विशेष: महावीर और राजनीति के महावीर में कोई जोड़ नहीं: सचिन कुमार जैन
विशेष में प्रस्तुत है, महावीर जयंती पर सचिन कुमार जैन की विशेष प्रस्तुति:
महावीर और राजनीति के महावीर में कोई जोड़ नहीं है. हम जितनी भौतिक-आर्थिक प्रगति कर रहे हैं, उतने की अमानवीय और विद्वेषी होते जा रहे हैं। आपके भीतर कितनी हिंसा भरी है और आप हर पल कितनी हिंसा कर रहे हैं, यह जान लेना बहुत आसान है, किन्तु बहुत भयानक भी।
सच तो यह है कि महावीर का चित्र “फारवर्ड” नहीं “इनवर्ड” करने की जरूरत है।
महावीर भीतर जाने के रास्ते का नाम है, इस रास्ते पर चलने के लिए आडम्बरों, वस्तुओं, रंग-रोगन की कोई जरूरत नहीं होती। कम से कम महावीर ने तो यही कहा था।
कुछ बुनियादी बातें समझ लेना जरूरी है। महावीर वस्तुतः रचयिता, संरक्षण और विध्वंसक के रूप में ईश्वर की आवधारणा को खारिज करते हैं और उन्होंने कहा था कि, देवी-देवताओं की आराधना के पीछे का मकसद केवल और केवल शक्ति और संपत्ति की प्राप्ति होता है। फिर भी हम पूजाएँ करते हैं और तमाम कर्मकांड करते हैं, क्योंकि यह माना जाता है कि समाज में धर्म को बनाए रखने के लिए भय और लालच का पालन-पोषण जरूरी है।
जितनी ज्यादा प्रगति, उतना ही ज्यादा अर्थों का ह्रास।
जितनी ज्यादा भौतिक प्रगति, उतनी ही हिंसा का विस्तार. नहीं, जितनी प्रगति, उससे कहीं ज्यादा दुर्गति।
बहुत से लोग महावीर जयंती की शुभकामनाओं के सन्देश भेज रहे हैं। कईयों में लिखा हुआ है “अहिंसा परमो धर्मः”; भेजने वालों के लिए तो पता नहीं, पर मुझे मिलने वाला हर सन्देश सोचने के लिए मजबूर करता है कि, आखिर ये अहिंसा क्या है?
बहुत संशय में हूँ, दुविधा में भी हूँ और आखिर में बैचेन हो कर थक जाता हूँ। मैं खुद को देखना शुरू करता हूँ, और फिर पाता हूँ कि जब मैं एक कागज़ को भी फाड़ता हूँ, तो भीतर कहीं कुछ दुखता है। कागज़ का भी तो एक रूप और अस्तित्व होता है। जब मैं उसे फाड़ देता हूँ, तो उससे उसका स्वरुप छिन जाता है।
एक मजदूर दिन भर श्रम करता है, किन्तु उसके पारिश्रमिक में कमी कर देना या उसके श्रम के एवज में उसे सुरक्षा न देना भी तो हिंसा ही है। वृक्ष की शाखा काटना भी तो हिंसा ही है। जब मैं किसी पत्थर के टुकड़े को भी अपने पैर से ठोकर मारता हूँ, तो भीतर कहीं कुछ दुखता है। मुझे लगता है कि मैंने उस पत्थर की गरिमा को ठेस तो पहुंचाई है। इसी पत्थर में से तो हम महावीर की प्रतिमा तराश लेते हैं, उसे पूजते हैं। हम यह मानते हैं कि कुछ क्रियाएं गढ़ कर हम किसी पत्थर को महावीर की प्रतिमा में सक्रिय करते हैं?
