माँ का पल्लू (आँचल): पंकज शुक्ला
विशेष में प्रस्तुत है,
पुरातन काल से आधुनिक काल में कोरोना और हर महामारीऔर हर मर्ज़ - हर विपत्त्ति की दवा - हर वैक्सीन का विकल्प-
'माँ का पल्लू (आँचल)':
'माँ '
मुझे नहीं लगता कि, आज के बच्चे यह जानते होगे कि 'पल्लू' क्या होता है, इसका कारण यह है कि आजकल की माताएं अब साड़ी नहीं पहनती हैं। पल्लू बीते समय की बातें हो चुकी हैं।
*माँ के पल्लू* का सिद्धांत 'माँ' को गरिमामयी छवि प्रदान प्रदान करने के लिए था, लेकिन इसके साथ ही, यह गरम बर्तन को चूल्हा से हटाते समय पकड़ने के काम भीआता था।
'पल्लू' की बात ही निराली थी। पल्लू पर कितना ही लिखा जा सकता है। 'पल्लू' बच्चों का पसीना /आँसू पोंछने, गंदे कानों/मुंह की सफाई के लिए भी इस्तेमाल किया जाता था। माँ इसको अपना हाथ तौलिया के रूप में भी इस्तेमाल कर लेती थी। खाना खाने के बाद पल्लू से मुंह साफ करने का अपना ही आनंद होता था।
कभी आँख में दर्द होने पर माँ अपने पल्लू को गोल बनाकर, फूँक मारकर, गरम करके आँख में लगा देतीं थी , सभी दर्द उसी समय गायब हो जाता था ।
माँ की गोद में सोने वाले बच्चों के लिए उसकी गोद गद्दा और उसका पल्लू चादर का काम करता था।
जब भी कोई अन्जान घर पर आता, तो बच्चा उसको, माँ के पल्लू की ओट ले कर देखते था। जब भी बच्चे को किसी बात पर शर्म आती, वो पल्लू से अपना मुंह ढक कर छुप जाता था और जब बच्चों को बाहर जाना होता, तब माँ का पल्लू एक मार्गदर्शक का काम करता था। जब तक बच्चे ने हाथ में थाम रखा होता, तो सारी कायनात उसकी मुट्ठी में होती।
और जब मौसम ठंडा होता था, मां उसको अपने चारो और लपेट कर ठंड से बचने की कोशिश करती।
पल्लू 'एप्रन' का काम भी करता था , पल्लू का उपयोग पेड़ों से गिरने वाले जामुन और मीठे सुगंधित फूलों को लाने के लिए किया जाता था। पल्लू घर मे रखे समान से धूल हटाने में भी बहुत सहायक होता था।
पल्लू में गांठ लगा कर माँ एक चलता फिरता बैंक या तिजोरी रखती थी और अगर सब कुछ ठीक रहा तो कभी कभी उस बैंक से कुछ पैसे भी मिल जाते थे।
*मुझे नहीं लगता कि विज्ञान इतनी तरक्की करने के बाद भी पल्लू का विकल्प ढूंढ पाया है*।
पल्लू कुछ और नहीं बल्कि एक जादुई एहसास है। मैं पुरानी पीढ़ी से संबंध रखता हूं और अपनी माँ के प्यार और स्नेह को हमेशा महसूस करता हूं, जो कि आज की पीढ़ियों की समझ से शायद गायब है।
*सभी विकसित, आधुनिक फैशनपरस्त महिला शक्ति को आदर सहित समर्पित*
(पंकज शुक्ला)