विशेष: मीडिया और विकल्प: रघु ठाकुर
आज विशेष में प्रस्तुत है, "मीडिया और विकल्प" पर महान समाजवादी चिंतक व विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय संरक्षक- रघु ठाकुर द्वारा प्रस्तुत लेख उन्ही के शब्दों में:
वैसे तो समूची दुनिया में "पत्रकारिता और मीडिया" इस अर्थ में संकटग्रस्त है कि, "पत्रकारिता और मीडिया" 'पूँजी का दास' बन गया है और इसी से जुड़ा हुआ जो दूसरा बड़ा संकट है वह "मूल्यहीनता" का है।
भारत जैसे देशों में जहाँ का आम जीवन पिछली सदी में अपने जीवन मूल्यों और समाज मूल्यों के प्रति संवेदनशील रहा है, वहाँ "मूल्यहीनता" का संकट और ज्यादा गहरा लगता है।
भारतीय पत्रकारिता के काल को हम मोटा-मोटी तौर पर चार भागों में बाँट सकते है:-
(1) आजादी के आंदोलन के दौर की "पत्रकारिता" जो राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी थी, जिसमें बड़ी संख्या में पत्रकार, व्यवसायी, पत्रकार नहीं बल्कि आजादी के सिपाही और नायक भी थे।
(2) आजादी के बाद लगभग दो दशक की "पत्रकारिता" जो लोकतंत्र और विकास उन्मुख थी।
(3) आजादी के तीसरे दशक में "पीत-पत्रकारिता" का तेजी से विकास हुआ।
(4) 1980 के दशक से ‘‘विज्ञापन प्रवण’’ पत्रकारिता और "पेड न्यूज़" का दौर आया।
1980 के बाद सरकारों ने मीडिया को नियंत्रित करने के लिए प्रेस सेंसरशिप के बजाय मीडिया को धन और सुविधाओं का लालच देना शुरू किया। राजनैतिक पत्रकारिता में सत्ताधारी और सम्पन्न नेताओं के बड़े-बड़े साक्षात्कार हर पेज पर 2-3 फोटो का चलन शुरू हुआ और यह एक प्रकार से इन नेताओं के प्रचार का ही हिस्सा होता था।
ऐसे साक्षात्कार के लिए वह पत्रकारों के लिए हवाई जहाजों से लाने ले जाने लगे। उन्हें पाँच सितारा होटलों में ठहराकर कई-कई दिनों तक खण्ड-खण्ड में साक्षात्कार आदि की व्यवस्था कराने लगे। उसके लिए फिर आकर्षक धन-राशि का सिलसिला चल पड़ा। यह भी एक प्रकार से "पेड न्यूज" ही थी। कालान्तर में पेड न्यूज़ बढ़ते-बढ़ते नीचे कस्वाई स्तर तक पहुँच गई और सरकार से नीतिगत् लाभ के लिए मालिक के लिए सत्ता सम्बधों के लिए, प्रधान सम्पादक की जिम्मेवारी और नीचे के स्तर पर विज्ञापन का कोटा तथा उसके लिए संवाद-दाता / हाकर को पूरी छूट का सिलसिला चल पड़ा, और इस प्रकार का "फेक न्यूज़" व "पेड न्यूज़" का जहर मीडिया की शिराओं में ऊपर से नीचे तक फैल गया।
इसके बाद फेक न्यूज़ का सिलसिला शुरू हुआ और अपने निजी या व्यवसायिक हितों के लिए झूठी खबरे गढने का दौर शुरू हुआ। 1980 के दशक में संचार क्रांति, इंटरनेट, मोबाईल आदि के आगमन के बाद मीडिया दो हिस्सों में बंट गया। एक "प्रिंट मीडिया" और दूसरा "इलेक्ट्रानिक मीडिया"।
संचार तकनीक का इस्तेमाल प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया में तेजी से शुरू हुआ और जहां एक तरफ क्षमताओं की गतिशीलता बढ़ी, पहुँच बढ़ी, वहीं दूसरी तरफ पत्रकारिता के रोजगार भी कम हुए।
पत्रकारिता के क्षेत्र में हाथ से काम करने वाले प्रूफ रीडर प्रिंटर जैसे पद तो समाप्त ही हो गए। लिखने वाले पत्रकारों की भी संख्या काफी घट गई और उनका काम मशीन से होने लगा।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने तो एक तूफान सा खड़ा कर दिया और कोई भी समाचार चंद सेकेंडों में न केवल फोटोग्राफ्स के साथ-साथ बल्कि सजीव चित्रों के साथ देश तो छोड़ें-दुनिया के किसी भी कोने में भेजा जाने लगा।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया और संचार तकनीक से याने डिजिटल मीडिया से कागज पर छपने वाले अखबारों और उनके पढ़ने वालों में काफी कमी आई है।