मुझे तो यह भ्रम ही लगता है। महावीर कोई व्यक्ति या मूर्ति नहीं है; वह तो एक अहसास भर है। उसी अहसास को सिद्ध कर लेने, उसे महसूस कर लेने की क्षमता को हासिल कर लेने का नाम “साधना” है।
हम सब दूसरों को ही संदेश देते हैं, नेता आदि भी देश को बताते हैं कि महावीर ने क्या सन्देश दिया है; जबकि मूल बात तो यह है कि महावीर नीति तो खुद को सन्देश देने का आह्वान करती है।
ऐसे संगठन, जो हथियारों की पूजा-अर्चना करते हैं, वे क्या सन्देश देते हैं? क्या एक हाथों में तलवार, लाठी या बन्दूक लेकर महावीर” के सिद्धांतों या अहिंसा की बात की जा सकती है? वैसे तो नहीं की जा सकती, लेकिन जब राज चरित्र निकृष्टतम स्तर पर होता है, तब बहुत आत्मविश्वास से ऐसा किया जा सकता है।
जो खुद को सन्देश दिए बिना, देश-दुनिया को महावीर का सन्देश सिखा रहा है, वह सबसे खतरनाक व्यक्ति या समूह है। दुनिया में हथियारों के नित नए कारखाने लगाने वाले, महावीर पर गांधी के नाम से सन्देश दे रहे हैं। जो लोग भूख से मरते लोगों और अपने घर पहुँचने के लिए सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चलते हैं और रास्ते में दम तोड़ते जाते हैं, पर व्यवस्था उनकी पीड़ा पर मौन रहती है, और व्यवस्थापक महावीर के नाम का सन्देश प्रसारित कर रहा होता है। पूरी दुनिया को पता होता है कि व्यवस्थापक के भीतर हिंसा भरी हुई है। उसका महावीर से कोई सरोकार नहीं है, फिर भी भक्तिभाव से वह आतताई द्वारा महावीर के नाम के सन्देश को ग्रहण करती है, यानी समाज महावीर को विस्थापित कर चुका है!
ज़रा सोचिये, कि क्या अहिंसक होने की कोई दर या प्रतिशत हो सकता है? अगर मैं कहूँ कि मैं ९५ प्रतिशत अहिंसक हूँ और केवल ५ प्रतिशत हिंसक, तो चलेगा क्या? यानी यदि कोई मुझे गाली देगा, तब ही मैं हिंसा करता हूँ, वरना नहीं! यदि कोई मेरे धार्मिक स्थल को नुक्सान पहुंचाएगा, तब ही मैं ह्त्या करूंगा।
क्या घटना के कारणों में जाकर उन्हें सुलझाने के भी कोई रास्ते महावीर ने सुझाए हैं? महावीर तो कहते हैं कि कर्म ही हिंसा है। यदि कुछ गलत हो जाए तो उस पर कोई भाव पैदा ही नहीं होना चहिये, तभी हिंसा को समाप्त किया जा सकता है।
मुझे लगता है कि, हिंसा और अहिंसा दोनों में ही मिलावट नहीं हो सकती है। या तो हिंसा है और या फिर अहिंसा है। मुझे अपने परिवार में अपने वरिष्ठ परिजन का वाकया कभी नहीं भूलता। वे बहुत धर्म-परायण थे। बहुत सुबह ध्यान-साधना में बैठ जाते थे. उस दौरान उन पर मच्छर बैठते, उन्हें काटते भी. हम कहते दादा, मच्छर तो भगा दिया करो. तो वे कहते “मच्छर अपना काम कर रहा है, और मैं अपना;” यदि मैं उसे उड़ाऊंगा तो इसका आशय है कि मैं अपने स्वभाव पर अडिग नहीं हूँ।
तब मुझे तीर्थंकरों के उस चित्र का मतलब समझ आता है, जिनमें दिखाया जाता है कि मुनि और तीर्थंकर साधना कर रहे हैं और उन पर जंगली जीवों का वास है, कोई पशु उन पर हमला भी कर रहा है, किन्तु साधना में लीन व्यक्ति उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा है! कोई दर्द के भाव नहीं है, कोई पीड़ा या क्रोध की भावना नहीं है. आप कह सकते हैं कि वो तो तीर्थंकर हैं, वो कर सकते हैं; किन्तु सवाल तो यही है कि वे तीर्थंकर बने कैसे? अहिंसा-क्रोध०कर्म से पार जाने का जतन करके ही तो वे यह जान पाए।
