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विशेष: हिन्दी संत कामिल बुल्के- जैसा मैंने उन्हें देखा!
विशेष: विशेष में प्रस्तुत है,
नवेन्दु उन्मेष की प्रस्तुति - हिन्दी संत कामिल बुल्के: जैसा मैंने उन्हें देखा!
एक बातचीत में हिन्दी संत कामिल बुल्के ने कहा था कि, जब बेल्जियम के एक स्कूल में विद्यार्थी था तब मैंने रामचरित मानस का एक श्लोक पढ़ा था, जिससे मैं बहुत प्रभावित हुआ। बाद में मैंने उस श्लोक से संबंधित पुस्तक और कवि के संबंध में विस्तृत जानकारी हासिल करने का संकल्प लिया।
बाबा बुल्के से मेरा परिचय कई वर्षों से था। विदेशी (यद्यपि उन्होंने भारतीय नागरिता प्राप्त कर ली थी) होने के बावजूद होने के बावजूद उनके जैसा हिन्दी समर्थक इस देश में शायद ही कोई रहा होगा। अंग्रेजी बोलना वह अपराध मानते थे।
उनका कहना था, अंग्रेजी बोलने वाले अपराधी को जितना भी कठोर दंड दिया जाये कम होगा। एक समारोह में बाबा बुल्के एक लड़के पर इसलिए बिगड़ गये थे कि उसने उन्हें गुड नाइट फादर कह दिया था। मैंने उनके मुंह से अंग्रेजी कभी नहीं सुनी।
बाबा हमेशा पुस्तकों के बीच रहते थे। उनका एक पुस्तकालय है जो पूरे झारखंड-बिहार में हिन्दी के ग्रंथों, काव्य, नाटक, कहानी, आलोचना साहित्यकी पुस्तकों का अनुपम संग्रह है।
उनके निधन के बाद यह पुस्तकालय बुल्के शोध संस्थान के नाम से जाना जाता है जिसे अब संत जेवियर कालेज, रांची के परिसर में स्थानांतरित कर दिया गया है।
वे अपने पास से हिन्दी प्रेमी छात्रों को पुस्तकें पढ़ने के लिए दिया करते थे। इस संदर्भ में एक रोचक किस्सा याद आता है-एक बार एक छात्रा से पुस्तकालय में उन्होंने पूछा- ‘तुम किस वर्ग में पढ़ती हो।‘
छात्रा ने उत्तर दिया ’-मैं एम.ए. की छात्रा हूं।‘
बाबा पूछ बैठे- ’ एम.ए. का क्या अर्थ होता है।‘
आप नहीं जानते फादर, एम.ए. का अर्थ है-मास्टर आफ आर्ट्स।
बाबा बोले फिर से बोलो-‘-मैं नहीं समझा।‘
छात्रा भांप गयी कि, अंग्रेजी में एमए कहने के कारण ही क्रुद्ध हो रहे हैं।
उसने अपने आपको सुधार कर उत्तर दिया ’-मैं स्नातकोत्तर वर्ग में पढ़ती हूं।‘ जब उसने स्नातकोत्तर कहा तब बाबा का चेहरा देखने लायक था।
छात्रा को समझाते हुए बोले-‘-तुम्हें शर्म नहीं आती, एक भारतीय होकर अंग्रेजी में बोलती हो। अपनी मातृभाषा का अपमान करती हो।‘
और, वह छात्रा- 'नहीं, फादर, नहीं फादर' करती रह गयी। यही नहीं वह छात्रा जो उनसे पुस्तक मांगने आयी थी, उसे बाबा ने देने से इनकार कर दिया था।
उनकी स्थिति को देखते हुए मैंने उनसे कहा था ’-बाबा आपको इतना क्रोध नहीं करना चाहिए क्योंकि आप दमें के मरीज हैं।‘
प्रश्न को टालते हुए उन्होंने कहा-‘-इस प्रसंग का दमें से क्या लेना-देना मुझे इस बात से बहुत दुख होता है कि हिन्दी पढ़ने वाले छात्र भी हिन्दी का आदर नहीं करते और अंग्रेजी शब्दों को प्रयोग करने में गर्व महसूस करते हैं।‘
बाबा बुल्के दिन के समय अपने पुस्तकालय के बगलवाले अध्ययन कक्ष में सो जाया करते थे। सोने के पहले एक तख्ती लगा देते जिस लिखा रहता ’मुझे कुर्सी हिलाकर जगाना।‘ वह हमेशा श्रवण यंत्र लगाते थे।
एक दिन मैं सुबह आठ बजे के लगभग उनके पास पहुंचा तो देखा कि वे कुर्सी पर सो रहे थे। यह देखकर मैंने बगल में रखी कुर्सी को जोर-जोर से हिलाना शुरू कर दिया। बहुत देर हो जाने के बाद भी बाबा जब नहीं जागे तब मुझे चिंता होने लगी। वहां किसी को नहीं पाकर मैं और भी असमंजस में पड़ गया। इतने में वह जाग गये और मुझे देख्कर चौक उठे। लगा डर गये हों।
क्या हुआ बाबा? मैं हूं नवेन्दु।
खुद को संभालते हुए बोले-नहीं, नहीं कुछ नहीं हुआ। यू ही चैंक गया।
वे थोड़ी सी आवाज होने पर डर जाया करते थे। शायद दमें का मरीज होने के कारण और कान से सुनाई नहीं देने के कारण इस तरह की डर की भावना उनमें पैदा हो गयी थी।
उनकी रामकथा एक अद्वितीय पुस्तक है। जिसे पढ़कर यह साफ पता चलता है कि, उन्होंने राम विषयक सामग्री का कितना गहन अध्ययन किया होगा।
उन्होंने अपने ग्रंथ में यह सिद्ध किया है कि बुद्ध और महावीर की कथाओं में भी रामकथा का कितना प्रभाव है।
मेरे विचार से राम कथा का ऐसा अध्येता विश्व में शायद ही कोई दूसरा हुआ हो। उन्होंने अंग्रेजी हिन्दी का एक अमूल्य शब्दकोष तैयार किया था।
हिन्दी आंदोलन का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा था, ‘हिन्दी हमारे देश की बहुरानी है और अंग्रेजी एक नौकरानी। देखना यह है कि एक नौकरानी कब तक हिन्दी के घर में रह सकती है। ‘
यह बात और है कि उनका देहावसान 17 अगस्त 1982 को दिल्ली में हुआ तथा अंतिम संस्कार भी वहां के निकोल्सन कब्रिस्तान में हुआ।
परंतु रांची हो या दिल्ली उनकी आत्मा भारत में ही है। वह कहा करते थे ’-मैं रामभक्त नहीं, बल्कि तुलसी भक्त हूं।
तुलसीदास रामभक्त थे। इसलिए उन्होंने रामकथा लिखी।‘ विदेशी होने के बावजूद कितने स्वदेशी थे बाबा कामिल बुल्के।
यह हिन्दी का गौरव ही था कि उसे बाबा बुल्के जैसा हिन्दी सेवक मिला।
आज भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं परंतु हिन्दी के लिए उनका त्याग हमारे लिए एक उदाहरण बन गया है।
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