विशेष: रंगभेद के खिलाफ आंदोलन: अश्वेत आंदोलन से संवाद और सुझाव: रघु ठाकुर
विशेष में प्रस्तुत है,
अमेरिका में "रंगभेद के खिलाफ आंदोलन" पर
आज के राजनैतिक पैगम्बर- समतामूलकसमाज की स्थापना के प्रति समर्पित-
महान समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतान्त्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रिय संरक्षक-
परमादरणीय रघु ठाकुर जी के वक्तव्य का मूल पाठ:
रंगभेद के खिलाफ आंदोलन: "अश्वेत आंदोलन से संवाद और सुझाव":
25 मई को अमेरिका में श्वेत पुलिस अधिकारी के द्वारा की गई अश्वेत जार्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद अमेरिका में लगभग 15 दिन भारी आगजनी और तोड़फोड़ हुई।
अश्वेत आंदोलन के समर्थन में यूरोप के कई देशों में भी प्रदर्शन हुए तोड़फोड़ की घटनाएं हुई। लंदन में भी अश्वेतो के पक्ष में जो प्रदर्शन हुए, वे भी उग्र और तोड़फोड़ वाले थे।अभी पुनःअमेरिका मे फिर एक अश्वेत की पुलिस गोली से मौत हो गई। इस घटना से अश्वेतो के शांत होते आंदोलन को फिर से हवा मिली। लंदन में एक नई घटना सामने आई कि, जो अश्वेत समर्थक आंदोलनकारी मूर्तियों की तोड़फोड़ कर रहे थे, उनके सामने मूर्ति बचाने वाले लोग भी आ गए। इस घटना का मैं इसलिए उल्लेख कर रहा हूँ कि, हिंसक और तोड़फोड़ करने वाले प्रदर्शनों के विरुद्ध भी एक समूह प्रतिक्रिया शुरू हो गई है।
मैं अश्वेत भाइयों के आंदोलन के पक्ष में हूं और रंगभेद के पूर्णतः खिलाफ हूँ। रंगभेद का व्यवहार अमानवीय है और एक प्रकार की आक्रामक मदमत्त अज्ञानता है। चमड़ी के रंग से योग्यता का कोई संबंध नहीं होता। योग्यता का संबंध तो बौद्धिक क्षमता और उसे मिलने वाले अवसर से होता है। नदी का पानी जब बाढ़ में बह जाता है तो उसका कोई प्रयोग समाज के लिए नहीं हो पाता, परंतु वह जब नहरों के माध्यम से सूखे खेत में पहुंच जाता है तो वही कृषि के लिए वरदान बन जाता है। इसी प्रकार मानव योग्यता या प्रतिभा का संबंध उस अवसर रूपी नहर के साथ है। अमेरिका की व्यवस्था में गोरे लोगों का सभी क्षेत्रों में शुरू से प्रभुत्व रहा है चाहे शिक्षा हो, सम्पत्ति हो शक्ति हो या सत्ता हो और इसकी वजह उनका गोरा होना है। कोई विशेष योग्य होना नहीं है, बल्कि उन्हें सत्ता के माध्यम से अवसर प्राप्त होना है।
पिछले लगभग 900 वर्षों में अमेरिकी व्यवस्था में कई बदलाव आए हैं परंतु यह बदलाव अभी तक अपने निर्णायक बिंदु तक नहीं पहुंच सके। जिनके हाथ व्यवस्था है, वह एक हाथ से समानता की ओर बढ़ने का निर्णय करते हैं और दूसरी ओर दूसरे हाथ से उनके कदमों को बढ़ने से रोकते हैं। यह केवल अमेरिका में ही नहीं बल्कि एक अर्थ में वैश्विक प्रवृत्ति है और दुनिया में सभी सरकारी समूह कमजोर समूह को कमजोर रखना चाहते हैं।अमेरिका में प्रिंसीपल आफ डायवर्सिटीज़ की नीति शुरू की गई थी। दशकों पहले से शुरू हुई यह नीति अभी तक मंजिल तक नहीं पहुंच सकी। श्वेत की औसत वार्षिक आय अश्वेत से लगभग 31 लाख रुपए ज्यादा होती है। नीचे के ओहदों पर भी ज्यादा वेतन मान पाने वाले ज्यादातर श्वेत ही होते हैं। अमेरिका की बहुराष्ट्रीय या कॉरर्पोरेट कंपनियों में मात्र चार अश्वेत कार्यपालक अधिकारी हैं और सच कहा जाए तो अमूमन अश्वेतों को गुलदस्ते के दिखावटी फूल के समान इस्तेमाल किया