया है। गणगौर का पर्व हमारी सांस्कृतिक, पारिवारिक एवं धार्मिक चेतना की एक ज्योति किरण है, लेकिन समय के साथ यह ज्योति किरण संकुचित सी होती जा रही है।
आज हरेक आदमी भौतिक एवं भोगवादी और भागदौड़ की दुनिया में रमा-बसा है, उसके पास ऐसे त्योहारों के लिए समय ही नहीं बचा है। पर्वों के महत्व से वह अनजान है। यह पर्व हमारे दुःखों, परेशानियों, कष्टों को दूर करने एवं सुखों का सृजन करने का प्रेरक लोकपर्व है। आज आधुनिक युग में परिवार लगातार टूट रहे हैं, संयुक्त परिवारों का नितांत अभाव हो गया है। एकल परिवार जन्म ले रहे हैं। लेकिन यह पर्व कहीं न कहीं दाम्पत्य जीवन के असली दायित्वबोध की चेतना का संदेश देता हैं।
नारी सशक्तीकरण का यह माध्यम है, जो नारी को सशक्त बनाता है, समाज को एकता व अखंडता के सूत्र में बांधता है। वास्तव में, गणगौर का लोकपर्व हमारी संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं, भावनाओं को प्रेम और एकता में बांधने का निष्ठासूत्र ही है। गणगौर लोकपर्व का मूल्य केवल और केवल नारी तक सीमित नहीं है। गणगौर पर्व में हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्य, आदर्श, संस्कार सब निहित हैं। यह त्योहार हम सभी से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से संबद्ध है। जीवन में प्रसन्नता हो,नव-चेतना हो,आनंद और उल्लास हो, खुशी, समृद्धि और कल्याण की भावना हो, आपसी सौहार्द, भाईचारा हो जहाँ आपसी वैमनस्यता का,कटुता का, ईर्ष्या का, लालच व स्वार्थ का कोई स्थान नहीं हो, यही संकल्प और यही विचार गणगौर का पर्व बांटता है।
इस पर्व के मनाने के उद्देश्य सभी दिलों के अंतरिम कोनों तक गहराई से पहुंचे, ये सम्पूर्ण मानव के मन और आत्मा तक, सभी हृदयतलों तक पहुंचे, तभी इस पर्व को मनाने की सार्थकता है।
(आर्टिकल का उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं है। अतः पाठक राजस्थान के इस गौरवशाली लोकपर्व के बारे में सामान्य जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य हेतु इसे पढ़ें।)