यह अलग बात है कि मीडिया और छापा मीडिया घरानों के मालिक विज्ञापन के लिए अपनी प्रसार संख्या लाखों करोड़ों बताते है।
इसी प्रसार संख्या व विज्ञापन हड़पने के हिस्से के रूप मेें संस्करणवाद शुरू हुआ और ‘‘बंधित न्यूज़’’ का एक नया स्वरूप सामने आया।
जन संतुष्टि और पाठक संतोष के लिए समाचार (वे स्थानीय हों या राष्ट्रीय) स्थानीय संस्करणों में कैद किए जाने लगे तथा सत्ता समाचार-विज्ञापन समाचार-उपकृत समाचार भले ही वे कितने ही महत्वहीन या समाज विरोधी हो राष्ट्रीय स्तर पर स्थान पाने लगे।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया में तो पत्रकारिता का एक ऐसा दौर आया है कि जहां कैमरा मेन जो फोटो और विज्ञप्ति साथ ले जाता है, वह ही पत्रकार बन गया है। मीडिया में अब खबरों को परोसने, उनका एकाधिकार बताने और सत्ता पर प्रभाव दिखाने की भी होड़ चल पड़ी है। ब्रेकिंग न्यूज़ के शीर्षक से एक ही खबर को बार-बार दोहराना व उसे सनसनी खेज बनाने का प्रयास करना ‘‘एक्सक्ल्यूसिव’’ का जुमला दोहराना और शासन-प्रशासन से दोस्ताना सम्बध बनाकर छिटपुट समस्या का हल कराना और फिर उसे अखबार का ‘‘इंपेक्ट’’ बताना यह आम चलन बन गया है।
हालात यहाँ तक बिगड़े है कि, 'शब्द' अपना अर्थ खोने लगे है। जिस प्रकार किसी दवा का असर उसकी निश्चित खुराक लगातार लेने से कुछ समय पश्चात् मरीज पर असर करना कम देती है तथा परिणाम स्वरूप उसे अपनी दवा की मात्रा बढ़ाना पड़ती है, यही हमारे मीडिया के साथ भी हो रहा है।
अब लोग खबर पर ध्यान नहीं देते, इसलिए ‘‘बड़ी खबर’’ बड़ा हमला, जैसे वजनी शब्दों का इस्तेमाल करना मीडिया की लाचारी बन गया है। अब तो मीडिया मालिकों ने मीडिया की फ्रेंचाइजी देना भी शुरू किया है, इतना पैसा दो जो करना हो करो। यह नाम की गुडविल बेचना जैसा है।
मीडिया में प्रिेंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के अलावा लगभग पिछले दशक से एक नई मीडिया की विधा की शुरूआत हुई है, जिसे ‘‘सोशल मीडिया’’ कहा जाता है। जब सोशल मीडिया की शुरूआत हुई थी तब उस समय ऐसा लगता था कि प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के एकाधिकार का विकल्प मिल गया है, पर अब स्थिति और भी भयानक हो गई है। अब हर व्यक्ति पत्रकार है और वह जो चाहे वह लिख सकता है। उसे किसी प्रमाण की, तथ्यों की, कोई जरूरत नहीं है। एक प्रकार का उत्तरदायित्वहीनता और अराजकता का दौर सोशल मीडिया से शुरू हो गया है। कौन सा समाचार सही है और कौन सा गलत है, अब तय करना मुश्किल है। फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्यूटर, इंस्टाग्राम, ब्लाॅग, वेबसाइट आदि के माध्यमों से सोशल मीडिया जन-जन तक पहुँच गया है। जहाँ एक तरफ इससे सूचनाओं और लेखों का अम्बार लगा है, वहीं दूसरी तरफ बड़े खतरे भी पैदा हो गए है। अब सोशल मीडिया की एक सही या झूठी खबर दंगा फसाद करा सकती है। युद्ध करा सकती है, और कोई भी भयावह घटना को अंजाम दे सकती है। इसकी प्रमाणिकता को जाँचने का कोई उपाय नहीं है और सरकारें भी इसके प्रति असहाय है। निजता और व्यक्ति आजादी के नाम पर कुछ भी लिखा जा सकता है। सरकार का हस्तक्षेप भी व्यावहारिक नहीं है, क्योंकि सरकार का हस्तक्षेप किसी भी दिन अपने हित-अहित के लिए वास्तविक आजादी पर ही नियंत्रण करने का प्रयास कर सकता है। पर इसमें कोई दो राय नहीं है कि, ये वाट्सएप यूनिवर्सिटी की खबरें कभी भी कुछ भी कहर ढा सकती है। हालांकि इन्टरनेट व सोशल मीडिया का उपयोग भी, शिक्षा, दवा, व्यापार की जागृति आदि के लिये काफी उपयोगी साबित हुआ है।