जाता है। यह चार मुख्य कार्यपालक अधिकारी भी इस लिए बनाए गए हैं ताकि अश्वेत बाहुल्य इलाकों के मजदूरों को कंपनियों में लाने या लगाने के लिए एक प्रकार का आकर्षण और अपनत्व की भावना का शोषण हो सके। जहां अश्वेत श्रमिको की आबादी ज्यादा होती हैं, वहां अश्वेत कार्यपालक अधिकारी हड़ताल या आंदोलन को रोकने या हल कराने में ज्यादा कारगर साबित होते हैं। अगर उन कंपनियों के शेयर पूंजी का आंकड़ा निकाला जाए जिनमें से यह चार कार्यपालक हैं, तो अश्वेतो के शेयर नाम मात्र के ही हैं।यानी यह भी एक श्वेत सत्ता की रणनीति है।
अभी कोरोना से अमेरिका मेंजिनकी मृत्यु हुई है उनमें लगभग तीन बटे चार यानी तीन चौथाई अश्वेत हैं और न्यूयॉर्क के अधिकांश श्वेत तो न्यूयॉर्क छोड़कर आसपास के उन समुद्री टापूओ पर पहुंच गए जिन्हें खरीदकर पहले से अपना उपनिवेश जैसा बनाया हुआ है। कमोवेश यही स्थिति समूची दुनिया की है। भारत में भी कोरोना संक्रमित और कोरोना से मृत लोगों की आर्थिक सामाजिक स्थिति का अगर विश्लेषण किया जाए तो इन संक्रमित या मृतकों में शायद ही कोई अरबपति हो। अमेरिकी श्वेत सत्ता ने हिंसक अश्वेत आंदोलन को कमजोर करने के लिए जून प्रथम सप्ताह में ही एक अश्वेत को सैन्य मुखिया बना दिया। ताकिअश्वेत विद्रोह थम जाए और अगर हिंसा को रोकने के लिए गोलियां चलाना पड़े तो उसके लिए अश्वेत हाथों को जिम्मेदार ठहराया जाए। ऐसा प्रयोग अमेरिका तब भी कर चुका है जब 9/11 के आतंकी हमले के बाद इस्लामिक देशों पर हमला करना था। तब भी एक अश्वेत को सेना का मुखिया और बाद में विदेश मंत्री बनाया था। हालांकि सफलता मिलने के बाद उन्हें दूध से मक्खी के समान फेंक दिया गया।
अश्वेतआंदोलनकारी मित्रों से भी मेरा कहना है कि हिंसा की स्याही जल्दी सूख जाती है ।और आज मुश्किल से 15 -20दिनों में हिंसक आंदोलन ठंडा पड़ गया। अहिंसा की धार कभी नहीं सूखती। उन्हें महात्मा गांधी से प्रेरणा लेना चाहिए और सीखना चाहिए कि महात्मा गांधी ने 21 वर्ष तक दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के खिलाफ होने वाले नस्लीय और रंगभेद के खिलाफ आंदोलन को जीवित रखा क्योंकि उनकी भाषा अहिंसा और प्रेम की थी, जिसमें घृणा और हिंसा का नाम मात्र भी नहीं था। घृणा व हिंसा के आधार पर स्थाई बदलाव नहीं हो सकता। दूसरे हिंसा के आंदोलन का लक्ष्य सीमित हो जाता है। अमेरिका में चल रहे जार्ज फ्लायड की हत्या के खिलाफ आंदोलन के परिणाम स्वरुप मान लो तो एक श्वेत अधिकारी को सजा हो गई तो यह नजीर तो बनेगी या कुछ भय पैदा करेगी क्या इससे रंगभेद या नस्ल भेद समाप्त हो सकेगा और क्या अमेरिका या दुनिया की स्वेत सत्ता या व्यवस्था बदल जाएगी।
मैं उनके आंदोलन को नकार नहीं रहा बल्कि उसे सलाम करता हूँ। उनका अभिनंदन करता हूँ कि उन्होंने अमेरिका और दुनिया में समाज में छुपी हुई गंदगी को सबके सामने ला दिया। परंतु इसके आगे क्या?- हालांकि अब कुछ स्वर पुलिस के अधिकार कम करने के उभरे हैं। कुछ राज्यों ने पुलिस बजट कुछ कम भी किया है पर संघीय बजट उस कमी को पूरा कर देगा। फिर पुलिस का नस्लवादी आपराधिक आचरण कोई कानून संगत नहीं है बल्कि वह तो क़ानूनों का उल्लंघन है। अतः इसके कोई दूरगामी परिणाम निकलेंगे कहना कठिन है।
अश्वेत आन्दोलन को मेरे निम्न सुझाव है...........