अहिंसा का मतलब केवल इतना सा ही नहीं कि अपन किसी पर कोई हमला न करें, या पत्थर न फेंकें! मैं सोचता हूँ कि किसी बात पर जब मैं अपने मन में ही यह कल्पना कर लेता हूँ कि किसी व्यक्ति को मैंने पीट दिया या पत्थर मार दिया; तो इसका केवल एक ही मतलब है कि मैंने हिंसा कर ली. ऐसा नहीं है कि केवल भौतिक आघार होने पर ही हिंसा होती है, किसी हिंसा के बारे में विचार-कल्पना कर लेना भी तो हिंसा ही है. इसका मतलब है कि मेरे मन में, मेरे स्वभाव में हिंसा भरी हुई है. बस बात इतनी सी है कि किसी कारण से मैं उसे भौतिक रूप में कर नहीं पा रहा हूँ. जब मौका मिलेगा, तो मैं भौतिक आघात भी कर ही दूंगा।
जब यह कहा जाता है कि अहिंसा से ही हिंसा ख़तम होगी, तब सबसे पहले खुद तो यह सिखाना होगा कि अपने साथ होने वाली हिंसा पर संयम कैसे बरता जाए और फिर उस पर प्रतिक्रिया देने के ऐसे साधन खोजे जाएँ, जो अहिंसा के प्रतीक हों, न कि हिंसा के।
अहिंसा महावीर के पांच सिद्धांतों में से है। अहिंसा को महावीर द्वारा बताये गए बाकी के चार सिद्धांतों से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता है. अहिंसा के साथ वे बताते हैं – सत्य, आस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह अनिवार्य सिद्धांत हैं।
किसी भी बात का, विषय का वास्तविक पहलु क्या है? उस पहलू को जानना और उसे कहना, उसमें विश्वास रखना सत्य है. हमें यह देखना होगा कि हमारे धार्मिक और राजनीतिक नेता धरम, राम, महावीर या पैगम्बर का नाम लेकर, तो कृत्य कर रहे हैं, उसके पीछे की सत्यता क्या है? करना तो वे हिंसा चाहते हैं, किन्तु नाम धर्म का लेते हैं. जो मूल कारण है, वही सत्य है. और जीवन में जो किया जा रहा है, उसे वैसा की कहा जाना चाहिए.
आस्तेय, यानी किसी गलत, प्रपंची तरीके से या अनैतिक तरीके से कोई भी वस्तु या संपदा हासिल न करना. इसका मतलब है कि जीवन में (व्यक्ति, समुदाय और सरकार) किसी गलत तरीके से या नैतिक तरीके से कोई भी वस्तु या आधिपत्य हासिल नहीं करना चाहिए. हमें यह सोचना होगा कि वर्तमान काल में अनैतिक नीतियां बना कर व्यवस्था और लोग और झुण्ड हमारे देश के लाखों-करोड़ों लोगों की संपत्ति छीन रहे हैं. यहाँ तक कि अनैतिक क़ानून बना कर, गलत कामों को सही ठहराया जा रहा है. जंगल ख़तम किये जा रहे हैं, नदियों को जहरीला करने वाली नीतियां बनाई जा रही हैं।
आत्म नियंत्रण यानी ब्रह्मचर्य इसलिए अनिवार्य है, ताकि जरूरतों को सीमित किया जाए. परन्तु हमारी आज की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को यह चाहती ही नहीं कि किसी तरह का संयम या आत्म नियंत्रण हो! नए समाज ने महावीर का फोटो और बाजारू कंपनियों के बनाए हुए रंगीन वाक्यों को “फारवर्ड” करने तक सीमित रखा है. उसे यह समझ नहीं आ रहा है कि यदि व्यवहार और जरूरतों को सीमित नहीं रखेगा, तो बलात्कार भी होंगे, जंगल भी लुटेंगे, हिंसा भी फैलेगी।
