विशेष: गुरुदेव और शिक्षा के प्रश्न!
विशेष : विशेष में प्रस्तुत है, फेसबुक से श्री जयंत सिंह तोमर द्वारा प्रस्तुत -
"गुरुदेव और शिक्षा के प्रश्न"
श्री जयंत सिंह तोमर अपनी प्रस्तुति में लिखते हैं कि, रवीन्द्रनाथ ठाकुर के लिए कोई जरूरी नहीं था कि वे एक विद्यालय शुरू करते ही। जैसे अन्य बारह भाई-बहनों का जीवन जमीदारी से व्यतीत हो रहा था, उनका भी हो ही जाता।
उनके पिता की इच्छा थी कि, शांतिनिकेतन में जो आश्रम और उपासना स्थल तैयार हुआ है वहाँ एक विद्यालय भी प्रारंभ हो।
सबसे पहले भाई बालेन्द्रनाथ ने स्कूल में रुचि ली थी, लेकिन बहुत कम उम्र में उनके देहांत के बाद रवीन्द्रनाथ ने स्कूल को देखना शुरू किया।
स्कूल में रवीन्द्रनाथ की रुचि का विशेष कारण यह था कि, लगभग एक सौ बीस साल पहले जब यह स्कूल शुरू हुआ उससे पहले वे 'शिक्षा का हेरफेर' नाम से एक निबंध लिख चुके थे, जिसमें उस समय की शिक्षा की विसंगतियों को रेखांकित किया था।
रवीन्द्रनाथ को यह बात खटकती रही कि शिक्षा से 'रस' और 'आनंद' का तत्व गायब है। इसीलिये शांति-निकेतन में उन्होंने संगीत, नृत्य, चित्रकला और साहित्य चर्चा को पाठ्यक्रम और दैनंदिन जीवन का अनिवार्य अंग बनाया।
उन्होंने ग्रामीण विद्यार्थियों के लिए 'शिक्षासत्र' के नाम से एक अलग स्कूल बनाया। गांवों की उन्नति के लिए लियोनार्ड एमहर्स्ट की मदद से 'श्रीनिकेतन' बनाया।
यह समझना भूल होगी कि, रवीन्द्रनाथ अपने नये प्रयोगों से संतुष्ट और प्रसन्न थे। बल्कि हर दस - पंद्रह साल के अंतराल में वे खिन्न, निराश और दुखी ही हुए।
वे अध्यापकों से कहते थे कि, आप सबने परीक्षा का तंत्र विकसित करके नई कोपलों को मुरझा देने का इंतजाम किया है, उनके भीतर के आनंद के स्रोत को सुखा दिया है।
पर अध्यापक भी क्या करते? एक समय के बाद तो सरकारी नियम कायदों के हिसाब से अपनी शिक्षा को मान्यता दिलानी ही है। आप जीवन में कितना भी रस और आनंद घोलिये, पढ़ाई को एक कागज के टुकड़े के जरिये मान्यता तो दिलानी ही पड़ती है अन्यथा उस 'सिंहद्वार' में प्रवेश ही नहीं मिलेगा।
रवीन्द्रनाथ को जब तक नोबल पुरस्कार नहीं मिला था, तब तक बारह साल स्कूल किस तरह चला। इसका बड़ा प्रामाणिक वर्णन शांति-निकेतन के अध्यापक ब्रतीन चट्टोपाध्याय की किताब - "Bursting pods: life and time of santiniketan school" में दर्ज है। इसी तरह विश्वभारती से छपी किताब "The common pursuit" में 1952 से लेकर 1993 तक के दीक्षांत भाषण के साथ-साथ सव्यसाची भट्टाचार्य का लिखा एक विस्तृत नोट है जो बताता है कि कैसे चार अलग-अलग कालखंड में रवीन्द्रनाथ अपने ही प्रयोगों से खिन्न और निराश होते चले गए।
शुरू - शुरू में स्कूल चलाने के लिए रवीन्द्रनाथ को अपनी पत्नी मृणालिनी देवी के गहने बेचने पड़े। चालीस साल लगातार अपने सपनों की संस्था को चलाने के लिए देश और विदेश में हाथ पसारने पड़े और अंत में थक हारकर महात्मा गांधी से सन् 1940 में कहा कि, "विश्वभारती ऐसा जहाज है जो उनके जीवन का सर्वश्रेष्ठ ढोकर लिए जा रहा है, लेकिन यह संस्था चलाने का सामर्थ्य अब उनमें बचा नहीं है।"
विश्वभारती से प्रकाशित किताब - 'Makers of a mission' में उन सभी अध्यापको का संक्षिप्त विवरण है जो सन 1901 से लेकर 1941 तक अलग-अलग समय में रवीन्द्रनाथ के सहयोगी रहे। इनमें से अधिकांश ऐसे थे जो रवीन्द्रनाथ के स्वप्न को जीते थे। धुरंधर इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार और रेवाचांद माखीजानी जैसे मिशनरी स्कूल में विश्वास रखने वाले लोग भी थे जो अंत तक रवीन्द्रनाथ के शिक्षा दर्शन को समझ ही नहीं पाये।
दुनिया में दो कवि लेखक हुए रवीन्द्रनाथ और लिओ टालस्टाय जिन्होंने अपने स्कूल भी खोले। टालस्टाय का 'यास्नाया पोल्याना' शिक्षा का एक महत्वपूर्ण प्रयोग रहा।
रवीन्द्रनाथ के शिक्षा के अभिनव प्रयोग को जब 120 साल हो रहे हैं तब बहुत से प्रश्न हमारे सामने मुंह बांये खड़े हैं:
पहला, तो यही कि, क्या ऐसी शिक्षा व्यवस्था को हम सब जगह लागू कर पायेंगे जिसमें जीवन का रस और आनंद हो?-
दूसरा, यह कि क्या शिक्षा में ऐसे लोग आयेंगे, जो यह मानेंगे कि दुनिया के सारे आकर्षण उनके काम के आगे फीके हैं?-
तीसरा, क्या समाज, सत्ता और व्यवस्था से अध्यापक को उसका प्राप्य सम्मान और आदर मिलेगा, जिससे उसके मन में आत्म-सम्मान पैदा हो सके, कुंठा से उबरे?-
चौथा, वह कौन सा दिन होगा जब सम्पत्ति और रुतबे से परे लोग सबसे पहले अपने शिक्षक से मिलने के लिए दौडेंगे?-
पांचवा, क्या वह दिन आयेगा जब शिक्षा के सच्चे केन्द्र को किसी की मान्यता की जरूरत नहीं पड़ेगी और विद्यार्थी यहाँ आकर जीवन के रस और आनंद से सिंचित होंगे?-
और सबसे बड़ा सवाल यह कि, क्या अभिभावक और समाज ऐसी शिक्षा के लिए तैयार हैं?-
जयंत सिंह तोमर
(साभार- जयंत सिंह तोमर, फेसबुक से)
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