
'अन्नदाता' आँदोलन की राह पर: रघु ठाकुर
‘‘मारेंगे नहीं मानेंगे नहीं’’ के सिद्धान्त के आधार पर किसान धरने पर बैठे हैं: रघु ठाकुर
'कृषि कानून' तो 'कारपोरेट' की उपज है, जिनकी मूल जन्मभूमि 'विश्व व्यापार संगठन (WTO) का दस्तावेज़ है: रघु ठाकुर
भोपाल/ लखनऊ: महान समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतान्त्रिक समाजवादी पार्टी के संस्थापक व राष्ट्रीय संरक्षक- रघु ठाकुर ने कृषि कानून और किसान-आंदोलन पर अपनी गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि, "देश की राजधानी दिल्ली में किसान आँदोलन का आज 23वां दिन है, इस सर्द मौसम में जब दिल्ली का तापमान 8 डिग्री सेंटीग्रेट पर पहुंच गया है, और संभव है कि सिंघु और टिकरी बार्डर के खुले इलाके में और भी कम तापमान हो रहा होगा। किसान निरंतर धरने पर बैठे है, धरने में मुख्यतः या कहें कि अधिकांशतः पंजाब और उसके बाद हरियाणा के किसान है, कुछ महिलाओं के जथ्थे भी इस आँदोलन में शामिल है।"
रघु ठाकुर ने कहा कि, "किसान/ अन्नदाता के आंदोलन का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि, आँदोलन शाँतिपूर्ण ढंग से चल रहा है,'मारेंगे नहीं मानेंगे नहीं’ के सिद्धान्त के आधार पर किसान धरने पर बैठे हैं, और इतनी ठंड की वजह से व अन्य बिमारियों की वजह से लगभग 15 लोगों की जान भी जा चुकी है, इसके बावजूद भी किसानों में कोई भय या चिंता व्याप्त नहीं है, बल्कि आँदोलन में शामिल एक किसान नेता ने तो यहां तक कहा कि, हम एक वर्ष की व्यवस्था करके आए हैं, याने उनके पास इतने साधन मौजूद हैं कि, वे न केवल एक वर्ष तक बैठे रह सकते है बल्कि उनके परिवार के पास भी एक वर्ष तक की कम से कम आसानी से जीवन यापन की व्यवस्था है।"
रघु ठाकुर ने कहा कि, "पंजाब और हरियाणा के किसानों के जथ्थों में अच्छी खासी संख्या में आई.टी. के सुशिक्षित जानकार नौजवान भी हैं और जिनमें से काफी लोग विदेशों में भी रह कर आए हैं। यद्यपि सरकार ने धरना स्थानों पर जैमर लगाए है ताकि खबरें और अफवाहें छन-छन कर पहुंचे इसके बावजूद भी यू-ट्यूब के माध्यम से खबरे और समाचार भी बड़े पैमाने पर देश और दुनिया में पहुंच रहे हैं।"
उन्होंने कहा कि, "वैसे तो आँदोलन की तैयारी पंजाब में कई माह से चल रही थी, और भारत सरकार की भेदभाव वाली नीति ने उसे और हवा दे दी है। जब कृषि संबंधी तीन बिल लोकसभा में पारित होने के बाद राज्यसभा में प्रस्तुत हुए थे, उस समय कई दलों के सांसदों ने इन बिलों पर मतदान की माँग की थी। संसदीय नियमों के अनुसार भी किसी सांसद के द्वारा मतदान की माँग किए जाने पर मतदान कराया जाना चाहिए। परन्तु सरकार ने टकराव और अवैधानिक तरीकों का रास्ता चुना तथा बगैर मतदान के ध्वनि मत से कानून पारित घोषित कर दिया। यदि उस दिन मतदान हुआ होता तो राज्यसभा के संख्यात्मक गणित के अनुसार यह बिल पारित नहीं हो पाते। हालांकि इन बिलों के पारित नहीं होने से सरकार कोे कोई खतरा नहीं था क्योंकि यह अर्थ संबंधी बिल नहीं थे परन्तु सरकार के नियंत्रकों के मद को चुनौती जरूर होती। इसके भी रास्ते थे कि, सरकार परम्परा के अनुसार और सांसदों की माँग भी थी कि इन बिलों को एक प्रवर समिति को विचारार्थ भेज देते। इससे समय भी मिल जाता व सरकार को शर्मिंदा भी नहीं होना पड़ता तथा पब्लिक डोमेन (जनमत) में विचार विमर्श का भी अवसर मिलता। प्रवर समिति के माध्यम से देश की जनता व किसानो संगठनों की राय भी आ जाती। याने जो काम सरकार सीधे नहीं करना चाहती थी उसका भी एक सहायक मार्ग निकल जाता। परन्तु देश में सत्ताधारी दल और विशेषतः उनके सहयोगियों का मानस लोकतांत्रिक नहीं है, एक व्यक्ति का अहम समूचे देश से बड़ा बनाया जा रहा है, उन्हें कोई चुनौती स्वीकार नहीं है और इसी का परिणाम यह किसान आँदोलन है।"