मीडिया में जो दोष आए है, जो गिरावट आई है, उसे दस ‘‘सी’’ कहा जा सकता है, (1) क्राइम, (2) सिनेमा (3) सेलिब्रिटी (4) क्रिकेट (5) कामर्स (6) कार्पाेरेट (7) करप्शन (8) कम्युनाईलेशन (9) कन्फ्युजन (10) कस्टमस (परंपरा अंधविश्वास आदि) धर्म के नाम पर लोगों का भाग्यवादी और कमजोर बनाना तथा अन्धविश्वास के माध्यम से जन मानस में वैज्ञानिक प्रवृत्तियों को समाप्त करना और अन्धविश्वास बढा़ना भी आज के मीडिया के धर्म मंत्र बन गए है। दरअसल कार्पाेरेट और कामर्स याने पूँजीवाद और व्यापार ने सारे मीडिया को हाईजैक कर लिया है। राजनीति और आम-जन के लिए मीडिया में मुश्किल से 5 से 10 प्रतिशत स्थान है, और वह भी महत्वहीन स्थानों पर। अब तो प्रथम पृष्ठ पर क्रिकेट-क्राइम और सेलिब्र्रिटी का जिक्र होता है। दूसरे या तीसरे पेजों में धर्म की गंगायें बहती हैं।
हालांकि वास्तविक स्थिति यह है कि, मीडिया में भले ही धर्म और नैतिकता की गंगा बहना शुरू हो गई हो परंतु सच्चाई तो यह है कि मीडिया की गंगा में अनैतिकता व मूल्यहीनता की बाढ़ आई है।
दो पेज कम से कम बाजार के सुपुर्द रहते है, और एक दो पेज में बकाया सारे विश्व-देश, या शहरों को सिटी संस्करणों में समेट दिया जाता है या फिर स्थानीयता से भरा जाता है।
यही स्थिति टीवी चैनल के डिवेट्स की भी है। टीवी डिवेट में आम तौर पर राजधानी हो या बड़े शहरों के स्थाई और व्यवसायिक प्रवक्ता हिस्सेदार होने लगे है। जिनका सम्बन्ध सत्ताधारी पक्ष से सम्भावित सत्तापक्ष से या कार्पाेरेट से होता है और या फिर वह देर रात्रि में डिवेट आयोजनकर्ताओं की विशेष पंच सितारा दावतों के मेजबान होते है। इनकी रात की दावते जिन होटलों में होती है उनमें कोई सामान्य व्यक्ति खाना नहीं खा सकता बल्कि आम तौर पर एक व्यक्ति का खाना-पानी ही हजारों रूपयों का होता है।
1990 के बाद से वैश्विक स्तर पर काॅर्पाेरेट मीडिया ने एक प्रकार की ‘‘गाइडेड मिसाइल पत्रकारिता’’ शुरू की है। जिसमें सारे मीडिया को काॅर्पाेरेट कुछ समय के लिए अपना लक्ष्य पूरा होने तक के लिये खरीद लेता या अनुबंधित है कर लेता है।
इस आक्रामक मीडिया के प्रचार से देश वक्ती तौर पर गुुमराह हो जाता है और काॅर्पाेरेट अपने हितो की पूर्ति कर लेता है।
दुनिया में इसका प्रयोग ‘‘जैसमिन’’ रिवूलिशन’’ के नाम से मिस्र में और उसके पहले इराक में देखा जा चुका है।भारत में भी वर्ष 2000 में ‘‘जन लोकपाल बिल’’ के नाम पर चलाया गया अभियान- ऐसे ही तरीके से कार्पाेरेट को बचाने का अभियान था।
‘‘मिसाइल’’ जर्नलेजिम के बाद ‘‘गोयबिलस जर्नलिज्म’’ याने झूठ बोलो-जोर से बोलो और बार-बार बोलो, तथा झूठ को सच बनाकर प्रस्तुत करो, शुरू हुआ है। आम जन को इसमें फाँस लेना यह लक्ष्य होता है।
मैं यह स्पष्ट कर दूॅ कि अभी भी पत्रकारिता में, मीडिया में, कुछ लोग है जो अपवाद है, और अपने व्यक्तिगत या निजी रूप में ईमानदारी से काम कर रहे है, परन्तु उनकी संख्या भी राजनीति के समान ऊंगलियों में गिनने लायक है।
