COVID-19 - विशेष: कोरोना निजीकरण का बहाना न बने: रघुठाकुर
"विशेष" में प्रस्तुत है:
ख्यातिनाम गांधीवादी - महान समाजवादी चिंतक व विचारक तथा शहीद-ए-आजम भगत सिंह एवं डॉ. लोहिया के सैद्धांतिक लक्ष्य, जो एक ऐसे 'समतामूलक समाज' की स्थापना, जिसमें "कोई व्यक्ति किसी का शोषण न कर सके और किसी प्रकार का अप्राकृतिक अथवा अमानवीय विभेद न हो", को पूर्ण करने हेतु समर्पित लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के संस्थापक व राष्ट्रीय संरक्षक- रघु ठाकुर के लेख- विशेष - COVID-19: कोरोना के बाद की दुनिया कैसी होगी: रघुठाकुर की प्रस्तुति के बाद "रघु ठाकुर का वक्तव्य":-
विशेष: कोरोना निजीकरण का बहाना न बने
हम और आप सभी मध्यमवर्गीय लोगों ने कभी ना कभी सुबह सब्जी बेचने वालों की आवाज सुनी होगी और देखा भी होगा। कोरोना के कारण शुरू हुए लॉक डाउन के 15 -20 दिन के बाद एक नया परिवर्तन इसमें दिख रहा है, जो कई बातों का संकेत है।
पहले सब्जी बेचने वाले ठेले पर निकलते थे और अमूमन उनकी उम्र सीमा 20 वर्ष के ऊपर होती थी। परंतु लॉक डाउन का एक प्रभाव यह हुआ है कि, सात - आठ वर्ष के बच्चे भी दो-तीन इकट्ठे होकर हाथ ठेला खींचकर सब्जी बेच रहे हैं और कुछ ज्यादा उम्र वाले लोग साइकिलों पर, ठेलों पर सब्जी भरकर सब्जी बेच रहे हैं।
पहले जहां सब्जी के ठेले वाले सुबह शाम निकलते थे, परन्तु अब लगभग सारा दिन सब्जी वालों का तांता लगा रहता है। थोड़ी बारीकी से पता करने पर मालूम पड़ा कि, यह लोग स्थाई सब्जी बेचने वाले नहीं हैं बल्कि जिन के धंधे लाक डाउन में बंद हो चुके हैं, घर पर खाने की व्यवस्था नहीं है, वे या उनके बच्चे लाचार होकर सब्जी बेचने को निकले हैं। माता-पिता ने बच्चों को भी जो उनकी पढ़ने की उम्र थी उनको पेट की लाचारी में काम में लगाया है और पूंजी के अभाव में कोई एक खास किस्म की सब्जी उधार में लेकर बेचने निकल रहे हैं। जिस प्रकार पहले रेलवे प्लेटफार्म पर बच्चे अखबार या अन्य सामान ठेकेदारों से लेकर बेचते थे कि जो बिक गए वह ठीक बकाया वापस कर दिया। यही स्थिति इस समय इन सब्जी बेचने वालों के रूप में बच्चों की नजर आ रही है।