1. अश्वेत आंदोलनकारीयों मित्रों को अब संपत्ति के विशाल संग्रह के कारणों को खोजना होगा और उसके उपाय सोचना होंगे ।
बड़ी मशीन और बड़ी तकनीक संपत्ति के अपार संग्रहण का मुख्य कारक होती है। इसमें मशीन इतनी शक्तिमान हो जाती है कि वह केवल एक बटन दबाने से हजारों लाखों लोगों के बराबर उत्पादन कर देती है। इसी से बेरोजगारी जन्म लेती है ।पूंजीवाद पैदा होता है और आर्थिक विषमता पैदा होती है जो कालांतर में रंगभेद और नस्लभेद की व्यवस्था के लिए मजबूत पाया बन जाती है ।अगर अश्वेत आंदोलन अब उत्पादन के छोटे यंत्रों और उनके उत्पादन की खरीद की ओर बढ़ेगा तो श्वेत सत्ता चरमरा कर ढह जाएगी।
2. उन्हें श्वेत कंपनियों के तथा सभी कम्पनियों के विलासी उत्पादन के सामान का बहिष्कार करना चाहिए ।अमेरिका में चमड़ी के रंग को बदलने यानी काले रंग को गोरा करने के लिए जो क्रीम आदि का व्यापार है वह लाखों करोड़ रु का है। यानी काला रंग बदलकर गोरा बनने के लिए।क्या यह अपनी ही कौम या नस्ल का अपमान नहीं है?क्या यह हीन भावना नहीं है? बजाएं चमड़ी का रंग बदलने के बाह्य प्रयोगों के उन्हें असमानता के टापूओं को गिराकर समतल करना चाहिए। जिससे अंतर रंगीय विवाह बढ़े और गोरे काले के बजाय एक मिश्रित रंग की कौम या अमरीकी कौम तैयारहो सके।
3. सारी दुनिया में श्वेतो की आबादी जिसमें हम भारतीय भी शामिल हैं लगभग पांच साढेपांच अरब के आसपास होगीऔर श्वेत आवादी मुश्किल से ढाई अरब के आसपास। अगर एक बार महात्मा गांधी के दर्शन और डॉक्टर लोहिया के विश्व संसद के सपनों में रंग भर जाए तो समूची दुनिया में अश्वेत राज होगा। डॉ. लोहिया के सात क्रांतियों में आज से लगभग 60 वर्ष पहले दुनिया के लिए जो क्रांतियां बताई थी उनमें रंगभेद की समाप्ति आर्थिक समानता और सामाजिक समानता तो थी ही साथ में बालिग मताधिकार के द्वारा चुनी गई विश्व संसद की कल्पना भी थी।
अगर अश्वेत आंदोलन विश्व संसद के लक्ष्य को अपने आंदोलन का लक्ष्य बनाए तो यह लक्ष्य और इसका आंदोलन ज्यादा मजबूत हो सकेगा।
4. अश्वेत आंदोलन करने वाले मित्रों और इसके साथ-साथ समूची दुनिया में समता चाहने वालों मित्रों और आंदोलनकारियों से मैं अपील करना चाहूंगा कि वे हिंसा और घृणा को त्याग दें। हिंसा और घृणा पर आधारित आंदोलन अल्प जीवी होते हैं ।अगर वे महात्मा गांधी- मार्टिन लूथर किंग- नेल्सन मंडेला और डॉक्टर लोहिया के रास्ते को अपनाएं तो आंदोलन दीर्घ जीवी भी बनेगा और जल्दी सफल होगा ।
मुझे उम्मीद है कि अश्वेत आंदोलन और समूची दुनिया के विषमता के खिलाफ लड़े जाने वाले सभी आंदोलनों के मित्र इन मुद्दों पर विमर्श शुरू करेंगे और दुनिया में एक नए विश्व समता का आंदोलन शुरू करेंगे तथा नई बराबरी की दुनिया के निर्माण केआंदोलनों के सहभागी बनें गे। जिसमें अहिंसक सिविल नाफरमानी का ही प्रयोग होगा। यह आन्दोलन आई कान्ट ब्रीद के बजाय अब दी वर्ल्ड कान्ट ब्रीद बने।
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