श्री रघु ठाकुर ने बताया कि, "डाॅ. लोहिया कहते थे कि, अच्छे कानून तभी बनते है, जब जन-संघर्षाें से पैदा हों। पर ये कानून तो कारपोरेट, की उपज है, जिनकी मूल जन्मभूमि विश्व व्यापार संगठन का दस्तावेज़ है। मैंने पहले भी कहा है कि, किसान आँदोलन वस्तुतः दो प्रदेशों का आँदोलन हैं और उसमें भी हरियाणा के किसान पहले इसमें शामिल नहीं थे, बाद में शामिल हुए। जब हरियाणा सरकार ने किसानों को रोकने के लिए बड़े-बड़े पत्थर डालकर, गड्ढे खोदकर, गड्ढों में पानी भरकर उन्हें एक प्रकार से अघोषित चुनौती दी। इस आँदोलन में पंजाब के अधिकांशतः किसान जाट है और हरियाणा के भी जाट सिख किसान शामिल हुए। इसकी वजह मुख्यतः इनका कृषि का व्यवसाय है और इसके साथ-साथ सामाजिक एकता और परंपरा भी। बकाया देश के किसानों की हिस्सेदारी या तो नगण्य है या प्रतिकात्मक है या दलीय राजनैतिक है। औपचारिक तौर पर अभी तक किसान संगठनों ने राजनैतिक दलों को सीधे तौर पर शामिल नहीं होने दिया बल्कि दूर रहने के लिए ही कहा है। हालांकि कतिपय राजनैतिक दलों ने अपने छुटभैय्या और दलाल किस्म के लोगों को जिनका कोई अपना किसानों में जनाधार नहीं उन्हें किसान के भेष में छोड़ा है या प्रवेश करने का प्रयास किया है, यह कितने दिन चलेगा यह कहना कठिन है।"
रघु ठाकुर ने बताया कि, किसान आँदोलन शुरू होने के पहले ही जब सुगबुगाहट शुरू हुई थी, मैंने लो.स.पा. के माध्यम से भारत सरकार को निम्न प्रस्ताव भेजे थे:-
1. इन कानूनों में सरकारी या गैर सरकारी कोई भी खरीदार हो एम.एस.पी. से कम पर कृषि उपज नहीं खरीदी जाएगी, यह प्रावधान होना चाहिए। अगर कोई भी व्यक्ति या संस्था भले वह सरकार की क्यों न हो, एम.एस.पी. पर खरीद नहीं करती हो तो उसे दण्डनीय अपराध माना जाए।
2. सभी कृषि उपज की एम.एस.पी. तय की जाए और एम.एस.पी. का तय करने का आधार किसान के लागत मूल्य का 50 प्रतिशत और उसमें जोड़कर एम.एस.पी. दी जाए।
3. इन कानूनों मेें यद्यपि सरकार ने प्रशासनिक अधिकारियों को पंचायत के लिए नोडल अधिकारी बनाया है, परन्तु किसानों के कोर्ट जाने के अधिकार को जो समाप्त किया है उसे बहाल किया जाए, तथा किसानों को बगैर किसी कोर्ट फीस की न्यायायिक प्रक्रिया का अधिकारी बनाया जाए। क्योंकि किसान एक कमजोर पक्ष है।
4. स्वामीनाथन आयोग की कृषि उपज की मूल्य नीति अपूर्ण है। इसलिए 60 वर्ष पहले डाॅ. लोहिया के द्वारा बताई गई दाम बाधों नीति देश में लागू की जाए। याने खेत खलिहान या कल कारखाने सभी की पैदावार का बाजार मूल्य न लागत से डेढ़ गुने से कम हो और न ज्यादा हो। अगर लागत से डेढ़ गुना का सिद्धान्त केवल कृषि उपजों पर लागू किया जाएगा तो उससे किसानों की शोषण से लूट नहीं बचेगी, क्योंकि बाजार लूट के लिए खुला रहेगा। इसलिए बाजार पर नियंत्रण हो। हमने सरकारों को यह चेतानवी भी दी थी कि, किसान आँदोलन के साथ कोई हिंसा न हो अन्यथा यह असावधानी सिख्खों के सीमा पर होने वाले घाव अलगाव बाद की खाई को गहरा कर सकते है। यह अच्छा है कि, अभी तक सरकार ने कोई हिंसा के रास्ते का चुनाव नहीं किया। हालांकि बातचीत के प्रयास अधूरे हैं और दिखावटी वाले ज्यादा है। आँदोलन को कमजोर करने के लिए सरकार निम्न तीन तरीकों पर काम कर रही है:-
1. चूंकि धरनों में अधिकांश सिख शामिल है अतः फेक न्यूज़ या बनावटी खबरों के द्वारा बगैर सामने आए इसे खालिस्तानियों का आँदोलन बताया जा रहा है। हो सकता है कि, कुछ खालिस्तान के विचार के लोग भी इस आँदोलन में शामिल हो परन्तु इस आँदोलन का मूल और वास्तविक स्वरूप अभी तक अलगाववादी नहीं है। कनाडा के प्रधानमंत्री व यू.एन.ओ. की ओर से दिये गये बयान गैर जरूरी थे और अपरिपक्व भी। इनसे किसान आँदोलन को फायदे के बजाय क्षति ही हुई है।