एक तरफ यह स्थिति सुधरती नजर नहीं आती। 2 दिन का लॉकडाउन और बढ़ा दिया है तथा जो रियायतें दी जा रही हैं वे भी अभी तक बड़े लोगों के लिए कारखानेदारों के लिए हैं, परंतु गरीब या सामान्य वर्ग के लिए नहीं है। चाय वाले, पान वाले, सैलून वाले, कोचिंग वाले, जिम वाले और ऐसे ही लाखों उन लोगों के लिए जिन्हें रोज कमाते हैं रोज खाना है और जिनका धंधा भी आम गरीबों के भरोसे चलता है। उनके लिए कोई रियायत नजर नहीं आती। बाल श्रमिक कानून पहले भी प्रभावी नहीं था परंतु अब तो पूर्णतः अप्रभावी हो गया है। मानवीय उदारता की सीमाएं भी अब सिकुड़ रही है। पानी पिलाने वाले कुओं का स्त्रोत स्वतः सूख गया है।
कुछ बड़ी संस्थाएं कुछ सरकारी प्रयास भले ही चलते रहें परन्तु आम आदमी के मन की मानवता की धारा अर्थ अभाव में सूखने लगी है। मेरे पड़ोस में एक नौजवान एक जिम चला कर अपना परिवार चला रहा था। 50-100 बच्चे उसके यहां जिम के लिए आते थे, रोजी रोटी चल रही थी। कल उसने मेरे सहयोगी धर्मेंद्र राणा को बताया कि, "अपनी क्षमता भर 20 से 25 दिन मैंने अपने आसपास के गरीबों और लाचारों को अपनी तरफ से खाना खिलाया परन्तु अब मेरी क्षमता खत्म हो चुकी है। अब तो मेरे ही खाने के लाले पड़े हैं। मैं दूसरों को क्या खिलाऊंगा।"
यह एक व्यक्ति की पीड़ा नहीं है, बल्कि लाखों अल्पपूंजी वाले स्वरोजगारवालों की पीड़ा है। आज तो भरी दुपहरी में एक बुजुर्ग महिला पापड़ बेच रही थी। उनका बेटा भोपाल में पढ़ता है। उसके पास आई थी और लाॅकडाउन हो गया। यहीं बंद हो गई। पैसे खत्म हो गए तो पड़ोसी दुकानदार से पापड़ लेकर बेचने लगी ताकि कुछ पैसे मिल जाएं व खाना चल पाए।
भारत सरकार के या राज्य सरकारों के पैकेज में अभी तक इन लोगों के लिए पैकेज पढ़ने और सुनने में नहीं आया। प्रधानमंत्री स्तर पर या सरकारी स्तर पर जब भी चर्चा होती है तो बड़े उद्योग जगत के लिए क्या रियायते मिले, इस तक सीमित रहती हैं या थोड़ी बहुत उन बिल्कुल ही गरीब लोगों तक जिन्हें 1000 या 500 की पेंशन में गुजारा करना पड़ता था। उनकी दो-तीन माह की सामाजिक पेंशन की 1000 या 1500 की राशि अगर उनके खातों में पहुंच जाए तो वक्ती तसल्ली हो सकती है परंतु यह हल नहीं है। और तो छोड़िए देश के 1 से 2 करोड़ भिखारी जिनके ना कोई खाते हैं, अपवाद छोड़कर, ना कोई अन्य रोजगार हैं, उन्हें सरकार कैसे मदद पहुंचाएंगी। एक नौजवान जो कुछ दिनों पहले तक चाय का ठेला लगाता था, दिन भर में 200 से 300 कमा लेता था, अब बेरोजगार है। पिछले दिनों मालूम चला कि, उसने देसी शराब गुटखा बेचना शुरू कर दिया। वही पेट भरने का जरिया बचा है। उससे पूछा कि, "तुम यह क्यों करते हो तो, उसने कहा कि एक चाय वाले ने दूसरे चायवाले का धंधा ही बंद करा दिया और क्या करूं?"