महावीर ने कहा कि जीवन में संपत्ति इकट्ठा करने के फेर में मत पड़ना. ये किसी काम नहीं आती. वे जानते थे कि जब कोई संपत्ति इकट्ठा करना शुरू करता है, तो वह कईयों के साथ हिंसा करता है, झूठ बोलता है, अनैतिक नीतियां बनवाता है, जंगल-नदी की ह्त्या करता है......ताकि खूब संपदा इकठ्ठा कर सके. अपनी सम्पदा में से वह थोड़ा हिस्सा माध्यम वर्ग को भी देता है और राजनेताओं को भी. यह हिस्सा पाकर हम मध्यम वर्ग के लोग उन पूंजीपतियों को पूजने लगते हैं, जो महावीर के सिद्धांतों के धज्जियाँ उड़ा रहे होते हैं. हमारी विकास की नीति ही सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आस्तेय और अपरिग्रह के सिद्धांतों के विरुद्ध है. बाज़ार और महावीर के विरोधियों ने शिक्षा के माध्यम से भारत और दुनिया के निवासियों को यह सिखाया है कि “हिंसा और अश्लीलता” मोक्ष के व्यवहारिक पक्ष हैं, और हम लोग लग गए लूटपाट करने में. हिंसा करने में जुट गए. अब राजनीति के लिए बहुत आसान हो गया है, अपने गुलामों का प्रबंधन करना, क्योंकि हिंसा नस-नस में भर गयी है. कुछ देशों में इस्लाम के नाम पर हिंसा का हवन कुंड सज गया, कुछ देशों में ईसाईयों के नाम पर, कहीं हिन्दुओं के नाम पर....बस इंसान इंसान न रहा. जब पूरी दुनिया और पूरा देश हिंसा को पूज रहा है, तब महावीर जयंती की शुभकामनाएं क्यों और किसे दे रहे हैं? आप हिंसा में पूरा विश्वास रखते हैं. यदि १०००० लोगों की ह्त्या हो जाए, १०० महिलाओं से बलात्कार हो जाए, २०० बाघ जल कर मर जाएँ; तो आपको दुःख होगा कि नहीं? होना तो चाहिए! लेकिन यदि यहाँ कहा जाए कि ये सब पाकिस्तान में हुआ है, तो क्या आपकी संवेदना का स्तर उतना ही रहेगा? आतंकवादी भारत में हमला करके २० बच्चों को मार दें और आतंकवादी यही काम पाकिस्तान में करें, तो क्या प्रतिक्रिया एक सामान होगी?
हमारी किताबें भी तो बस हिंसा ही सिखाती हैं. स्कूल में सबसे आगे रहने के लिए प्रतिस्पर्धा का जो रूप रचा गया है, आपको क्या लगता है, उस प्रतिस्पर्धा में भाग लेने के बाद आपके बच्चे अहिंसा में विश्वास रखेंगे? यदि आपको ऐसा लगता है तो फिर मुझे कुछ नहीं कहना है।
वास्तव में हमें अपने भीतर मंथन करने की जरूरत है. मुझसे बहस करना निरर्थक है. आप अपने आप से बहस करने से जितना ज्यादा डरते हैं, आप उतनी ही ज्यादा मुझसे बहस करेंगे! जो जितना डरता है, वह उतना ही हिंसक भी होता है. इसलिए हमारी राजनीति “डर” को सबसे बड़ा हथियार बना कर चलाती है. हिन्दू को मुसलमान से डराती है, मुसलमान को हिन्दू से, जैन को मुसलमान से डराती है और मुसलमान को यहूदी से, शहर वाले को गाँव वाले से डराती है, सब्जी वाले को पुलिस वाले से, नागरिक को आतंकवादी से डराती है और आतंकवादी को राजनीतिज्ञों से; ज़रा भीतर झांकना और देखना कि लगभग हर नस में डर भरा हुआ है. डर फैलाने के लिए ही विभाजन किये जाते हैं, जाति के, धर्म के, देशों के;
एक प्रयोग करना. यह सोचना कि किसी ख़ास व्यक्ति या परिवार या धर्म के प्रति आपके मन में जो विचार है, वह क्यों है? आपने अपने निजी अनुभव उनके साथ क्या हैं? क्या बहुत बुरे निजी और प्रत्यक्ष अनुभव हैं? या हमें यह सिखाया गया है? फिर देखना के कहीं उसमें किसी तरह का डर है या नहीं?
जो जिस देश में २५ हज़ार परिवारों के पास इतनी संपत्ति है, जितनी बाकी के ८० करोड़ परिवारों के पास भी कुल मिलाकर नहीं है, और इस स्थिति पर हम खुश होते हों; वहां महावीर के बधाई संदेशों को “फारवर्ड” करना एक जहरीला नशा भर है. यह एक और प्रमाण है कि हम हिंसा का उत्सव मनाने वाले देश बन गए हैं. फिर से जानिये कि महावीर अपरिग्रह का सन्देश देते हैं. यदि आप महावीर का सन्देश व्यवहार करने के लिए तैयार नहीं हैं, तो कृपया महावीर के अनुयाई होने की ढोंग न करें!