दूसरी तरफ पत्रकारिता व मीडिया पर पूँजी का दबाव और मालिकों की सत्ता इतनी बढ़ गई है कि, वास्तविक मीडिया उसके नीचे दबकर रह गया है। न उफ कर सकता है, न बोल सकता है, न मुक्त हो सकता है। सम्पादक नाम की संस्था ही समाप्त हो गई है और सम्पादक बहुत हद तक मालिकों के पी।आर।ओ। जैसे बन गए है।
उन्हें बड़े-बड़े वेतनों की जंजीर से बाँध लिया है। और अब उनका इस वेतन व सुख-सुविधाओं के आकर्षण से मुक्त होना संभव नहीं लग रहा। पत्रकार के हाथ से ही पत्रकार निकाला जाता है, और उसे भूखे मरने पर लाचार कर दिया जाता है। पिछले दो दशकों में सेकड़ों पत्रकार छँटनी के शिकार बना दिए गए। मालिक की मर्जी के खिलाफ जरा भी हलचल करना अपराध मान लिया गया। एक ऐसे भयावह और अघोषित सेंसरशिप के दौर में पत्रकारिता उलझ गई है।
स्व। राजकिशोर के अनुसार संपादक सबसे निरंकुश तनाशाह बन गये है। अखबार बाहर आजादी की बात करते है परंतु अखबारों के अंदर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नाम मात्र को भी नही है। अब विज्ञापन ही खबर बन गए है। मीडिया दो घड़ों में बंट गया है, एक मालिक मीडिया और एक मजदूर मीडिया।
अभी तक देश में 3 प्रकार के विश्वविद्यालय थे। एक सरकारी दूसरे निजी, तीसरे निजी में भी जो सामाजिक उद्देश्य के लिए थे पर अब चौथे प्रकार का विश्वविद्यालय शुरू हुआ है जो ‘‘व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी’’ है और जहाँ झूठ के प्रचार का नि:शुल्क प्रशिक्षण दिया जाता है। ‘‘मीडिया खुद समस्यायें पैदा करता है, समस्यों को महामारी बनाता है और जब महामारी के शिकार होने पर लोग मरने लगते हैं,तब दवा बताता है और उपदेशक बन जाता है।’’
अब वास्तविक जन समस्यायें- रोजगार, किसान, मजदूर, गरीब, विषमता मीडिया के लिए मुद्दे नहीं है। बल्कि ऐसी धटनाएं मुद्दे है, जिन्हें दिखाना - बताना उनका कर्तव्य नहीं है। ‘‘मीडिया अब हकीकत से दूर दिखावा, अच्छाई के बजाय बुराई, योग्यता के बजाय अक्षमता और छोटे के बजाय बड़े का सहमना सहभागी और सहचर हो गया है’’।
हालांकि यह भी सच है कि मीडिया व इन्टरनेट ने सूचनाओं का अंबार खड़ा कर दिया है। इसके दोनों पहलू है। फेसबुक संवाद का बेहतर माध्यम हो सकता है। पर यह तो उपयोग करने वाले पर भी निर्भर होगा। आप इस पर गाली लिखने को भी आजाद है, और गाली खाने को भी। यू-ट्यूब, ट्विटर की व्यापकता से, विकल्प तो मिला है, परंतु इसकी गुणवत्ता की परख-इसका सदुपयोग या दुरूपयोग दिमाग के बंद कठघरों को, खोलने या बंद करने या दोनों के इस्तेमाल में हो सकता है। चाकू या छुरे से इन्सान को मारा भी जा सकता है, आॅपरेशन कर बचाया भी जा सकता है। यह तो प्रयोग करने वाले के दिमाग पर, विचार पर, लक्ष्य पर, तय होगा। सोशल मीडिया, नशा मुक्ति दूत भी है और नसेड़ी बनाने का औजार भी।
गाँधी के जन्म के 150वीं वर्ष में हमारा यह प्रयास होना चाहिए कि वैकल्पिक मीडिया खड़ा हो। पर यह भी तब होगा जब आम-जन इसके लिए तैयार होगा। उसे अच्छे समाचार पत्रों- पत्रिकाओं को आर्थिक सहयोग से प्रोत्साहित व जिंदा रखना होगा। जिस दिन मीडिया 'जन' के साथ और जन 'मीडिया' के साथ खड़ा हो जायेगा, व्यवस्था और मीडिया दोनों के विकल्प मिल जायेंगे।
रघु ठाकुर
लोहिया सदन, जहाँगीराबाद, भोपाल
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