लॉकडाउन का प्रभाव आने वाले एक डेढ़ वर्ष तक देश के सामान्य व्यक्ति को व्यवस्थित नहीं होने देगा। लाखों महिलायें जो शादी विवाह में सिर पर हांडा रखकर अपना परिवार चलाती थीं, शादी घरों और टेंट हाउसों के कामवाले आज भूखमरी के शिकार है। इस मौसम में लाखों मजदूर तेंदूपत्ता व वनोपज संग्रह कर अपना पेट भरते थे, अब भूखमरी की गोद में जाने वाले हैं। पत्ता तो खराब होगा ही, पत्ता ठेकेदार भी कर्ज में डूब रहे हैं। दिल्ली की सरकारों ने कहने को मनरेगा के काम के नाम पर कुछ राशियां भेजी हैं, परंतु वे ऊंट के मुंह में जीरा के समान हैं। छत्तीसगढ़ (छ.ग.) से लगभग तेरह लाख लोग धान तैयार होने के बाद यानी लगभग दिसंबर माह से काम के लिए बाहर महानगरों में जाते थे। वे चार या पांच माह बाद मजदूरी कर वापस बारिश के पहले लौटते थे। क्योंकि वह धान की बुआई का समय होता है। अब लगभग 2 माह से बड़े-बड़े महानगरों में कैद हैं। जनवरी-फरवरी में जो कमाया था, वह इस दो माह में घर में बैठ कर खा लिया। अब वापस आने को भी पैसा नहीं है।भारत सरकार ने बड़ी लाचारी में 1 मई को कुछ विशेष मजदूर रेलगाड़ियां चलाने की घोषणा की है। लाचारी में इसलिए कह रहा हूं कि 29 अप्रैल को देश के गृहमंत्री ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि रेल गाड़ियां नहीं चलेंगी, बसों से ले आएं। परंतु जब 30 तारीख को देश के 7राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने और यहां तक कि बिहार के भाजपा के उपमुख्यमंत्री श्री सुशील मोदी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि, "बसों से लाने में तो कई माह लग जाएंगे, रेलगाड़ी ही रास्ता है", तब इस विरोध को समझ कर और आगामी बिहार चुनाव को ध्यान में रखकर गृह मंत्री जी ने पलटी मारी कि विशेष मजदूर रेलगाड़ियां नॉनस्टॉप चलाई जाएंगी। हालांकि यह मांग मैं पिछले 40 दिन से सोशल मीडिया, लेखों, टीबी चेनल व अन्य माध्यमों से कर रहा था। इसमें भी उन्होंने अभी तक निष्पक्षता नहीं बरती है और दलीय और एनडीए के चश्मे से रेलों को चलाने का निर्णय कर रहे हैं। आने वाले लोगों से राज्य सरकारें किराया भी ले रही हैं, साथ ही एक फार्म भरवाती हैं, उसका 150 व 250 रुपया अलग। जहाँ से चलेंगे वहाँ की सरकारें रेल तक छोड़ने का भाड़ा वसूल रही है। आज ही मुंबई में फंसे एक मजदूर, जो डबरा तहसील के रहने वाले हैं ने, मुझे फोन से यह जानकारी दी। एक बड़ा प्रभाव खुदरा व्यापारी के ऊपर पडना है, जिससे वस्तुतः कई करोड़ लोग प्रभावित होंगे। इनमें भी ग्रामीण और कस्बाई ज्यादा प्रभावित होंगे। जिस योजना पूर्वक सरकार ने ऑनलाइन ट्रेडिंग और होम डिलीवरी की शुरुआत की है, उसका प्रभाव शहरी खुदरा और थोक व्यापारियों पर भी पड़ना शुरू हो गया है। क्योंकि मॉल या विदेशी कंपनी वाले सीधे उत्पादक से सामान लेते हैं, जो उन्हें सस्ता पड़ता है। अब उनकी सीधी पहुंच फुटकर दुकानदारों तथा मध्य और उच्च मध्यमवर्ग तक हो गई है। उनका माल उपभोक्ता को तुलनात्मक रूप से सस्ता मिलता है। उनके पास वितरण के साधन भी बहुत ज्यादा हैं और फुटकर व्यापारी व आम ग्राहक इससे सीधे प्रभावित होंगे।