2. कुछ किसान संगठनों को विशेषतः उ.प्र. और अन्य राज्यों के सरकार ने अपने राजनैतिक प्रभाव में लेकर आँदोलन की भागीदारी से दूर किया है, प्रतीकात्मक भागीदारी के लिए तैयार किया है, यह कोई विशेष बात नहीं है। सरकारे अकसर ऐसे तरीके अख्तियार करती है, परन्तु इतना अवश्य मेरा कहना है कि, जो मूल और वास्तविक संगठन आँदोलन कर रहे है उनसे संवाद और बातचीत अवश्य की जाना चाहिए।
रघु ठाकुर ने बताया कि, "अभी तक सरकार और किसान संगठनों में जो बातचीत हुई है उससे ऐसा लगता है कि यह सब पूर्वाग्रहों से युक्त है। किसान संगठन कहते है कि, तीनों कानूनों को वापिस लो तब बात करेंगे और सरकार कहती है कि, बात करो और सुझाव दो। अब दोनों ही दृष्टिकोण हटवादी है और अपूर्ण भी। मान लो थोड़ी देर के लिए ये तीनों कानून वापिस हो जाए तो क्या किसानों की सारी पैदावार पर एम.एस.पी. के रेट मिलना शुरू हो जाएंगे। अभी तो कुल कृषि उपज का मात्र 6 प्रतिशत जो सरकार खरीदती है उसी पर एम.एस.पी. लागू है। निजी खरीद यथावत है। याने किसान संगठन भी बिलों की दृष्टि के माध्यम में केवल 6 प्रतिशत खरीद पर समर्थन मूल्य पाकर वापिस जाने को तैयार है। कान्टेक्ट फार्मिंग पहले से जारी है और पंजाब व हरियाणा के किसानों को भूलना नहीं चाहिए कि 1990 में उन्होंने पेप्सी कंपनी के साथ आलू उत्पादन के लिए कान्टेक्ट फार्मिंग का समझौता बहुत मामूली दर पर किया था अब अगर यह कानून वापिस हो जाए और पूर्व की स्थिति बहाल हो जाए तो क्या कान्टेक्ट फार्मिंग बंद हो जाएगी या कान्टेक्ट फार्मिंग से किसानों को एम.एस.पी. मिलने की गारंटी हो जाएगी। अतः केवल कानूनों को वापिस लेना किसानों की समस्या का हल नहीं है, किसान संगठनों को तो जो चार सुझाव ऊपर दिए गये है, उनके समावेश के लिए सरकार से आग्रह करना चाहिए और सरकार को किसानों की बात मान कर उन्हें स्वीकार करना चाहिए।"
रघु ठाकुर ने बताया कि, आँदोलन में जीत और हार की भावना मूल लक्ष्य के लिए घातक होती है जीत किसी पक्ष की हो वह घमण्ड पैदा करती है कतिपय मीडिया के हिस्सों में आँदोलन को गाँधीवादी बताया गया है वैसे भी हमारे देश में गाँधी की तुलना और उपाधि बड़े सस्ते और हल्के में बेच दी जाती है। गाँधी ने कभी भी समझौते के मार्ग बंद नही किए और संवाद और बहस भी बंद नहीं किए, परन्तु प्रचार तंत्र तो मालिकों के इशारे पर होता है, और वह दोनों तरफ समान रूप से सक्रिय है।
रघु ठाकुर ने कहा कि, "गैर राजनैतिक होने का जुमला एक बड़ा पाखंड है और सच्चाई तो यह है कि गैर राजनीति के जुमले के पीछे केवल और केवल राजनीति होती है। बस वह शब्दावरण में छिपी होती है। जिस प्रकार किसान संगठन राजनैतिक दलों से सहारा, सहयोग, खुराक हासिल कर गैर राजनैतिक है वही प्रयोग केन्द्र की सरकारी पार्टी भाजपा ने किया है। वे भारतीय किसान सम्मेलन के नाम से राज्यों में किसान सम्मेलन आयोजित करा रहे है, सरकारों के इशारे और साधनों पर अच्छे खासे जन समूह को लाया जायेगा और यह सिद्ध किया जाएगा कि देश का किसान इन्ही कानूनों को चाहता है। याने किसान संबंधी कानून को निरस्त करने से सम्बन्धित माँग के पीछे प्रतिपक्ष की सपा की राजनीति है। और कानून रहना चाहिए इसके पीछे भी सत्ता की राजनीति है। देश का किसान इन दो धड़ों में फांस दिया गया है। अब यह किसान संगठन और उनके नेताओं को तय करना है कि वह दलों और राजनीति के छिपे संदेश वाहक बनना चाहते है या फिर आजाद किसान नीति और आँदोलन चाहते है।"
रघु ठाकुर ने अंत में कहा कि, "मेरी राय तो यह है कि सरकार इन तीनों कानूनों पर देश में जनमत संग्रह कराये ताकि किसानों की राय से कानून बन सकें।"
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