जो लोग धर्म, पहनावे, सरहद, जाति, वर्ण के आधार पर अहिंसक होते हैं, वे ज्यादा खतरनाक लोग हैं. वे अहिंसक नहीं है. उनका महावीर से कोई सरोकार नहीं है।
इसके साथ ही मानव इतिहास का यह दौर धर्मों के बीच सबसे महान या कम महान साबित किये जाने लिए युद्धों का दौर भी है. जरा कहिये कि अपने धर्म की महानता को साबित करने के लिए भी आतंक और नरसंहार का सहारा लिया जाता है. हिंसा और युद्धों से यह साबित किया जाता है कि कौन सा धर्म सबसे महान है? दुनिया के आम लोग यह नहीं जानते, कि उनके धर्मों की हैसियत या मौजूदगी उतनी ही होती है, जितनी कि एक देश की सरहद. उस सरहद के बाद उनका उनके भगवान् की तरंगें (जो फिल्मों में दिखाई जाती हैं) शिथिल पड़ जाती हैं।
मध्यम वर्ग को यह समझाने की कोशिश करो तो वह “तथाकथित राष्ट्रवाद का गंडासा” लेकर हमला कर देता है. क्योंकि हमारे समाज ने उसे महावीर का आत्मपरीक्षण का तरीका सिखाया ही नहीं है. आज के समाज की सत्य, अहिंसा, संयम और अपरिग्रह की भयंकर दुश्मनी है।
एक रास्ता दिखता है. महावीर ने ही सुझाया है – प्रतिक्रमण का रास्ता. शायद यही एक मात्र राष बाख रहा है. क्या मतलब है इसका? शब्द ही अर्थ स्पष्ट करता है – प्रतिक्रमण के मतलब निकलते हैं – “वापस लौटना”; जो घट चुका है उसको देखना, जानना, उसकी समीक्षा करना और उसके प्रभाव को कम करना. वस्तुतः प्रतिक्रमण का एक आशय “आक्रमण” के विपरीत होना भी है. यानी हमें जो भी खराब व्यवहार किये हैं, खराब सोचा है, पाप किये हैं, अपराध किये हैं, उन्हें जानना, स्वीकारना और उन पर पश्चाताप करना. अपने भावों-भावनाओं के आंसुओं से उन निशानों को धोना. कहीं बाहर नहीं जाना, अपने ही भीतर जाना क्योंकि पूरा सच तो केवल प्रतिक्रमण करने वाला ही जानता है. यदि आपके साथ कुछ गलत हुआ है या किसी ने गलत किया है, तो उसे क्षमा करना ताकि वह व्यक्ति भी उस कर्म के भार से मुक्त हो सके. प्रतिक्रमण बताता है कि आप अपने हिस्से की गलती या दुर्भावना को सुधार सकते हैं. जब आप ऐसा कर लेते हैं, तो ही हिंसा की समाप्ति होने लगती है क्योंकि लड़ाई के लिए दो लोगों या दो इकाईयों का होना जरूरी होता है. हो सकता है कि इसके बाद भी आपको दुःख झेलना पड़ेगा, हिंसा झेलना पड़ेगी किन्तु इतना तय है कि उस विनाश में, हिंसा में, दुष्कर्म में आपका अपराध शामिल न होगा. यदि धर्म की बात करते हो, तो यह मानो. यदि नहीं मानते हो तो कह दो कि धर्म का इस्तेमाल हम अपने पापों को छिपाने के लिए करते हैं।
जब हम प्रतिक्रमण करते हैं, तो हम देखते हैं कि उस व्यवहार के कारण क्या थे? क्या सत्य था? कहाँ हिंसा थी? क्या वह व्यवहार जरूरी था? और उसे कैसे रोका जा सकता था?
