विशेष: ख्यातनाम प्लास्टिक व्यंग्यकार ! (व्यंग्य)
लखनऊ: स्वतंत्र लेखक व युवा साहित्यकार - सुनील कुमार महला द्वारा प्रस्तुत ब्यंग जिसका हास्य- व्यंग्य मात्र है और इसका उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहत पहुंचाना नहीं है।
ख्यातनाम प्लास्टिक व्यंग्यकार! (व्यंग्य):
जब से इस देश में इंटरनेट क्रांति का आग़ाज़ हुआ है, तब से इस देश में लेखक, कवि, साहित्यकारों की लंबी लाइनें लगीं हैं।
बिना किसी जानकारी के भी धड़ाधड़-फड़ाफड़ लिखा जा रहा है। गूगल बाबा जिंदाबाद ! कवियों, साहित्यकारों, लेखकों के पास इस समय तीन चीजें हैं। कमरा है, इंटरनेट है और गूगल बाबा है। गूगल बाबा ने लेखकों की पौ-बारह कर रखी है। जिस भी विषय पर लिखना हो, सर्च मारो, कॉपी, कट एंड पेस्ट।
वाह क्या मस्त मजे हैं। लेखकों, साहित्यकारों, कवियों की आज आंखें किसी से मिलतीं हैं तो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने गूगल बाबा से। मज़ाल है किसी और से नैन-मटक्का हो जाए। बेचारा वेलेंटाइन- डे भी कमरे के एक कोने में दुबका पड़ा रहा।
साहित्यकार जी, लेखक जी, कवि महोदय इंटरनेट पर बिजी हैं, क्योंकि इंटरनेट पर लिखना अति 'ईजी' है। कविताओं का तो कहना ही क्या। कविताएं तो आजकल ऐसे बनतीं हैं कि पूछो मत। उठते-बैठते, हंसते-गाते, खाते-पी
कुल मिलाकर, कविताएं तो यत्र-तत्र पसरी पड़ी हैं। जित देखो, तित कविता। हर ऱोज पल-पल प्लास्टिक कविताएं निकलतीं हैं। साहित्य भी प्लास्टिक निकल रहा है। अजी ! इस दुनिया में वैसे भी क्या प्लास्टिक की कमी है। कूड़े के ढ़ेरों में,गलियों में, नदियों में, झीलों में, पहाड़ों पर, मैदानों में, सीवरेज सिस्टम में, गली-मोहल्लों की छोटी नालियों में, बाजार में, मॉल्स में, घरों में, मल्टीप्लेक्स तक में प्लास्टिक बिखरा पड़ा है। ऊपर से और अधिक 'प्लास्टिक साहित्य' इंटरनेट की मदद से ऱोजाना बहाया जा रहा है। ऱोज प्लास्टिक बहाना अच्छी आदत नहीं है। खूशबू नदारद है, इस प्लास्टिक साहित्य से। साहित्य इंटरनेट से समृद्ध हो रहा है।
है न गजब़ की बात। इससे गज़ब बात और हो भी क्या सकती है?-
हमने शायद गलत सुना था कि, साहित्य अनुभव से समृद्ध होता है। यूं ही किसी बावले साहित्यकार ने हमें बहका दिया।
असली ज्ञान की गंगा तो 'इंटरनेट' पर बिखरी पड़ी है। बस तीन चीजों के अनुभव की जरूरत है-'कट, कॉपी एंड पेस्ट।' शेष सब तो है 'वेस्ट।' आज वह साहित्यकार, कवि और लेखक अमीर है, जिसके पास 'इंटरनेट' का 'जमीर' है। शेष सब तो 'फकीर' हैं। साहित्यकारों के लिए 'इंटरनेट' फिट है। इंटरनेट की ज्ञान-गंगा बना रही इन्हें 'हिट' है। इंटरनेट की खाज है, इंटरनेट ही साहित्यकारों, कवियों, लेखकों की असली आवाज़ है। अब हम भी लिखना बंद करते हैं। हमें भी इंटरनेट पर जाकर 'इंटरनेट की नागरिकता' प्राप्त करके और भी अखबारों के लिए व्यंग्य आर्टिकल लिखने हैं।
इंटरनेट हमारे जैसे छोटे-मोटे लेखक की 'विकास दर'(ग्रोथ रेट) निश्चित ही बढ़ाएगा, क्योंकि अब-तक हम नासमझ थे कि, 'बड़ा साहित्यकार' सिर्फ़ इंटरनेट की सहायता से बना जाता है और हमें यह 'ज्ञान का कैप्सूल' हमारे खासमखास तोताराम जी ने कल ही दिया है।
इसी ज्ञान के कैप्सूल की 'ओवरडोज' गटककर हम यह व्यंग्य संपादक जी की मेज पर इंटरनेट की सहायता से पटक रहे हैं। अब हमें भान हुआ है कि 'परमाणु युग'(इंटरनेट का) में तीर-कमान(कलम) थामने मात्र से काम नहीं चलता। हम तो साहित्यिक मामलों और छपने-छपाने के मामलों में अब तक निरी भैंस ही थे, जो कभी 'इंटरनेट' के स्कूल ही नहीं गए।
अंत में यही कहूंगा कि, यदि हमारा यह 'प्लास्टिक व्यंग्य' प्रबुद्ध संपादक महोदय जी को पसंद आयेगा तो 'कसम कलम की' हम आने वाले कुछ ही समय में इंटरनेट की सहायता से ख्यातिनाम 'प्लास्टिक व्यंग्यकार' का तमगा तो हथिया ही लेंगे।
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