सोशल डिस्टेंसिंग के नाम पर जाना-आना, 6 फुट दूर गोले में, धूप फिर बारिश में खड़े रहकर कष्ट सहना व समय की बर्बादी अलग।
शहरी और महानगरी आम उपभोक्ता भी डिजिटलाइजेशन होने का प्रयास करेगा तथा होम डिलीवरी चाहेगा। उसे सस्ता और घर पर सामान मिलेगा। नगरों के छोटे दुकानदार भी होम डिलीवरी चाहेंगे। सीधा सस्ते दर पर दुकान में माल पहुंच जाएगा ना ऑटो, ना ठेला न जाने की परेशानी ना पास न परमिट। शहरी कर्मचारी उपभोक्ता भले ही उसकी क्षमता कम हो, परंतु जीने की लाचारी के लिए उसे खरीदी करना ही होगी, परंतु ग्रामीण उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति बुरी तरह प्रभावित हुई है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार सारे देश के अप्रवासी मजदूर जिनकी सरकार के अनुसार दर्ज संख्या 53 लाख है, पर वास्तव में जिनकी संख्या 1 करोड़ से अधिक है, इस बार शहरों से कमा कर लाने के बजाय लुट - पिटकर आये हैं। ये जब महानगरों से वापस लौटते थे तो अपने घर परिवार, नाते - रिश्तेदारो के लिए भी बचाए हुए पैसे से यथाशक्ति सामान लेकर आते थे और अंततः यह सामान महानगरों के व्यापारी ही तो बेचते थे। इस बार एक मोटे अनुमान के हिसाब से 4-5 हजार करोड़ की बिक्री की कमी महानगरों के थोक विक्रेताओं की हो गई है। न खरीदने को पैसे हैं, ना ले जाने का साधन हैं। जब खुद ही सैकड़ों किलोमीटर चलने को लाचार हैं, तो कौन सामान खरीदेगा और कहां ले जाएगा। यह मजदूर इतने पीड़ित हो चुके हैं कि, अब जल्दी दिल्ली लौटने वाले नहीं हैं। हालांकि प्रधानमंत्री जी के समर्थक राजनीतिक दान-दाताओं के दबाव में केंद्र सरकार ने शहरों से बाहर निर्णय कर दिया कि, महानगरों से बाहर के कारखाने खोल सकते हैं। आखिर महानगरों के बड़े-बड़े उद्योगपतियों से ही भाजपा की राजनीति चलती है।
आरबीआई के पूर्व गवर्नर ने यह सुझाव दिया है कि, गरीबों की मदद के लिए 65 हजार करोड़ रुपए सरकार को खर्च करना चाहिए। उनका सुझाव ऊपरी तौर पर तो सभी को अच्छा लगेगा और जब गरीब का नाम जुड़ा है तो भले ही मन से ना सही परंतु शब्दों में सभी का समर्थन मिलेगा।
हालांकि इससे गरीबों के लिए वास्तव में कितनी मदद होगी और उसके क्या प्रभाव होंगे यह विचारणीय हैं। मैं श्री राजन की शैक्षणिक योग्यता उनके प्रचलित अर्थशास्त्र के ज्ञान और उनकी नियत पर कोई संदेह नहीं कर रहा हूं परन्तु एक और भी जमीनी पक्ष है जो आमतौर पर बौद्धिक अर्थशास्त्र की दृष्टि से छूट जाता है। मान लीजिए 65000 करोड रू. देश के 30 करोड़ गरीबी की सीमा रेखा के नीचे वाले लोगों को बांट दिया जाए तो औसतन एक व्यक्ति को 2200 के आसपास मिल जाएगा। यह पैसा किसी ना किसी रूप में बाजार में आएगा। इतनी राशि से मान लें कि एक गरीबी रेखा के नीचे वाले का 1 माह का खर्च निकल जाएगा तो क्या 1 माह के बाद संकट नहीं रहेगा। दूसरे 2 -3 हजार की पूंजी से कोई व्यक्ति अपने पैर पर खड़ा नहीं हो सकता है ।