अक्सर देखना जब आप अपने प्रिय बच्चे को किसी बात पर डांट देते हैं या उसका अपमान कर देते हैं, तब कुछ समय बाद आपके मन में यह बात आती है कि मैंने ऐसा क्यों किया? मैं समझा भी तो सकता था. जब हम ऐसा नहीं सोचते हैं और उसके सुधारते नहीं हैं, तो वह क्रोध, हिंसा, दुर्भावना बढती जाती है. यह स्थिति हमें बर्बरता की तरफ्र ले जाती है।
हम एक बर्तन हैं. वह बर्तन जीवन नाम के चूल्हे पर रखा हुआ है. इस बर्तन में क्या भरना है और क्या नहीं, यही समझ रखना “ज्ञान” है. जो बर्तन में भरा जा रहा है, वह सही है या नहीं; यह जांचने के लिए प्रतिक्रमण किया जाना चाहिए. यह मान लेना कि हमने जो भी किया वह सही और उचित ही था, यह अहंकार है।
महावीर कहते हैं कि हर पल प्रतिक्रमण करते रहना चाहिए ताकि हम तुरंत यह जान सकें कि क्या किया गया, क्यों किया गया और जरूरी व्यवहार/भावों को सुधारा जा सके. हमने पानी बेकार फेंका, यदि अगले ही पल प्रतिक्रमण किया, तो हम जान पायेंगे कि, क्या पानी फेंकना सही था? वाहन चलाते समय गलत तरीके से मुड़े. कुछ हुआ नहीं, दुर्घटना नहीं हुई, किन्तु तरीका तो फिर भी गलत ही था. यदि अगले ही पल प्रतिक्रमण किया, तो हम जान पायेंगे कि मुड़ने का वह तरीका गलत था. अपने सहयोगी के साथ दुर्वयवहार किया या सबके सामने डांटा, तो प्रतिक्रमण बतायेगा कि बिना डांटे या सबसे सामने अपशब्द किये बिना भी वह बात कही जा सकती थी. इससे हमें अपने भीतर हिंसा, असत्य, अनैतिकता और दुर्भावना को निष्क्रिय करने में मदद मिलती है.
आजकल समाज में वर्ष में नाम मात्र के लिए एक बार प्रतिक्रमण की व्यवस्था है, किन्तु जब एक दिन में हम १० बार कुछ ऐसे काम या विचार करते हैं, जिन्हें प्रतिक्रमण से ठीक किया जा सकता है, तो वर्ष भर में ऐसे कितने काम/विचार इकट्ठे हो जायेंगे? यानी उन्हें फिर सुधार पाना भी संभव नहीं होगा! इसीलिए महावीर ने लगातार परिक्रमण करते रहने की बात कही है. सुबह प्रतिक्रमण करके रात्रि के और शाम को प्रतिक्रमण करके दिन भर के कामों/घटनाओं/भावों की समीक्षा की जाना चाहिए. प्रतिक्रमण करने से हमारे भीतर के दोष और दुर्भावनाएं कम होती हैं. यानी हिंसा कम होती है. प्रतिक्रमण का अर्थ है अपने किये गलत कामों या दुर्भावनाओं पर पछतावा करना और दूसरों को क्षमा करना. एक स्तर आता है जब व्यक्ति कुछ कहने या करने से पहले ही प्रतिक्रमण करने की योग्यता पा लेता है, यानी पहले यह जान/समझ लेना कि क्या करने/बोलने से क्या होगा? और उसी विश्लेषण के आधार पर व्यवहार करना.
आज के समाज के भीतर पूंजी और राजनीति के गठजोड़ से एक झुंड पैदा होता है और जो आत्मघाती दस्ता तैयार कर लेता है। यह दस्ता असहमति और विविधता को मारने के लिये नियुक्त होता है। तंत्र मंत्र चमत्कार से लोगों को डरा कर रखा जाता है। ये झुंड डरी हुई जनता को राजनीति के माध्यम से महावीर का सबसे बड़ा प्रतिगामी बना देती है, क्योंकि उसने सत्य-अहिंसा-आस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह को तो त्यागा ही है, साथ ही प्रतिक्रमण की संभावनाओं को भी ख़तम कर दिया है. वह केवल मंदिरों-मस्जिदों-मूर्तियों के माध्यम से नागरिकों की कमजोरी और भीतर बैठे डर से खेलता है.
आलोचना अपने आप में हिंसा नहीं है, किन्तु आलोचनाएँ आज हिंसा का कारण हैं. जिस तरह से आज आलोचनाओं पर हिंसक प्रतिक्रियाएं दी जा रही हैं, उसने तो लगता है कि वर्तमान समाज और व्यवस्था चाहते हैं कि इंसान को विचार, प्रश्न और आलोचना करने की क्षमता ही नहीं होना चाहिए. वास्तविकता तो यही है कि विचार, प्रश्न और आलोचना से ही तो मानव समाज सभ्यता के इस मुकाम तक पहुंचा है. क्या वास्तव में यह वही मुकाम है, जहाँ से मानव आपनी “वापसी” की यात्रा शुरू करेगा और विचार, प्रश्न और आलोचना की हिंसक विरोध इसका संकेत है.
(साभार: फेसबुक/ सचिन कुमार जैन)
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