मैं मान सकता हूं कि, इस 65000 करोड का 30% दुकानदारों को मुनाफे के रूप में मिल सकता है यानी लगभग 10 से 15 हजार करोड रुपया देश के दो से तीन करोड़ व्यापारियों के पास पहुंचेगा यानी औसतन एक व्यापारी के पास 5-6 हजार रु का लाभ, तो क्या इतन राशि से फुटकर व्यापारी का जीवन चल जाएगा। हां यह हो सकता है कि, अगर गरीबों को मदद भारत सरकार ने एक साल बाद चुनाव के पहले दी तो सरकार को चुनाव जीतने में जरूर सहयोग मिल जाएगा। अगर चुनाव के पहले 5-5 हजार रूपये भी लोगों के खाते में पहुंच गए तो सरकार आराम से 15 से 20% वोट ज्यादा पाएगी। गरीब दो-तीन माह के बाद फिर ज्यों का त्यों गरीब हो जाएगा, पर सरकार के 5 वर्ष पक्के हो जाएंगे। दूसरी तरफ सरकार बड़े बड़े लोगों को जो सुविधाएं दे रही है, वह आर्थिक अपराध भी छुप जाएंगे। 68500 करोड़ रूपए मेहुल चैकसी जैसे लोगों का पैसा राइट ऑफ यानी बट्टे खाते में डाल दिया है। श्री राहुल गांधी ने इस सवाल को तकनीकी रूप से नहीं छेड़ा जिसका लाभ सरकार ने उठा लिया। श्री राहुल ने इसे कर्ज माफी कहा जब कि अर्थशास्त्र की तकनीकी भाषा में कर्ज माफी के लिए वेवर और बट्टे खाते के लिए राइट ऑफ शब्द का प्रयोग किया जाता है। बट्टे खाते में भले ही सीधी माफी ना हो वसूली के प्रयास लायक माना जाता हो परंतु कुल मिलाकर यह कर्जमाफी की ओर जाने वाला मार्ग।
लॉकडाउन के खबरों के बीच एक बड़ी खबर दब गई कि, भारत सरकार ने देश के छः हवाई अड्डों को निजी हाथों में देने का निर्णय कर लिया तथा 3 माह में टेंडर प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। इसके लिए कई तर्क दिए हैं कि, इस कदम से हवाई यात्रा का समय और एयरलाइंस की लागत कम हो जाएगी। यात्रा का समय तो विमानों की गति तय करती है, ना कि मालिक। बल्कि अनुभव यह है कि निजी विमान कंपनियां एक विमान को पांच-पांच रूट पर चलाती हैं, जिससे विमान घंटों लेट होते हैं। लागत खर्च इससे कम कैसे हो जाएगा, बल्कि यात्रा की अवधि व खर्च बढ़ेगा।यात्रियों की परेशानी बढ़ेगी सुविधाएं कम होंगी और लूट बढेगी। जनता का बैंकों का पैसा विमान कंपनियां डुबायेंगी। क्या हम लोग कुछ ही माह पहले श्री गोयल के जेट एयरवेज की घटना को भूल गए? इसी निजी कंपनी ने कुल मिलाकर देश की गरीब जनता का बैंक ऋण और अन्य प्रकार से लगभग 20000 करोड रुपए बर्बाद कर दिया।
फिर ऑनलाइन ट्रेडिंग का अर्थ क्या है, यह भी जान लेना चाहिए। इस समय जब सारी दुनिया में कोरोना से आर्थिक गतिविधियां प्रभावित है, लोग कह रहे हैं कि अमेरिका बर्बाद हो गया तब अमेरिका के कैलिफोर्निया की एप्पल कंपनी ने 3 माह में बिक्री कुछ कम होने के बाद भी मुनाफा 1% ज्यादा कमाया है और 3 माह में रू 436000 करोड़ यानी औसतन 1 माह में रू 113000 करोड़ का मुनाफा कमाया है। गूगल और फेसबुक ने भी इसी बीच लाखों करोड़ रु का मुनाफा कमाया है। फेसबुक ने तो मुकेश अंबानी के जिओ के 10% शेयर खरीद लिए हैं। जब दुनिया की सरकारें और लोग घाटे में हैं जाते हैं तो दुनिया का पूंजीवाद तरक्की करता है।
मैं भारत सरकार को सुझाव देना चाहूंगा कि -
रघु ठाकुर
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